समुदाय, स्वास्थ्यकर्मियों और इस इलाके में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों के बीच यह जानने की बैचेनी है कि लोग आखिर वैक्सीन क्यों नहीं लगवाना चाहते। उन्हें वही घिसे पिटे कारण दिखते हैं- अंधविश्वास, अशिक्षा, डर…
प्रशांत श्रीनिवास बेंगलुरु के इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ में सहायक निदेशक (शोध) हैं और चामराजनगर के बिलिगिरिरंगना हिल्स (बीआरहिल्स) पहाड़ी इलाके में स्थित फील्ड स्टेशन में तैनात हैं। वह कहते हैं कि आदिवासी समुदाय फूंक फूंककर कदम उठा रहे हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया कि टीकाकरण की जो रणनीति बनाई गई, वह संपन्न शहरी मध्य वर्ग के लिए बिल्कुल उपयुक्त है, लेकिन वह यहां के परिवेश में शायद ही काम करे और लगता है कि किसी ने इस पर ध्यान भी नहीं दिया।
वह याद करते हैं कि कैसे सोलिगा आदिवासियों के एक गांव के एक बुजुर्ग ने उनसे पूछा था, “जब मैंने पानी की पाइपलाइन और सड़कें मांगी थीं, तो कोई मेरे पास नहीं आया था, लेकिन आज हर कोई मेरी जान बचाने के लिए लाइन लगाकर खड़ा है। आखिर क्यों?” गांव के इस मुखिया ने आगे कहा, “शहरी लोगों की बीमारी हमारे जंगलों में आने से पहले, क्या मेरा जीवन महत्वपूर्ण नहीं था?”
साथ मिलकर काम करना
श्रीनिवास कहते हैं, “टीकाकरण अभियान को सफल बनाना है तो इसके लिए सबसे पहले विश्वास और भरोसा कायम करना होगा।”
कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु से 175 किलोमीटर दूर चामराजनगर में कोविड-19 और टीकारण अभियान को लेकर जागरूकता अभियान चलाने वाले इस बात से सहमत हैं कि यहां जबरदस्ती, धमकी और अल्टीमेटम से काम नहीं चलने वाला। श्रीनिवास के अनुसार सभी लोग मिलकर काम कर रहे हैं और यह एक स्वागत योग्य कदम है। वह कहते हैं, “यह सुखद आश्चर्य था कि जिला प्रशासन ने गैर सरकारी संगठनों, वॉलंटियरों, आदिवासी संघों का स्वागत किया और उनकी मदद ली।”
घने जंगलों वाले बीआर हिल्स क्षेत्र में दूरदराज के इलाकों में जागरूकता फैलाना और वहां तक टीके पहुंचना अपने आप में एक चुनौती था।
बीआरहिल्स पहाड़ियां पूर्वी और पश्चिमी घाट दोनों का हिस्सा हैं और चामराजनगर जिले में आती हैं। कई आदिवासी समुदाय यहां पर रहते हैं जिनमें ज्यादातर सोलिगा आदिवासी हैं। ये आदिवासी समुदाय जिले के पांच तालुका यानी ब्लॉकों में रहते हैं। इनमें से अधिकांश इलाके में घने जंगल हैं।
जिला प्रशासन के आंकड़ों के अनुसार चामराजनगर जिले में 23,182 आदिवासी रहते हैं जिनमें से अधिकांश का संबंध सोलिगा समुदाय से है। अन्य आदिवासी समुदायों में कदुकुरुबा और जेनुकुरुबा शामिल हैं।
जिला बुडाकट्टुगिरिजना अभिवृद्धि संघ चामराजनगर में सोलिगा आदिवासी लोगों का समूह है। संघ के सचिव सी मेडगौड़ा ने गांव कनेक्शन को बताया, “लोगों को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक आने के लिए जंगलों के बीच से लंबी दूरी तय करनी पड़ती है और वे ऐसा नहीं करेंगे। कई जगहों पर न तो सड़कें हैं और ना ही आने जाने का कोई साधन।” इसलिए टीकाकरण टीमें गांवों में जा रही हैं।
टीकाकरण जागरूकता पर लगातार बातचीत
मेडगौड़ा कहते हैं, “यहां टीकाकरण को लेकर हिचकिचाहट है खासकर दूरदराज के इलाकों में। लेकिन हम रास्ता निकाल रहे हैं।” गौड़ा ने बेंगलुरु के अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट से सोशल वर्क में पीएचडी की है और समुदाय के जमीनी स्तर के नेता हैं।
40 वर्षीय मदेवीकुंबे गौड़ा बेंगलुरु के पब्लिक हेल्थ रिसर्च सेंटर की फील्ड सुपरवाइजर हैं और बीआरहिल्स में एराकन्नागड्डेपुड्डु में तैनात हैं, जो चामराजनगर से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। वह बताती हैं, “जब हम किसी गांव में पहुंचते हैं तो अपने आसपास लोगों को जमा कर लेते हैं। पुरुष और महिला दोनों को सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। उनकी शंकाओं को दूर किया जाता है। हम उन्हें वायरस से जुड़े चार्ट दिखाते हैं और बताते हैं कि कैसे यह एक से दूसरे में फैलता है।”
कुंबेगौड़ा खुद एक सोलिगा हैं, तो अपने समुदाय के लोगों के साथ उनकी खूब खींचतान भी हुई है। वह रोजाना चार या पांच स्वास्थ्यकर्मियों की एक टीम के साथ कई गांवों का दौरा करती हैं और लोगों को टीका लगवाने के फायदे के बारे में जानकारी देती हैं। आदिवासी कल्याण विभाग की तीन मोबाइल हेल्थ यूनिट दूर-दराज के गांवों तक जाती हैं।
विवेकानंद गिरिजना कल्याण केंद्र, बीआरहिल्स के जनजाति स्वास्थ्य संसाधन केंद्र की निदेशक तान्या शेषाद्री ने गांव कनेक्शन को बताया, “समुदायों को संगठित करने से टीकाकरण अभियान को गति मिली है।”
यह केंद्र चार दशकों से आदिवासी लोगों के लिए उनके साथ काम कर रहा है। इसने करुणा ट्रस्ट भी बनाया जिसने शुरू में सरकारी योजनाओं को लागू करने में मदद की और उन समुदायों के बीच काम किया जिन तक पहुंचना मुश्किल है और जो राजनीतिक उपेक्षा के शिकार रहे हैं। इस ट्रस्ट ने स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया है।
पहाड़ों पर कोविड संकट
कोरोना की पहली लहर में बीआरहिल्स आखिरी ग्रीन जोन था, जो कोरोनावायरस से काफी हद तक अछूता रहा। यहां ज्यादा मामले नहीं थे, खासकर दूरदराज के क्षेत्रों में तो बिल्कुल नहीं। शेषाद्री कहती हैं, “हमें उम्मीद थी कि दूसरी लहर भी पहली लहर की तरह ही होगी। हम कोरोनावायरस से ज्यादा लॉकडाउन के परिणामों को लेकर परेशान थे।”
शेषाद्री आगे कहती हैं, “लेकिन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थबेंगलुरु, कई गैर सरकारी संगठनों और वॉलंटियरों ने मिलकर काम किया और प्रशासन को अपनी सेवाएं देने की पेशकश की। जिस तरह से हमारा स्वागत किया गया, उसकी हमें उम्मीद नहीं थी।”
वह कहती हैं कि एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाया गया।
जिला पंचायत के सहयोग से हनुर तालुका के गांव जीरगेगाड्डे में एक आदिवासी आवासीय विद्यालय में कोविड सेंटर बनाया गया। यहां एक रसोई भी बनाई गई। पास से गांवों से स्वास्थ्यकर्मी और मरीजों की देखभाल करने वाले लोग आए। यहां पर लगभग 30 संक्रमित लोगों को रखा गया। अब उन सबको छुट्टी दे दी गई है।
चामराजनगर जिला पंचायत के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हर्षलभोयर कहते हैं, “एक बार जब हमने उनकी जानी पहचानी जगह पर कोविडकेयर सेंटर बनाए, तो उनकी हिचकिचाहट थोड़ी कम हुई। जगह जानी पहचानी थी और देखभाल करने वाले भी उनके जानने वाले लोग ही थे।” उन्होंने बताया कि कैसे विकेंद्रीकरण समाधान जिले में आदिवासी समुदायों के बीच कारगर साबित हुए।
वह कहते हैं, “आदिवासी नेता आगे आए तो टेस्टिंग में अपने आप सुधार आ गया और आत्मविश्वास भी बढ़ गया।”
भोयर के अनुसार, टीकारण में आई बाधाओं का एक कारण यह भी है कि आदिवासी समुदायों के बहुत से लोग नहीं जानते कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर कैसे जाए, कैसे रजिस्ट्रेशन कराएं, वगैरह।
शेषाद्री कहती हैं कि समुदाय के साथ मिलकर आगे बढ़ना सबसे अच्छा तरीका था।
वह आगे कहती हैं, “हमने समाज कल्याण विभाग से अनुरोध किया कि आदिवासी समुदायों को उन समूहों मेंगिना जिना जाए जिन्हें संक्रमण का खतरा है और प्राथमिकता के आधार पर उनका इलाज भी होना चाहिए।” 7 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 18 वर्ष की आयु तक के सभी लोगों के लिए टीकाकरण खोलने की घोषणा की। इसके बाद टीकाकरण ने रफ्तार पकड़ी।
इस बात को लेकर लगातार प्रयास होते रहे हैं कि कोविड टीकाकरण के बारे में बातचीत होती रहे। शेषाद्री कहती हैं कि बार-बार गांव का दौरा किया जाता, संदेहों को दूर किया जाता है और कभी किसी के साथ जबरदस्ती नहीं की जाती।
शेषाद्री हंसते हुए कहती हैं, “स्वास्थ्यकर्मियों के पहुंचने से पहले व्हाट्सएप पर फैली अफवाहें उन तक पहुंच गईं।” इसीलिए उनके मन में टीका लगने के बाद मरने का डर बैठ गया और पुरुषों के मन में नपुंसक होने की आशंका।
जिला प्रशासन, गैर सरकारी संस्थान और वॉलंटियर सकारात्मक कहानियों पर ध्यान दे रहे हैं। वे डर और चिंता के बजाय टीका लगाने के फायदे के बारे में बात कर रहे हैं।
प्रक्रिया को और आसान बनाने के लिए चामराजनगर में 148 आदिवासी बस्तियों को 14 समूहों में बांट दिया गया। शेषाद्री बताती हैं, “हमने समूह के स्थानीय नेताओ के साथ बैठकें शुरू कर दी है और वहां से उन महिलाओं और पुरुषों की पहचान की जो स्वेच्छा से काम करना चाहते हैं।” उन्होंने यह भी बताया कि कैसे कोई भी निर्णय लेने से पहले बातचीत के लिए एक साथ आगे आना और चर्चा करना सोलिगा लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रथा रही है।
शेषाद्री कहती हैं, “समुदाय हमेशा ऐसे ही काम करता आया है। किसी भी राय को खारिज नहीं किया जाता, किसी भी सवाल को बेकार या मूर्खतापूर्ण नहीं माना जाता। यह जांचा परखा और सफल तरीका है और हम इसी को मानते हैं।”
कोविड-19 और टीकाकरण के बारे में संदेश देने के लिए कहानी सुनाने, गीत,नृत्य और नाटक जैसे पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है इसके लिए सांस्कृतिक मंडलियां बनाई गई हैं।
भोयर कहते हैं, “अगर टीकों की आपूर्ति स्थिर और नियमित बनी रहे तो हम गति पकड़ सकते हैं। कभी कभी जैसे ही टीकाकरण गति पकड़ता है, तो आपूर्ति बंद हो जाती है और संख्या गिर जाती है।”
अब तक जिले के पांच तालुकों में हुए टीकाकरण पर जिला प्रशासन के ताजा आंकड़ों को साझा करते हुए उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया कि जिले में टीके के योग्य 15648 आदिवासियों में से 3158 को टीका लगाया जा चुका है। (इसमें से 18 से 44 की आयु वर्ग के 587 लोग और 45 से ऊपर के 2571 लोग शामिल हैं।)
अनुवाद- संघप्रिया मौर्य