परिवारों का एक जरूरी हिस्सा रहे मवेशी अब घरों से गायब हो रहे, क्या ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए वे लौटेंगे?

भले ही देश में मवेशियों की संख्या और दूध का उत्पादन बढ़ रहा हो, लेकिन दूसरी तरफ भारतीय गांवों में पशुओं की संख्या कम हो रही है जो कभी परिवारों का जरूरी हिस्सा हुआ करते थे। इससे ग्रामीण अर्थव्यस्था तो प्रभावित हो ही रही है, जमीन की उर्वरक क्षमता भी कम हो रही है।
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शाहजहांपुर/ सीतापुर/ बरेली/ बदायूं (उत्तर प्रदेश)। राम प्रसाद पिछले 15 सालों से लक्ष्मणपुर गांव के प्रधान हैं। उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के इसी गांव में जन्मे और पले बढ़े 50 वर्षीय प्रसाद ने लक्ष्मणपुर गांव का कायापलट होते देखा है। कभी गांव में गूंजने वाली गाय-बैलों की घंटियों की आवाजें उन्हें आज भी याद आती हैं।

आम के पेड़ के नीचे बैठकर ग्राम प्रधान पुराने समय को याद करते हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन से कहते हैं, “मेरे बचपन में कथिना नदी के दोनों किनारों पर काफी घास हुआ करती थी। लोग अपने मवेशियों को चराने के लिए वहां लेकर जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है।”

प्रसाद अफसोस जताते हुए कहते हैं, “हमारे गांव में मवेशियों की संख्या घट गई है। 15-20 साल पहले गांव में लगभग एक हजार मवेशी थे, लेकिन अब लगभग 300 ही मवेशी बचे हैं।” उन्हें डर है कि शायद अब ये भी ना बचें।

यह एक विरोधाभास है। एक ओर जहां देश में मवेशियों की आबादी और दूध उत्पादन, दोनों बढ़ रहे हैं, वहीं जिन ग्रामीण परिवारों के पास हमेशा मवेशी होते थे, अब उनके पास मवेशी नहीं हैं।

ग्रामीण परिवारों में मवेशी गायब होने की चिंता सिर्फ खाली पड़ी पशुशालाओं तक सीमित नहीं है। इसका सीधा प्रभाव ग्रामीण कृषि, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और उन ग्रामीणों के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है जो नियमित रूप से घरों की गायों से मिलने वाले दूध, दही और घी का सेवन करते हैं। कोविड-19 महामारी के समय में जिस तरह ग्रामीण भारत में भूख और कुपोषण ने सिर उठाया है, ऐसे में मवेशियों की कमी का असर गहराई से महसूस हो रहा है।

बरेली स्थित भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक महेश चंद्रा ने गांव कनेक्शन को बताया, “यह सोचना सरासर गलत होगा कि गाय केवल दूध देने के कारण उपयोगी है। और भी कई तरीकों से वह किसान की आय को बढ़ाती है और उनका फायदा करती है। इसमें मिट्टी की उर्वरता बनाए रखना भी शामिल है।” वह कहते हैं, “मवेशी रखने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया जा सकता है।”

ग्रामीण परिवारों में घट रहे मवेशी

मवेशी हमेशा से ही ग्रामीण परिवारों का जरूरी हिस्सा रहे हैं। मुंशी प्रेमचंद की दो बैलों की कथा या गोदान जैसी साहित्यिक रचनाओं के वे नायक थे। ग्रामीण भारत को ध्यान में रखकर बनी फिल्मों में अगर मवेशियों को पृष्ठभूमि में नहीं दिखाया जाए या खेत में जुताई करते बैलों के जोड़े नजर ना आएं तो ये फिल्में अधूरी लगेंगी। लगभग हर ग्रामीण परिवार में गायें होती थीं जिनके नाम होते थे, उन्हें खिलाया जाता था और उनकी देखभाल होती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है।

परिवारों में गाय और बैल तेजी से गायब हो रहे हैं और मवेशियों के बाड़े, जो लोगों के घरों की अतिरिक्त जगह होती थीं, खाली पड़े हैं। जहां कभी गाय रंभाती और खाते हुए जुगाली करती थीं, वहां अब सिर्फ सन्नाटा है।

जिस जगह प्रसाद एकांत में पेड़ के नीचे बैठकर अपने बचपन को याद कर रहे थे, वहां से लगभग 85 किलोमीटर दूर गिरीश पाल सिंह यादव चर रहीं अपनी बची खुची पांच गायों को उदासीनता से देख रहे हैं।

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70 वर्षीय किसान और पशुपालक यादव शाहजहांपुर जिले की तिलहर तहसील के किरतपुर बिहारी गांव में रहते हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “लगभग साल पहले, मेरे पास गाय थीं। मेरे पास दो बैल भी थे। लेकिन अब कुछ नहीं हैं।”

पास ही में शाहजहांपुर के गौहापुर गांव में 70 वर्षीय नन्हीं देवी कुंड के किनारे बैठी थी। इस कुंड में कभी उनकी गायों के लिए पानी हुआ करता था। अब उनके पास कोई गाय नहीं है। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “हमारे पास भैंस और बैल थे। उनके कई बछड़े भी थे। लेकिन समय के साथ उनमें से कुछ मरे गए। जब मेरी बेटी की शादी हुई, तो हमने कुछ को बेच दिया।”

ग्रामीण विरोधाभास

विडंबना है कि एक तरफ ग्रामीण घरों में मवेशी तेजी से गायब हो रहे हैं, दूसरी तरफ देश में दूध का उत्पादन अब तक के उच्च स्तर पर है। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के अनुसार भारत में दूध का उत्पादन वर्ष 1991-92 में 5.56 करोड़ टन था जो 2018-19 में बढ़कर 18.77 करोड़ टन हो गया। यह 2019-20 में बढ़कर 19.84 करोड़ टन हो गया। वर्ष 2030 में दूध की मांग 26.65 करोड़ टन तक पहुंचने की उम्मीद है।

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश और पंजाब भारत में प्रमुख दूध उत्पादक राज्य माने जाते हैं।

देश में दूध उत्पादन के साथ-साथ मवेशियों की संख्या भी बढ़ रही है। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार 2012 में देशभर में कुल 19.09 करोड़ पशु थे। 10.87 करोड़ भैंस और दुधारू मवेशियों की संख्या 13.33 करोड़ थी। 2019 की 20वीं पशुधन गणना में मवेशियों की संख्या बढ़कर 19.25 करोड़ हो गई, भैंसों की संख्या 10.99 करोड़ रही दुधारू पशुओं की संख्या भी बढ़कर 13.64 करोड़ पहुंच गई।

लेकिन यह संख्या देश में बड़े पैमाने पर दूध का उत्पादन करने वाली डेयरियों और सहकारी समितियों से आई है। इस संख्या में ग्रामीण घरों में खाली पड़े मवेशियों के बाड़े और उनके व्यापक असर को छिपा दिया गया है। पशु पालन जो कभी ग्रामीण आजीवका का साधन था और ग्रामीणों को पोषण देता था, अब वह घट रहा है।

ग्रामीण परिवार अपने मवेशियों को क्यों छोड़ रहे है?

गिरीशपाल सिंह यादव बताते हैं, “पहले हम बैलों से खेत जोतते थे और उन्हें तैयार करते थे। गोबर से हमारे खेत में खाद डाली जाती थी।” वह दुखी मन से कहते हैं, “जब से खेती में मशीनें इस्तेमाल होने लगीं और ट्रैक्टर आए हैं तब से बैलों की कोई जरूरत नहीं बची।”

उनके अनुसार पारंपरिक तरीकों से की जाने वाली खेती और खाद अनाज को अधिक पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाते थे। गिरीश पाल सिंह कहते हैं, “लेकिन युवा पीढ़ी में बहुत से लोगों को मवेशियों के साथ काम करने और गोबर उठाने में शर्म महसूस होती है।”

गांव कनेक्शन ने उत्तर प्रदेश के चार जिलों – शाहजहांपुर, बरेली, बदायूं और सीतापुर का दौरा किया, ताकि ग्रामीणों से बात करके यह समझा जा सके कि ग्रामीण परिवार अब मवेशी क्यों नहीं पालते? अधिकांश ग्रामीणों ने कहा कि ग्रामीण भारत के तेजी से बदलते सामाजिक ताने बाने के चलते घरों में मवेशियों की संख्या घट रही है।

मशीनीकरण से ट्रैक्टर आए, जिनसे मवेशियों के लिए चारा काफी कम निकलता है। परिवार में हिस्से में मिलने वाली जमीन घट गई हैं, चरागाहों का अतिक्रमण हो गया, परिवार छोटे हो रहे हैं, घर आकार में सिकुड़ रहे हैं और निश्चित रूप से लोग नौकरियों की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

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बरेली जिले के नागरिया नोरामद गांव के धर्मेंद्र सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया, “एक जमाने में हम घर में ढेर सारे मवेशी रखते थे। मैंने खुद बैलों से जुताई की है।” वह आगे कहते हैं, “लेकिन अब हमारे गांव में 15 ट्रैक्टर हैं और मैं भी ट्रैक्टर इस्तेमाल करता हूं। मेरे पास अब कोई बैल नहीं है।”

कभी परिवार की शान और दौलत का पर्याय माने जाने वाले मवेशियों का महत्व कम होता जा रहा है। पचास वर्षीय धर्मेंद्र सिंह ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “अब कोई मवेशी नहीं पालना चाहता।”

घटती चारागाहें

शाहजहांपुर के खेदारथ गांव के जय सिंह मवेशियों के लिए लगातार कम होती चारागाहों की बात कहते हैं। 65 वर्षीय जय सिंह गांव कनेक्शन से कहते हैं, “पहले हम उन्हें खुले मैदानों और जंगलों में चराने ले जा सकते थे। लेकिन अब जगह ही नहीं है।”

बदायूं जिले के गलोठी गांव के बालक राम ने गांव कनेक्शन को बताया, “मवेशी पालने में सबसे बड़ी बाधा चारे की कीमत है।” उन्होंने कहा, “गेहूं की कटाई अब मशीनों से होती है और मवेशियों के लिए चारे के रूप में ज्यादा पराली नहीं बचती।”

बालक राम आगे बताते हैं कि पहले काफी खाली जमीन हुआ करती थी, जहां मवेशियों को चरा सकते थे। लेकिन अब उन सभी में या तो बाड़ लगा दी गई है या उन्हें पट्टा (निजी) भूमि में बदल दिया गया है। वह कहते हैं, “कुछ लोग ही अपने मवेशियों को बांध कर उन्हें स्टोर से खरीदा हुआ महंगा चारा खिला सकते हैं।”

पहले गांवों में हर घर के सामने दुघारू मवेशी बंधे रहते हैं, लेकिन अब खूंटे खाली रहते हैं।

शाहजहांपुर के गौहापुर गांव की कुंती देवी की भी कुछ ऐसी ही चिंता है। 42 वर्षीय कुंती गांव कनेक्शन से कहती हैं, “मवेशी पहले की तरह खुले मैदान में घूम कर घास नहीं चर सकते। हममें से बहुत से लोग इस लायक नहीं हैं कि गायों को घर पर बांधकर रखें और उन्हें बाजार से चारा खरीदकर खिलाएं।”

ग्रामीणों ने बताया कि एक गाय औसतन एक दिन में 10 किलोग्राम चारा खा लेती है। एक क्विंटल (100 किलोग्राम) चारे की कीमत लगभग 500 रुपये है। इस प्रकार, औसतन एक गाय रोजाना 50 रुपये यानी हर महीने 1500 रुपये का चारा खा लेती है।

कुंती देवी ने यह भी बताया कि कैसे इन दिनों खेतों को कटीले तारों से बांध दिया जाता है और मवेशी अक्सर इनसे घायल हो जाते हैं और कई बार तो गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं। वह कहती हैं, “हमें उनके इलाज पर पैसे खर्च करने पड़ते हैं। कभी-कभी चोट इतनी गहरी होती हैं कि मवेशी मर जाते हैं।”

परिवारों का टूटना

ग्रामीण भारत में संयुक्त परिवार का टूटना भी मवेशियों की घटती संख्या का एक कारण है। संयुक्त परिवार में संसाधन, मेहनत और लागत आपस में बंट जाया करते थे। अब हर परिवार को अपने खर्चे खुद उठाने पड़ते हैं।

बदायूं जिले में करनपुर गांव के निवासी राजकुमार सिंह चौहान ने गांव कनेक्शन को बताया, “हम चार भाई हैं। लेकिन अब साथ नहीं रहते। हममें से हरेक के पास चार भैंस हैं और हम उनका भार उठा रहे हैं।”

खेदारथ के एक पशुपालक नाथू लाल ने गांव कनेक्शन को बताया, “मवेशी पालकर आदमी बंध जाता है। इसलिए बहुत से युवा उन्हें पालने से इंकार कर रहे हैं।” 62 वर्षीय नाथू लाल के पास लगभग 17 मवेशी हैं।

बरेली जिले के नागरिया नोरामद गांव के धर्मेंद्र सिंह यादव ने भी इसी तरह की चिंता व्यक्त की। 50 वर्षीय किसान धर्मेंद्र ने बताया, “यदि आप मवेशी रखना चाहते हैं तो कामों की लंबी लिस्ट तैयार हो जाती है, जो आपको करने पड़ते है। मवेशी खरीदना, चारा खरीदना, भूसा खरीदना। चारे की कीमत भी बढ़ गई है। यह कभी न रुकने वाले खर्चे हैं।”

चारागाहों की कमी के कारण भी दुधारू मवेशियों की संख्या ग्रामीण भारत में तेजी से घटी है।

पड़ोसी जिले शाहजहांपुर में ददरौल गांव के 70 वर्षीय करण वर्मा बताते हैं, “मवेशियों की देखभाल करना पूरे 24 घंटे का काम है। आपको उन्हें चारा खिलाना हैं, नहलाना है और उनका गोबर साफ करना है। हर कोई ऐसा नहीं कर सकता।”

मवेशियों की कमी, मिट्टी की उर्वरता में गिरावट

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि गांव में मवेशियों की घटती संख्या चिंता का विषय हो सकती है। वे कहते हैं कि मिट्टी की गुणवत्ता भी महत्वपूर्ण है और गाय, भैंस और बैल ही थे जो मिट्टी को उर्वरता और गुणवत्ता को बनाए रखते थे।

शाहजहांपुर के गन्ना अनुसंधान परिषद के राजीव कुमार पाठक ने गांव कनेक्शन को बताया, “मवेशी समृद्धि का स्रोत हैं। उनका दूध बेचकर आमदनी हो सकती है। वे भूमि के लिए खाद का सतत स्रोत हैं।”

वह कहते है, “जैसे जैसे गांव में मवेशियों की संख्या कम हो रही है, जमीन पर इसका प्रभाव दिखाई देने लगा है।” पाठक ने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर किसान खाद के रूप में गोबर का उपयोग नहीं करते तो यह संभव है कि निकट भविष्य में अधिक से अधिक रसायनों का उपयोग करना होगा, जो उपज को आधा कर देगा। उन्होंने कहा कि अगर मवेशियों को इस प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया तो मिट्टी की गुणवत्ता खराब हो जाएगी।

बदायूं के गलोठी गांव के किसान बालक राम कहते हैं, “किसान तेजी से रासायनिक खादों पर निर्भर हो रहे हैं क्योंकि यह आसानी से मिल जाता है। लेकिन मुफ्त में मिलने वाला गोबर अब उनके लिए उपलब्ध नहीं है।” उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया “इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बच्चों को पोषण देने वाला दूध उनके आहार से गायब हो रहा है, क्योंकि ग्रामीण हमेशा दुकान से दूध नहीं खरीद सकते।”

बरेली जिले के मानपुर गांव के प्रमोद कुमार के गांव में मवेशियों की संख्या अच्छी खासी है जिस कारण उन्हें परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया “हमारे गांव में बहुत सारी गाय, भैंस और बैल हैं। चूंकि बहुत सारे ग्रामीणों ने मवेशी पाल रखे हैं तो महामारी के दौरान बेरोजगारी की समस्या ज्यादा नहीं हुई। मवेशी पालना आर्थिक रूप से ठीक रहा।” उन्होंने बताया, चूंकि उनका गांव रामगंगा नदी के नजदीक है इसलिए मवेशियों के लिए चारे और पानी की किल्लत नहीं है।

कृषि अर्थशास्त्रियों और कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, महामारी के समय में हर चीज रुक गई है और ईंधन की कीमतों में लगभग रोजाना बढ़ोत्तरी हो रही है, ऐसे में मवेशी पालन ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर सकता है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुर्नजीवित करना

हाल ही में 14 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने पशुपालन और डेयरी विभाग की योजनाओं की समीक्षा और उनके पुनर्गठन को मंजूरी दे दी ताकि वित्तीय वर्ष 2021-22 से लेकर अगले पांच साल के दौरान 9,800 करोड़ रुपये के विशेष मवेशी सेक्टर पैकेज के हिस्से के तौर पर उन्हें लागू किया जा सके।

अनुवाद- संघप्रिया मौर्य

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