ऐसे बनी दिहाड़ी मज़दूर से पिथोरा कला की इंटरनेशनल आर्टिस्ट लाडो बाई

भील आदिवासियों की पिथोरा चित्रकला को नई पहचान दिलाने वाली लाडो बाई कभी मज़दूरी किया करती थीं, झाबुआ के छोटे से गाँव से निकलकर पिथोरा चित्रकला से पहचान बनाने वाली लाडो बाई की कहानी दूसरों के लिए मिसाल है।
Bhil tribe

12 साल की उम्र में काम की तलाश में अपने भाई-भाभी के साथ भोपाल आईं लाडो बाई को कहाँ पता था कि एक दिन उनकी पहचान उनकी कला से होगी। लाडो बाई को आज लोग उनकी भील पिथोरा कला की वजह से जानते हैं।

मूल रूप से मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के बाबड़ी गाँव की भील जनजाति चित्रकार लाडोबाई गाँव कनेक्शन से बताती हैं, “12 साल की थी जब पहली बार भोपाल आयी थी, कई सारे काम किए, कभी सब्जियाँ बेची तो कभी जँगल से लकड़ियाँ लेकर आते; एक बार एक जगह इमारत का काम हो रहा था, वहाँ पर मुझे काम मिल गया।”

लाडो आगे कहती हैं, “वहाँ पर मेरे भाई को 20, भाभी को 10 और मुझे पाँच रुपए मजदूरी मिलती थी, वहीं पर मैं पत्थरों पर कुछ न कुछ बनाती रहती थी, एक दिन स्वामीनाथन वहाँ से जा रहे थे, उन्होंने मुझे देखा तो मुझे कागज और रंग दिया, उसी दिन से मेरी शुरुआत हो गई।”

लाडोबाई जिस इमारत की बात कर रही हैं, वो आज भोपाल का मशहूर भारत भवन है और जिन्होंने उन्हें कागज और रंग दिया था, वो मशहूर चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन थे।

लाडो बाई बचपन से अपनी नानी को यह कला बनाते हुए देखती थी, तो थोड़ा बहुत कलाकारी कर लेती थी। अपने गाँव के बारे में लाडो बताती हैं, “पहले गाँव में रंग और ब्रश नहीं होते थे, लकड़ी कूट कर उससे ब्रश बनाते थे और कोयले, लाल मिट्टी, हरी पत्ती, चावल से अलग-अलग रंग बनाते थे। हमारे यहाँ शादी और त्योहार में घरों की दीवार पर कलाकारी की जाती थी और बबूल की गोंद से उन्हें पक्का किया जाता था।”

गाँव से निकलकर जब लाडो को जगदीश स्वामीनाथन का साथ मिला तो उन्हें मानो पंख मिल गए। कुछ समय के बाद लाडो की शादी भील चित्रकार तेरू ताहेड़ से हो गई और उनके चार बेटे भी हैं, लेकिन कुछ ही समय बाद उनके पति की असमय मौत हो गई, जिससे उनके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट गया।

लाडो कहती हैं, “पति के जाने के बाद चार बच्चों की ज़िम्मेदारी और कला को किसी तरह साथ लेकर चलती रही, कई मुश्किलों के बाद आज हम आगे बढ़ गए हैं, चारों बेटों और बहुओं को भी ये कला सिखा दी है, आज वो मेरे साथ जगह-जगह जाते रहते हैं।

लाडो बाई के 26 वर्षीय बेटे विजय ताहेड़ बताते हैं, “हम लोग भी अपनी माँ का पूरा साथ देते हैं, आज तो रंग और ब्रश आसानी से मिल जाते हैं, माँ बताती हैं पहले बहुत दिक्कत होती थी।”

पिछले कई सालों में लाडो ने अपनी कला को देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शित किया, इस दौरान उन्हें कई सारे पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। लाडो कहती हैं, “मैंने तो इंदिरा गाँधी के साथ भी फोटो खिंचवाई है, शुरू में तो घर से अकेले जाने में डर लगता था, लेकिन आज तो मैं अकेले ही हर जगह चली जाती हूँ।”

लाडो बाई उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आयोजित जनजाति भागीदारी उत्सव में भी शामिल हुईं थीं। अपनी चित्रकारी से होने वाली कमाई के बारे में वो कहती हैं, “कभी साल में एक लाख की कमाई हो जाती है तो कभी दो लाख की कमाई हो जाती है। यहाँ (लखनऊ) किसी को इस कला की जानकारी नहीं है, यहाँ बस 6 हज़ार रुपए की बिक्री हुई।”

क्या है पिथोरा चित्रकला

पिथोरा चित्रकला भील जनजाति के सबसे बड़े त्यौहार पिठौरा पर घर की दीवारों पर बनायी जाती है। मध्य प्रदेश के पिथौरा क्षेत्र मे इस कला की शुरुआत मानी जाती है। इस कला के विकास में भील जनजाति का काफी योगदान रहा है। इस कला में पारम्परिक रंगों का प्रयोग किया जाता था।

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