कटरा सआदतगंज (बदायूं)/लखनऊ, उत्तर प्रदेश।
कमरे में कोई दरवाजा नहीं है। बस लकड़ी की एक खिड़की है उसे भी कसकर बंद किया हुआ है। बमुश्किल ही दिन की थोड़ी-बहुत रोशनी अंदर आ पाती होगी। सोहन लाल इस कमरे में कभी नहीं आते। शायद उनके अंतर्मन में चल रहा अपराधबोध उनके कदम रोक लेता है।
क्योंकि यह उनकी बेटी का कमरा था, जो आठ साल पहले बदायूं जिले के कटरा सआदतगंज गाँव में अपने घर से मुश्किल से 600 मीटर दूर एक आम के पेड़ से लटकी मिली थी। उसके साथ उसकी चचेरी बहन को भी रस्सी से लटका दिया था। आरोप है कि उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और फिर उनकी हत्या कर दी गई।
हर सुबह जब सोहन लाल अपनी चार बीघा खेत (1 बीघा = 0।25 हेक्टेयर) के रास्ते में उस पेड़ के पास से होकर गुजरते हैं, तो अपनी आंखें बंद कर लेते हैं। उनके दिल में फिर से एक टीस उठने लगती है।
उनकी 12 साल की बेटी और 14 साल की भतीजी (भाई की बेटी) 28 मई 2014 को अपने दुपट्टे से पेड़ पर लटकी हुई मिलीं थीं। पिछली शाम वो दोनों खुले में शौच करने के लिए घर से निकलीं थीं क्योंकि ‘घर में शौचालय नहीं था’ और फिर वे कभी नहीं लौटीं।
सोहन लाल ने याद करते हुए कहा, “जब मैंने उनके लटकते शवों को देखा तो मैं बेहोश होकर गिर पड़ा।”
बदायूं गैंगरेप और हत्या के मामले में सोहन लाल और उनके छोटे भाई जीवन लाल तीनों आरोपियों के खिलाफ कानूनी मुकदमा लड़ रहे हैं। हालांकि आरोपियों पर यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 के तहत मुकदमा चल रहा है। लेकिन आठ साल पहले शुरू हुई ये लड़ाई आज भी वहीं खड़ी नजर आ रही है।
बच्चों को यौन अपराधों से बचाने के लिए बने इस ‘कड़े’ अधिनियम में त्वरित सुनवाई और कड़ी सजा का प्रावधान है। इसे 2012 के दिल्ली गैंगरेप और हत्या, निर्भया कांड के बाद लागू किया गया था। पॉक्सो एक्ट के तहत अपराध गैर-जमानती है और मुकदमा आदर्श रूप से अपराध किए जाने के एक साल के अंदर खत्म हो जाना चाहिए।
लेकिन सोहन लाल जैसे हजारों परिवारों के लिए हकीकत कुछ और ही है। एक नई सीरीज- ‘दूसरा बलात्कार’- के हिस्से के रूप में गाँव कनेक्शन भूला दिए गए बलात्कार पीड़ितों के घरों में फिर से जाकर उनकी परेशानियों को जानने की कोशिश कर रहा है। 2014 के बदायूं केस की कहानी इस सीरीज में दूसरी है।
14 वर्षीय पीड़िता के पिता जीवन लाल ने गाँव कनेक्शन को बताया, “(बदायूं) कोर्ट हमारे घर से चालीस किलोमीटर से ज्यादा दूर है। वहां जाने के लिए हमें हर बार पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं। हर महीने सुनवाई होती है और फिर हमें एक और तारीख दे दी जाती है – तारीख पे तारीख, “चेहरे पर निराशा के भाव लिए उन्होंने कहा, “और यह पिछले आठ सालों से चल रहा है।”
आरोपी उर्वेश यादव का घर सोहन लाल और जीवन लाल के घर से ज्यादा दूर नहीं है।
20 सितंबर को शाम चार बजे जब गाँव कनेक्शन उससे मिलने पहुंचा तो वह दोस्तों के साथ बरामदे में बैठा था। हवा में शराब की तेज गंध फैली थी।
उसने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैं तीन महीने तक जेल में रहा। लाई डिटेक्टर टेस्ट भी किया गया, जिसमें कुछ नहीं निकला। यादव ने मुस्कुराते हुए कहा, “मुझे घटना के बारे में कुछ नहीं पता। मैं तो उस समय अपने घर में सो रहा था।”
घटना के बाद यादव ने शादी कर ली और वह एक बच्चे का पिता भी है। वह मुस्कुराया और बोला – “कोई टेंशन नहीं हमको”
POCSO अधिनियम के तहत आधिकारिक आंकड़ों पर एक नजर डालने से पता चलता है कि ये आश्वस्त करने के अलावा कुछ भी नहीं है। इस साल जुलाई में केंद्र सरकार ने लोकसभा को बताया था कि वर्ष 2020 में POCSO के तहत 39।6 प्रतिशत की सजा दर के साथ 47,221 मामले दर्ज किए गए थे। उस साल उत्तर प्रदेश (जहां बदायूं स्थित है) 6,898 पंजीकृत मामलों के साथ सूची में सबसे ऊपर रहा। इसके बाद महाराष्ट्र (5,687) और मध्य प्रदेश (5648) का नंबर है।
मामलों में सजा दिए जाने की दर लगभग 40 प्रतिशत है। पॉक्सो अधिनियम के तहत लंबित मुकदमे की संख्या बढ़ती जा रही है। केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने लोकसभा को जानकारी दी कि 2020 के अंत तक 170,000 मामले लंबित थे, जो 2018 (108,129) की तुलना में 57.4 प्रतिशत अधिक हैं।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में प्रैक्टिस कर रही POCSO वकील प्रज्ञा पारिजात ने गाँव कनेक्शन को बताया, “अधिनियम (POCSO) तेजी से मामलों की सुनवाई के उद्देश्य से विशेष अदालतों की स्थापना का प्रावधान करता है। इसमें मामलों को एक साल के भीतर निपटाया जाना है।”
उन्होंने बताया, “लेकिन आम तौर पर लंबी प्रक्रिया, जटिल मामले और संरचनात्मक खामियां मामले को फास्ट-ट्रैक कोर्ट में तेजी से निपटाने को मुश्किल बना रहे हैं।”
27 मई 2014
गाँवों के हजारों परिवारों की तरह लाल के घर में शौचालय नहीं था। उनका गाँव प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 300 किलोमीटर दूर है। लड़कियां शौच के लिए बाहर निकली थीं।
पीड़ितों के एक रिश्तेदार बाबू राम, जो इस मामले के मुख्य प्रत्यक्षदर्शी हैं, ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैंने मदद के लिए चीख-पुकार सुनी थी। जहां से आवाजें आ रहीं थी, जब मैं उस जगह पर पहुंचा तो मैंने पप्पू (मुख्य आरोपी) को तीन अन्य लोगों के साथ देखा। मैंने उससे पूछा कि क्या हो रहा है तो पप्पू ने मुझ पर तमंचा तान दिया… मैं सोहन लाल के घर उन्हें बताने के लिए दौड़ा।”
पीड़ित परिवार के मुताबिक सोहन लाल ने कटरा सादातगंज थाने जाकर मदद की गुहार लगाई। लेकिन उन्हें सुबह वापस आने के लिए कहा गया। तब तक दोनों बच्चियों की मौत हो चुकी थी।
पीड़ित के मामले की पैरवी कर रहे बदायूं के वकील सैयद ऐनुल हुदा नकवी (कौकब) ने कहा कि उस वक्त दोनों पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया था। लेकिन फिर उनका निलंबन रद्द हो गया और वे ड्यूटी पर वापस आ गए।
मामले के तीनों आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 363, 366, 354 और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम की धारा 7/8 के तहत तलब किया गया था। तीनों को तीन महीने की कैद के बाद रिहा कर दिया गया और वे अब जमानत पर बाहर हैं।
बदायूं ट्रायल : आठ साल और अब भी गिनती जारी….
बदायूं मामले में प्रारंभिक जांच और 28 मई, 2014 की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट को गाँव कनेक्शन ने देखा है। इसमें बलात्कार की पुष्टि की गई है। आरोपी पप्पू यादव, अवधेश यादव और उर्वेश यादव को घटना के चार दिनों के भीतर 1 जून 2014 को जेल भेज दिया गया था।
लेकिन बदायूं मामले की जांच कर रही केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने नवंबर 2014 की अपनी रिपोर्ट में सामूहिक बलात्कार से इनकार किया है। मुख्य चश्मदीद गवाह बाबू राम कथित तौर पर लाई डिटेक्टर टेस्ट में फेल हो गए।
इस बीच मुख्य आरोपी पप्पू यादव और पीड़ितों में से एक के बीच करीब 400 कॉल के फोन रिकॉर्ड मिले है। उससे उनके बीच अफेयर की अटकलों को बल मिला। ऐसी भी अफवाहें थीं कि पीड़ितों की मौत ऑनर किलिंग थी।
2 फरवरी 2015 को सीबीआई ने बदायूं अदालत में अपनी क्लोजर रिपोर्ट दायर की थी। जिसे पीड़ितों के मामले की पैरवी करने वाले वकील के विरोध करने और अदालत के सामने अतिरिक्त सबूत पेश करने के बाद उसी साल 28 अक्टूबर को खारिज कर दिया गया।
नकवी ने बताया, “सिर्फ एक आरोपी (पप्पू) को समन किया गया था। लेकिन वह भी जमानत पर बाहर है। बाकी आरोपियों को तलब करने के लिए मैंने सबूत जुटाए हैं। जब सीबीआई ने रेप से इंकार किया तो आरोपियों को छोड़ दिया गया। मामले पर बहस लंबित है।”
उन्होंने कहा “सबूत जल्द से जल्द दर्ज किए जाने चाहिए और इन आरोपियों को दोषी ठहराया जाना चाहिए।”
पॉक्सो कितना कारगर?
POCSO अधिनियम, 2012 बच्चों को यौन उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न और अश्लील साहित्य के अपराधों से बच्चों की सुरक्षा के लिए एक मजबूत कानूनी ढांचा प्रदान करने के लिए अधिनियमित किया गया था। यह कानून निर्दिष्ट विशेष न्यायालयों के माध्यम से अपराधों के त्वरित परीक्षण की मांग करता है।
POCSO अधिनियम के तहत, जो कोई भी “यौन हमला” करेगा, उसे कठोर दंड दिया जाएगा। जो दस साल से लेकर आजीवन कारावास तक हो सकता है और दोषी व्यक्ति को जुर्माना भी भरना होगा।
पॉक्सो एक्ट के तहत अपराध गैर-जमानती अपराध है। लखनऊ की एक वकील रेणु मिश्रा ने गाँव कनेक्शन को समझाया, “लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जमानत नहीं दी जाएगी। इसका मतलब है कि आरोपी को अदालत से जमानत लेनी होगी। “
लखनऊ उच्च न्यायालय के एक वकील रोहित त्रिपाठी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जिस वजह से इस कानून को बनाया गया था यानी तेजी से ट्रायल, इसका ये उद्देश्य तो पूरी तरह से विफल हो गया है।” उन्होंने कहा, ‘हम तेजी से सुनवाई की बात करते हैं लेकिन हम आरोपी को जमानत दे देते हैं। इससे आरोपी टेंशन फ्री हो जाता है। अगर हम जमानत की प्रक्रिया खत्म कर दें तो सुनवाई तेज हो सकती है।
उन्होंने जोर देते हुए कहा, “अगर ऐसा हुआ तो गवाह आजादी और बिना किसी डर के आगे आ सकेंगे। जमानत देना एक बड़ी खामी है जो अधिनियम के उद्देश्य को कमतर कर रही है। इसे खत्म किया जाना चाहिए।”
POCSO अधिनियम के साथ अन्य समस्याएं भी हैं। पॉक्सो की वकील प्रज्ञा पारिजात ने कहा, “कानून के एक विस्तृत अध्ययन [POCSO] से पता चलता है कि यह केवल बच्चे के खिलाफ किए गए यौन हमले के अपराध से निपटने के लिए है, न कि बलात्कार के बाद की गई हत्या से। ऐसे मामलों में जहां बलात्कार के बाद हत्या की गई है, मामले को POCSO अधिनियम और IPC दोनों के अनुसार निपटाया जाता है। “
उत्तर प्रदेश, झारखंड और बिहार में महिलाओं को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर एडवोकेसी एंड लीगल इनिशिएटिव (AALI) की कार्यकारी निदेशक रेणु मिश्रा ने कहा कि POCSO के साथ कागज पर जो वादा किया गया था, वह व्यवहारिक इस्तेमाल में नजर नहीं आ रहा है।
उन्होंने कहा, “पुलिस की ओर से एक कमजोर जांच, डॉक्टरों की मेडिकल रिपोर्ट में देरी और वकीलों और जजों द्वारा देरी सर्वाइवर पर एक तरह का हमला है। पुलिस, डॉक्टर, जज, वकील असंवेदनशील हैं और वे इस व्यवस्था को कमजोर कर रहे हैं और आरोपी छूट जाते हैं।”
उन्होंने कहा, “बचे हुए लोगों के बयान कैमरे में रिकॉर्ड नहीं किए जाते, जो अधिनियम के खिलाफ है। कई बार पूछताछ करने से अक्सर बातों को याद रख पाना मुश्किल होता है। गवाह भी पीछे हट जाते हैं इसलिए सजा की दर कम है। कई बार तो लोग केस वापस ले लेते हैं।”
उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक आरके चतुर्वेदी ने पोक्सो अधिनियम के तहत मामलों से निपटने के दौरान पुलिस अधिकारियों के सामने आने वाले मुद्दों पर प्रकाश डालते हुए गांव कनेक्शन को बताया, “अदालतों में अपने बयानों से पचास से सत्तर प्रतिशत से ज्यादा गवाह पीछे हटते हैं। ऐसे में स्वतंत्र गवाह लाना मुश्किल हो जाता है। जांच अधिकारी भी बदलते रहते हैं। इससे जांच पर भी असर पड़ता है। इसके अलावा पुलिस का रवैया भी मदद नहीं करता है। कई मामले तो दर्ज ही नहीं हो पाते हैं।”
समय की मांग है कि एक समर्पित यूनिट हो जहां ऐसे मामलों से संबंधित सभी काम किए जाएं। चतुर्वेदी ने कहा, “एक ऐसी प्रणाली होनी चाहिए जहां चौबीस घंटे के भीतर मेडिकल रिपोर्ट पेश की जाए, रिपोर्ट होने के बारह घंटे के भीतर इंक्वायरी की जाए और पहले नब्बे दिनों में इन्वेस्टिगेशन पूरी कर ली जाए। ट्रायल एक साल के भीतर पूरा कर लिया जाना चाहिए।”
POCSO अधिनियम को लागू हुए दस साल हो चुके हैं। लेकिन हालिया राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) 2021 के आंकड़ों से पता चलता है कि POCSO अधिनियम में कुल सजा पाने वालों की दर सिर्फ 32 प्रतिशत है।
बदायूं पीड़ितों में से एक की मां ने कहा, “हमारी बेटियों के साथ बलात्कार और हत्या के बाद सरकार ने हमारे घर में शौचालय बनवाया। अगर हमारे पास पहले शौचालय होता तो हमारी बेटियां जिंदा होतीं। आठ साल हो गए, हमने अपनी बेटियों को खो दिया। अब मुझे अपनी पोती के लिए डर लग रहा है,” ये कहते-कहते वह रो पड़ी।