लखनऊ। महाराष्ट्र में पुणे जिले के किसान बापू साहेब के पास 15 एकड़ अंगूर की बाग थी, पिछले दिनों उन्होंने अपनी 7 एकड़ बाग उजाड़ दी। बापू साहेब के मुताबिक मजबूरी में अपनी बाग उजाड़ी है, क्योंकि पिछले तीन वर्षों से मार्केट में अच्छा रेट नहीं मिल रहा और मौसम भी बहुत परेशान कर रहा था।
“अभी क्या करने का, मार्केट का हाल बुरा है। एक्सपोर्ट (निर्यातक) रेट नहीं दे रहे हैं। तीन साल हो गए हैं। ऐसा हो रहा है। मौसम और मार्केट दोनों से परेशान हैं। लोकल मार्केट में 40-50 रुपए में अंगूर बिक रहा है। बड़े व्यापारी माल उठा नहीं रहे। मजदूरी बढ़ रही है, औषधि (कीटनाशक आदि) का दाम बढ़ रहा है। हमारे गांव में सिर्फ मैंने नहीं, कई लोगों ने बाग तोड़े हैं। दूसरे कई जिलों में भी यही हो रहा है।” मराठी और मिलीजुली हिंदी में बापू साहेब गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं।
बापू साहेब, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से करीब 200 किलोमीटर दूर पुणे की जुन्नर तालुका (तहसील) के नारंगा गांव के रहने वाले हैं। 57 साल के बापू साहेब के मुताबिक उन्हें पता है कि सिर्फ पुणे ही नहीं पड़ोसी जिले सांगली, नाशिक और गोदिंया जिले, खासकर गोदिंया की गोरेगांव तालुका में कई किसानों ने बाग खत्म किए हैं। गांव कनेक्शऩ ने भी कई किसानों से बात की है, जिन्होंने कहा कि वो अब प्याज और सब्जियों की खेती करना चाहते हैं क्योंकि इसमें खर्च बहुत ज्यादा है।
महाराष्ट्र के किसानों की समस्याएं कोविड-19 के पहले लॉकडाउन से बढ़नी शुरु हो गई थी, और अगले तीन सालों में दिक्कतें बढ़ गईं। 25 मार्च, 2020 में देश में जब पहली बार कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन लगा था, उन दिनों में महाराष्ट्र के बाग पके हुए अंगूरों से लदे थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते ज्यादातर माल बिक नहीं पाया था।
“महाराष्ट्र में अंगूर किसानों के परेशान होने के 2-3 कारण हैं। जो पहला लॉकडाउन लगा था, उस दौरान माल निकलना शुरु हुआ था, लेकिन पूरा काम रुक गया। उस साल किसानों का पैसा जीरो हो गया। 2020 में लॉकडाउन से पहले बारिश ने परेशान किया तो, 2021 में तूफान (गुलाब, ताउते) ने भारी तबाही मचाई तो अक्टूबर फिर में बेमौसम बारिश हुई। 2022 में माल तैयार हैं लेकिन मार्केट नहीं है। एक्सपोर्टर रेट नहीं दे रहे क्योंकि बारिश के चलते अंगूर में वो रंग (क्वालिटी) नहीं है।” महाराष्ट्र वेजिटेबल ग्रोवर एसोसिशन के अध्यश्र राम गढ़वे गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं। गढवे पुणे में रहते हैं।
महाराष्ट्र में साल 2019 के अक्टूबर महीने में भारी बारिश हुई थी, उस दौरान नाशिक की अगौती अंगूर बेल्ट में काफी नुकसान हुआ था, गांव कनेक्शन ने नाशिक से कई ग्राउंड रिपोर्ट की थीं।
देश में सबसे ज्यादा अंगूर की खेती महाराष्ट्र में
देश में महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान और यूपी में अंगूर की खेती होती है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के मुताबिक पूरे देश में औसतन 145-150 हजार हेक्टेयर में अंगूर की खेती होती है। अक्टूबर 2021 के दूसरे अग्रिम अनुमान के मुताबिक साल 2019-20 में देश में 152 हजार हेक्टेयर में अंगूर की खेती हुई थी, जबकि इस दौरान 3229 हजार मीट्रिक टन उत्पादन का अनुमान था।
भारत विश्व का सबसे बड़ा ताजे अंगूरों का निर्यातक देश है। देश से जिन फलों का निर्यात होता है, उनमें अंगूर की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। यहां तक कि आम से करीब 9 गुना ज्यादा है। वर्ष 2020-21 के दौरान ताजे अंगूर का निर्यात कुल मिलाकर 314 मिलियन अमेरिकी डॉलर (2,298.47 करोड़ रुपये) का हुआ। देश ने वर्ष 2020-21 के दौरान 2,298.47 करोड़ रुपये / 313.57 मिलियन अमरीकी डालर के मूल्य के लिए दुनिया को 2,46,107.38 मीट्रिक टन अंगूर का निर्यात किया गया है।
लेकिन क्या ये आंकड़े पर्याप्त हैं? किसान, व्यापारी, किसान संगठनों के मुताबिक देश में जितना अंगूर पैदा होता है उसका बहुत छोटा हिस्सा विदेश जा पाता है। इसके पीछे सरकारी उदासीनता और क्वालिटी को कारण बताया जाता है।
“नॉट वेरी हैप्पी बिजनेस मोर, (अंगूर अब फायदे का सौदा नहीं रहा), अंगूर उत्पादक एसोसिशन (Grape Growers Association) के अध्यक्ष सोपान कंचन गांव कनेक्शन से कहते हैं इसी लाइन में पूरी कहानी है। पुणे में रहने वाले सोपान के मुताबिक इस संगठन में महाराष्ट्र के 35000 किसान जुड़े हैं।
वो कहते हैं, “पूरे देश में 12-15 लाख किलो अंगूर पैदा होता है। लेकिन विदेश कितना जाता है? मुश्किल से 3 फीसदी का निर्यात हो पाता है।”
वेजिटेबल ग्रोवर एसोसिएशन के राम गढ़वे भी कहते हैं, “दिल्ली-बंबई में रहने वाले को मालूम नहीं पड़ता कि कितना टन माल का उत्पादन गया और कितना जाना चाहिए था, वो तो सरकार का आंकड़ा देख कर खुश होते हैं लेकिन समस्या ये है कि जाना अगर 2 हजार कंटेनर चाहिए तो जाता है सिर्फ 600-800 कंटेनर है, बाकी यहीं लोकल मार्केट में खपाना पड़ता है।”
ग्रेप्स ग्रोवर एसोसिएशन के अध्यक्ष सोपान कंचन कहते हैं, “अंगूर की खेती में पहली बार में बाड़ से लेकर पौधों तक करीब 7 लाख का खर्च आता है। मौसम बहुत बदल दया है। किसान फसल खो रहे हैं। किसानों को 12 फीसदी तक ब्याज पर लेना पड़ता है। कीटनाशक और पोषक तत्व अलग से बहुत महंगे हैं। अंगूर की खेती से जुड़े उत्पादों पर 18 फीसदी तक जीएसटी है। फसल की लागत 3 गुना बढ़ गई है। लेकिन मुनाफा नहीं।” पहली बार पौधे और बाड़ लगाने पर किसानों को करीब 7 लाख खर्च होते हैं। तीन साल उत्पादन शुरु होता है फिर 2 लाख से ढाई लाख का खर्च प्रति एकड़ आता है। जबकि मार्केट सही रहने पर उत्पादन 5 से 10 लाख के ऊपर भी जा सकता है।
अपनी बात को जारी रखते हुए वो कहते हैं, “किसानों के सामने दो बड़ी समस्याएं हैं। हवामान (मौसम) के चलते क्वालिटी बड़ा मुद्दा है। दूसरा मार्केट है। कोई किसान ऐसा नहीं है जो अपना माल खुद बेच सके। माल तो सारा कंपनियों और व्यापारियों के माध्यम से बेच जाता है। उन्होंने कार्टेल (संगठन जैसा) बना लिया है। वो अपने रेट तय करते हैं। इससे पहले किसानों ने भी अपना संगठन बनाया था कि एक फिक्स रेट से नीचे माल नहीं बेचेगें लेकिन खरीदने वाली तो वही व्यापारी हैं ऐसे में किसानों को फिर झुकना पड़ा है। लगातार घाटे के चलते किसान इस खेती को छोड़ रहे हैं।”
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अंगूर के बाग कटाने के सवाल पर वो कहते हैं, “चार साल पहले रेट अच्छा था तो किसानों ने बड़े पैमाने पर बाग लगाए थे, फिर तीन साल से लगातार घाटा हो रहा है तो किसान अपनी खेती कम कर रहे हैं। और एक बार ये कटने का सिलसिला शुरु हो जाता तो चलता ही जाता है।”
“नॉट वेरी हैप्पी बिजनेस मोर, (अंगूर अब फायदे का सौदा नहीं रहा)- सोपान कंचन, अध्यक्ष,अंगूर उत्पादक एसोसिशन
मौसम सबसे बड़ा रोड़ा- कभी बारिश तो कभी ओले पहुंचा रहे अंगूर को नुकसान
अंगूर की फसल पर पड़ने वाले मौसम के प्रभाव को लेकर लंबा अनुभव रखने वाले, अपने शोध, अनुभव से अंगूर अनुसंधान संस्थान को कई तरह से सुझाव देने वाले वरिष्ठ मौसम वैज्ञानिक और प्रेसीडेंट ऑफ इंटरनेशनल सोसायटी ऑफ इंग्रीकल्चर मेट्रोलॉजी (International Society for Agricultural Meteorology) और आईएमडी के पूर्व उप महानिदेशक मेट्रोलॉजी, कृषि मेट्रोलॉजी संभाग पुणे, डॉ. एन चट्टोपाध्याय ने गांव कनेक्शन से लंबी वार्ती की है। उनके मुताबिक अंगूर की फसल काफी संवेदनशील होती है। इसमें लगने वाले रोग मौसम आधारित होते हैं, सर्दी, गर्मी, बारिश और ओले, उसकी क्वालिटी और उत्पादन पर असर डालते हैं, इसलिए मौसम को समझकर, उसके अनुरुप काम करके किसान नुकसान से बच सकते हैं और मुनाफा कमा सकते हैं।
डॉ. चट्टोपाध्याय बताते हैं, “अंगूर की खेती में मुनाफा ज्यादा है लेकिन इसके निर्यात में सबसे ज्यादा चिंता गुणवत्ता की रहती है। अंगूर में दो रोग प्रमुखता से आते हैं, कोमल फफूंदी (downy mildew) और Powdery mildew (पाउडरी मिल्ड्यू)। ये पूरी फसल को चौपट कर देते हैं। इनसे बचने के लिए किसान बहुत ज्यादा फंगीसाइड (फफूंदनाशक) हैं। जो रोग से बचाते हैं लेकिन क्वालिटी खराब कर देते हैं, उसकी विदेश में मांग नहीं रहती। जबकि ये दोनों रोग मौसम आधारित हैं और ये तब आते हैं जब किसान सितंबर मध्य से अक्टूबर के आखिर तक प्रूनिंग (कटाई छंटाई) करता है, अगर उस वक्त बारिश हो गई तो रोग आना तय है।”
बारिश पर नियंत्रण नहीं है लेकिन डॉ.एन चट्टोपाध्याय के मुताबिक उसके प्रबंधन और तैयारी में इसका समाधान है। डॉ चट्टोपाध्याय कहते हैं, “हमने अंगूर अनुसंधान संस्थान और किसान से कहा कि इस समस्या का समाधान है। हमारा मौसम पूर्वानुमान बहुत जबरदस्त है। हम दो तरह के फोरकॉस्ट देते हैं, जिसमें एक होता है गुणात्मक वर्षा पूर्वानुमान, जिसमें हम बताते हैं कि बारिश कब होगी और कितनी हो सकती है। इसलिए हम किसानों को बता सकते हैं कि बारिश होने वाले इन दिनों पूर्निंग (कटाई-छटाई) न करें। ऐसे में बारिश के समय को देखकर इस रोग से बचा जा सकता है।”
अंगूर को दूसरा सबसे ज्यादा नुकसान ओलावृष्टि से होता है। अगर ओला अंगूर को छू गया तो पूरा गुच्छा बर्बाद हो सकता है। देश में सबसे ज्यादा अंगूर महाराष्ट्र में पैदा होता है और दुर्भाग्य से पिछले एक दशक में ओलावृष्टि भी सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में हुई है।
देश में सबसे ज्यादा ओलावृष्टि महाराष्ट्र में
ओलावृष्टि को लेकर कई शोध और पेपर प्रस्तुत कर चुके डॉ. चट्टेपाध्याय बताते हैं, “हमने पिछले 50 वर्षों की ओलावृष्टि आंकड़ों का शोध किया है, पहले ये नार्थ ईस्ट (असम, मेघालय, नागालैंड आदि) में होते थे। पिछले 10-15 सालों में सबसे ज्यादा ओलावृष्टि महाराष्ट्र में होते हैं। बारिश की अपेक्षा ओलावृष्टि का पूर्वानुमान मुश्किल होता है लेकिन नामुमकिन नहीं। मौसम विभाग 6 घंटे का एक स्पेशल फोरकास्ट भेजता है। इसके मैनेजमेंट पार्ट में हमने कहा, अनाज वाली फसलों में तो संभव नहीं लेकिन अंगूर जैसी बागवानी फसलों में हेल नेट (क्रॉप कवर) लगाया जा सकता है। अंगूर संस्थान (मंजरी फार्म) में बहुत सारे किसानों ने लगाया है और अपनी फसलें बचा रहे हैं। इसमे एक बार पैसा खर्च होता है।”
अंगूर में मौसम से जुड़ी तीसरी समस्या सर्दी की होती है। अंगूर सर्दियों को लेकर भी बहुत संवेदशनशील है। अगर किसी रात को उत्तर भारत की तरह पाला पड़ गया तो एक ही रात में पूरी फसल बर्बाद हो सकती है। ऐसे में वैज्ञानिक को तापमान पर नजर रखने और हालात बिगड़ने पर खेत में धुआं करने की सलाह देते हैं।
डॉ. चट्टोपाध्याय कहते हैं, “अगर एक दो रातों में न्यूनतम तापमान 4.4 डिग्री सेल्सियस से नीचे गया तो अंगूर की फसल का चौपट होना तया है। अंगूर का साइज बड़ा या लंबा हो जाएगा, सुगर कंटेट (मिठास) कम हो जाएगी। ऐसे में जरुरी है कि किसान तापमान से जुड़े पूर्वानुमान पर ध्यान दें और 4.4 डिग्री होने वाला हो तो खेत में अंगूर की पहले रखी गई पत्तियां जलाकर धुआं कर दें।”
पाला पड़े तो बाग में करें धुआं
वो आगे कहते हैं, “महाराष्ट्र में ऐसा पूरे सीजन में 2-4 बार ही होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वेटर्न डिस्टरबेंस (पश्चिमी झंझा- पश्चिमी विक्षोभ) जब घूमते-घूमते मध्य भारत में आता हो तो उत्तरी भारत से आने वाली हवाएं ठंड लेकर आती हैं, जिससे कई बार महाराष्ट्र में एक या दो दिन के लिए रात 2 बजे के बाद तापमान 4.4 डिग्री से नीचे चला जाता है। ऐसे में हम 3 दिन लघु अंतराल की एडवाइजरी जारी करते हैं। जिसमे ये कहा जाता है कि ऐसा होने पर पहले से रखी अंगूर की ही पत्तियों में आग लगा दो तो धुंआ के चलते टेंपरेचर इनवर्सन( ताप उत्क्रमण) के चलते खेत का तापमान कम नहीं होगा और फसल बच जाएगी।”
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बचने के लिए क्रॉप कवर है जरिया
जलवायु परिवर्तन (climate change) के इस दौर में किसानों को नुकसान से बचाने के लिए कृषि वैज्ञानिक और जानकार कई तरह के प्रयोग भी कर रहे हैं, इनमें से कई का जिक्र ऊपर डॉ. चट्टोपाध्याय ने किया। अंगूर की खेती और किसानी में किसानों के सामने आ रही समस्याओं को लेकर गांव कनेक्शन ने पुणे में स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के संस्थान के राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान संस्थान के ICAR-National Research Centre For Grapes निदेशक डॉ आरजी सोमकुवर से बात की।
अंगूर अनुसंधान के निदेशक ने गांव कनेक्शन से कहा, “बेमौसम बारिश होती है तो किसानों को दिक्कतें तो होती है लेकिन हमारे संस्थान ने उन्हें कई तकनीकें दी हैं। अगर ज्यादा बारिश होती है तो अंगूर क्रैक हो जाता है। ओलावृष्टि होती है तो भी अंगूर खराब हो जाता है, जिसे कोई खरीदता नहीं। ऐसे में जो संवेदनशील एरिया है वहां हमने किसानों को हेलकवर (क्रॉप कवर) लगाने की सलाह दी है। इसकी प्रति एकड़ करीब ढाई लाख लागत आती है लेकिन कई कई वर्षों तक चलता है।”
वो आगे कहते हैं, “हम लोग किसानों को हर हफ्ते मौसम की जानकारी देते हैं, जो मराठी, हिंदी, तमिल,अंग्रेजी में होती है। इसके अलावा एक विशेष मंजरी मैसेज (सेवा का नाम) हर हफ्ते करीब ढाई करोड़ किसानों तक भेजा जाता है। हमने किसानों को ऐसी किस्में उगाने का भी सलाह देते हैं तो मौसम अनुकूल हो। हमारे संस्थान से करीब 10 साल पहले मंजरी श्यामा (ब्लैक सीडलेश कलर) अंगूर है जिसमें क्रेकिंग (दरारें) नहीं होती हैं। यहां तक अगैती फसल के लिए इसमें कलर लाने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है।”
उन्होंने ये भी कहा कि जब लॉकडाउन लगा था और किसानों की फसलें बाग में थी तो हमने किसानों को ड्राई ऑन वाइन (Dry of vine) की तककीनी दी थी, जिसमें किसानों को बताया गया था कैसे वो अंगूर को खेत में ही किशमिश बनाकर होने वाले नुकसान से बच सकते हैं।