सफ़र मंज़िलों का का नहीं रास्तों का होना चाहिए। मंज़िलें तो क्षणिक होती हैं, लेकिन राहों की यात्राएँ अनंत और अनुभवों से लबरेज़। ये यात्राएँ, हमें व्यापक नज़रियाँ देती हैं और ज़िन्दगी के कई तज़ुर्बों से रूबरू भी करवाती हैं।
ऐसी ही किसी हिमालयी यात्रा में जब आप सुदूर के एक गाँव से गुज़रते हैं, तब वास्तव में आप प्रकृति और इन्सान के एक ऐसे सृजन को देखते हैं जहाँ दोनों एक दूसरे के साथ सामन्जस्य बनाते हैं और परस्पर आपसी सम्मान पर टिके हैं। इसीलिए कहा जा सकता है कि दुनियाभर में जहाँ जितना जटिल भूगोल होता है, वहाँ के लोग उतने ही सरल और विनम्र होते हैं।
व्यास घाटी
मैं उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद के सदूर उत्तर में बसे धारचुला क्षेत्र की यात्रा पर था। यहाँ काली – महाकाली नदी भारत – नेपाल के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करते हुए व्यास घाटी को दोनों देशों में विभाजित करती है। नदी का एक किनारा भारत के उत्तराखंड में और दूसरा नेपाल की तरफ सदूर पश्चिमी प्रदेश में पड़ता है। यह व्यास घाटी दोनों देशों में मध्य और उच्च हिमालयी क्षेत्र में फैली है। इसे यह नाम कालापानी में स्थित महर्षि व्यास ऋषि के आश्रम और गुफा के कारण मिला है।
इस घाटी में बूदी से आगे की चढ़ाई कर जैसे ही लगभग 3400 मीटर ऊँचाई पर बसे छियालेख (इसे फूलों की घाटी भी कहा जाता है) के मैदान में पहुँचते हैं, आबोहवा में गहरा बदलाव महसूस होता है। ऊँचाई के कारण ठण्ड बहुत बढ़ जाती है। देवदार के लम्बे पेड़, मखमली घास और रंग -बिरंगे फूलों से सजे मैदान नज़र आने लगते हैं।
भारत और नेपाल, दोनों ही तरफ की बर्फीली चोटियाँ जैसे आपको ही निहार रही हों। नदी पार, नेपाल का बर्फीला नम्जुं पर्वत तो इतना करीब लगता है जैसे जरा हाथ बढ़ा कर उसे छुआ जा सकता हो। यहाँ नदी भी गॉर्ज बनाते हुए गहराई में चली जाती है, उसके पास ही यंलाधर जलप्रपात हैं। यह पूरा क्षेत्र इतना ख़ूबसूरत है कि इसके साथ कई पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। यहाँ जैसे ही चोंग्फु बर्फीले नाले से कुछ आगे बढ़ते हैं, नीचे नदी के दोनों किनारों पर दो ख़ूबसूरत गाँव नज़र आते हैं। यही से ही ऊपरी व्यास घाटी का प्रवेश द्वार खुलता है।
गर्ब्यांग गाँव
छियालेख से नीचे उतरने पर, नदी के किनारे के साथ भारत में गर्ब्यांग और नदी पार नेपाल का छांगरू गाँव नज़र आने लगता है। पीछे गॉर्ज की तुलना में यहाँ ‘यू’ आकार की घाटी है, जिसका विस्तार बहुत खुला है। हिमालय में नदियाँ अवरोध भी हैं और रास्ते भी। इस लिहाज़ से गर्ब्यांग एक तिराहा है।
एक रास्ता काली – महाकाली के साथ धारचूला से बूदी होते हुए यहाँ ऊपर पहुँचता है, फिर दूसरा भी इसी नदी के साथ आगे तिब्बत – चीन सीमा तक जाता है। तीसरा रास्ता गाँव से दाएँ काली – महाकाली नदी पार कर नेपाल में उसकी सहायक तिंकर नदी के साथ – साथ पहले छांगरु और फिर तिंकर गाँव होते हुए तिब्बत सीमा से लगे तिंकर दर्रे तक जाता है।
भारत की तरफ गाँव के नीचे सर्पिलाकार कच्ची – पक्की रोड भी बन रही है, जिसका उपयोग दोनों तरफ के लोग करते हैं। पहाड़ों में जब भी किसी गाँव के आसपास से कोई रास्ता गुज़रता है, गाँव के कुछ घर रोड किनारे आ जाते हैं, साथ ही उनमें छोटी- मोटी दुकानें खुल जाती हैं। मूल गाँव रास्ते के ऊपर या नीचे थोड़ी दूरी पर ही बसा रहता है।
कुछ ऐसा ही यहाँ भी है। सड़क किनारे 4 – 5 घर, घरों में चाय – पानी की दुकानें, दुकानों के साथ लगा एक यात्री विश्राम टीन शेड है। यहाँ की दुकानें सैलानियों के साथ – साथ यहाँ तैनात एसएसबी, आईटीबीपी और आर्मी के जवानों के कारण भी चलती हैं। यहाँ चाय के साथ छोटे आकार के समोसे और भांग की चट्नी मुख्य रिफ्रेशमेंट है। साथ ही मैगी, दाल – भात, मांस – भात और च्यक्ती भी मिलती है। मैंने इस पूरी घाटी में अनुभव किया कि यहाँ ज़्यादातर दुकानें महिलाएँ ही संभालती हैं।
मूल गर्ब्यांग गाँव भी नदी और सड़क से काफी ऊपर, दो तरफ से पहाड़ों के साथ घिरा है। उसके तीसरी तरफ पहले खुला मैदान है, जिसमें एक सरकारी विश्रामघर निर्माणाधीन है, फिर आगे आईटीबीपी कैंप और थोड़ी दूरी पर छिंदु गाँव है। प्रशासनिक दृष्टि से छिंदु गाँव गर्ब्यांग के साथ ही है।
गाँव के चौथी तरफ पहले चिकनी मिट्टी का ढालू मैदान, बीच में कच्ची सड़क और फिर उफ़ान मारती काली – महाकाली नदी पार नेपाल का बुग्याल हैं। नदी किनारे के ढाल पर सशस्त्र सीमा बल का कैंप है। गाँव के चारों तरफ कुछ दूरी पर अलग अलग मंदिर हैं, जो रक्षक देवताओं के रूप में भूत – प्रेत और प्राकृतिक आपदाओं से गाँव की रक्षा करते हैं।
स्थानीय ‘रं’ समुदाय
गर्ब्यांग नेपाल – तिब्बत सीमा के करीब समुद्रतल से लगभग 3300 मीटर की ऊँचाई पर बसा है। इस गाँव से लगभग 250 से 300 परिवार ताल्लुक रखते हैं मगर ज़्यादातर निचली घाटियों और मैदानी इलाकों में बस गए हैं।
‘रं’ समुदाय के ये लोग आदिवासी जनजाति के अंतर्गत आते हैं। इनके उपनाम (सरनेम) गाँव के आधार पर ही तय होते है। गर्ब्यांग के लोग गर्ब्याल कहलाते हैं, इसी तरह बूदी के लोग बुदियाल, गूंजी के लोग गुंजियाल है। इस उच्च हिमालयी क्षेत्र (भोट प्रदेश) में रहने वाले लोगों को संयुक्त रूप से भोटिया भी कहा जाता है।
इस घाटी के दूसरे गाँवों की ही तरह यहाँ के लोग भी ऋतु प्रवास करते हैं। ये लोग साल बर्फ पिघलने के साथ मार्च – अप्रैल माह में अपने मविशियों के साथ यहाँ आते हैं। फिर अक्तूबर – नवम्बर के आसपास अत्यधिक बर्फ़बारी और ग्लेशियरों (हिमनद) के आने पर निचली घाटियों (भारत में धारचुला और नेपाल में दार्चुला) के अपने शीतकालीन आवासों में लौट जाते हैं। इस प्रक्रिया को कुंचा कहा जाता है।
उल्लेखनीय है कि स्थानीय लोगों के लिए यह सिर्फ एक ऋतु प्रवास ही नहीं बल्कि जीवन का एक अहम् हिस्सा है। यह एक सामाजिक – सांस्कृतिक यात्रा भी है और अपने आसपास के पर्यावरण को समझने की यात्रा भी। इन यात्राओं में माएँ अपने बच्चों को पड़ाव में आने वाले स्थान विशेष के लोकगीत और कथाएँ सुनाती हैं। पेड़ – जंगल, झील – झरने, नदी – पहाड़ की कहानियाँ , यहाँ आने वालों और जीवन के लिए प्रकृति से सामंजस्य और उसका सम्मान करने वालों की कहानियाँ।
यहाँ आने पर स्थानीय रं समुदाय के लोग विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। घर से अशांति और विपदा मिटाने के लिए, वैभव और रिद्धि-सिद्धि तथा उम्र बढ़ाने के लिए नदी किनारे तींग – बारो (नदी का लगान), ती – लुन्गतंग, जंगती – मुंलती आदि पूजा की जाती है। साथ ही गंगादान की रस्म में पंचधातु, सिक्के, चावल, हल्दी, दाल और नमक को नदी में समर्पित किया जाता है। ये सब गाँव के धामी और लामा (पुजारी) की सलाह से किया जाता है।
नदी के दोनों तरफ भारत और नेपाल के ‘रं’ समुदायों में सदियों से गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, व्यापारिक और आर्थिक सम्बन्ध रहे थे और आज भी हैं।
ख़ेती और जड़ी-बूटियाँ
अप्रैल में जब स्थानीय लोग अपने गाँव लौटते हैं तब ख़ेतों में पड़ी बर्फ पिघलकर मिट्टी में नमी पैदा करती है। इस दौरान स्थानीय लोग अपने – अपने ख़ेतों में बुआई- जुताई करते हैं। यहाँ काली – महाकाली नदी किनारे की जमीनें बहुत उर्वरक हैं। मुख्य रूप से यहाँ अनाजों में- पल्ती (कुट्टू), कई तरह के फाँफर (शंग-बै, दंगजुंग-बै आदि) और नपल आदि; सब्ज़ी और मसालों में राजमा, काला और सफ़ेद मटर, लफू (पहाड़ी मूली), पहाड़ी आलू, राई, जुम्बू, काला जीरा की ख़ेती की जाती है। पिछले कुछ साल से गाँव में सेब के बागान भी लगाए जाने की कोशिशें की जा रही हैं।
स्थानीय लोग भारत – नेपाल के जंगलों से यारशागुम्बा (कीड़ाजड़ी), मशरूम, चिरैयता, छिबी, थुनेर, यांक, जंगली लहसुन, गंग्पो व पमा (गोगुल धूप) आदि जड़ी-बूटियाँ भी एकत्र करते हैं।
इस क्षेत्र में मुख्यतः दो ही मौसम होते हैं, एक ठण्ड का और दूसरा बहुत ज़्यादा ठण्ड का। जलवायु में हो रहे बदलावों के कारण, बारिश और बर्फ़बारी का चक्र अनियमित हो चला है। अब जून (गर्मी ) में भी इस क्षेत्र में भारी बर्फ़बारी होती है और औसत तापमान बढ़ने लगा है जिसके कारण वनस्पति, फसल चक्र, उसकी गुणवत्ता और उत्पादन में भी बदलाव आ रहे हैं। इसलिए कुछ लोग अब ख़ेतों में कीटनाशक और विभिन्न रसायनों का उपयोग भी करने लगे हैं। भविष्य में इनके अपने दुष्परिणाम नज़र आएंगे।
‘रं’ समुदाय मवेशियों में बड़े बालों वाली भेड़ – बकरी (मासांग – लासांग, किरचा – सिरचा), गाय, घोड़े और झब्बू (झुपू) आदि पालते हैं। गाय और याक के मिलन से झब्बू पैदा किए जाते हैं जो खेत जुताई, व्यापार और कुंचा के दौरान सामान ढुलाई और बच्चों के लिए सवारी करने के काम आते हैं।
सुरक्षा बलों का सामान लाने और वापस ले जाने के लिए खच्चरों को भी पाला जाता हैं। इस क्षेत्र में पहले बहुत से याक होते थे, मगर अब ना के बराबर ही देखने को मिलते हैं। नदी पार नेपाल के तिंकर गाँव में याक बहुतायत में पाले जाते हैं।
यहाँ लगभग सभी लोग मांसाहारी होते हैं। मांस को सुखाकर कई दिनों तक इस्तेमाल किया जाता है। भेड़ – बकरी की छाल बिछाने में, चर्बी (छे) घी की तरह खाने और हाथ – पैरों पर लगाने में उपयोग की जाती है। लोग मट्ठा, मरज्या (घी व नमक की नमकीन चाय), शंपले-जा (हर्बल चाय), छत-जा (मीठी चाय) और बन-तुलसी (पौ) पीते हैं। साथ ही नशे के लिए स्थानीय शराबें-सथानी, मर्ती, और च्यक्ती तथा अतर (भांग) का सेवन भी करते हैं। ये स्थानीय शराबें धार्मिक पूजा के समय बहुतायत में सामूहिक रूप से इस्तेमाल की जाती हैं।
व्यापार और पर्यटन
हिमालय की इस सुदूर व्यास घाटी में नदी के दोनों तरफ, भारत और नेपाल में लगभग दर्जन भर गाँव बस्तियाँ हैं। इन सभी में गर्ब्यांग सबसे बड़ा और समृद्ध गाँव रहा है। कहते हैं, गाँव इतना बड़ा था कि जब गाँव की कोई नई दुल्हन पानी लेने धारा तक जाती थी तो लौटते समय गलियों में खो जाती थी। यहाँ नक्काशीदार लड़की और पत्थरों से बने बहुमंजिला घर हुआ करते थे जिनमें से कुछ आज भी इसकी समृद्ध विरासत को झलकाते हैं।
सदियों से, भारत और नेपाल के ‘रं’ समुदाय के लोग नदी घाटी के उत्तरी छोर पर स्थित लिपूलेख दर्रे (5400 मी) को पार करके तिब्बत की तकलाकोट मंडी तक व्यापार के लिए जाते रहे हैं।
इसी तरह तिब्बत के व्यापारी भी इस तरफ आते थे। यह व्यापार वस्तु – विनिमय व्यवस्था (बार्टर – सिस्टम) पर आधारित था। इसके तहत पल्ती – फाँफर का आटा, गुड़, मिश्री, नारियल गोला, तम्बाकू, सुर्ती, नसवार आदि देकर उसके बदले पश्मीना, तिब्बती ऊन और बकरी, याक और उसकी पूंछ, सुहागा और मोटा नमक आदि लाया जाता था। उधर से लाए गए सामान को देहरादून, दिल्ली, लखनऊ तक भेजा जाता था।
एक जमाने में यही गर्ब्यांग गाँव तिब्बत और नेपाल के इस उन्नत व्यापार का मुख्य अंतर्राष्ट्रीय केन्द्र हुआ करता था। गाँव में कई बड़े और रईस व्यापारी रहते थे। उनके घरों में साज सज्जा, बर्तन और खाने पीने का काफी विदेशी सामान रहता था। कई व्यापारी विलायती फैशन के कपड़े और टोपियाँ पहना करते थे। तीन देशों की सीमा पर स्थित होने के कारण यहाँ के रीति रिवाज़, परम्पराएँ और संस्कृति भी घुली – मिली ही थी। इसलिए गर्ब्यांग को ‘छोटा विलायत’ और ‘मिनी यूरोप’ आदि नामों से भी जाना जाता था।
आसपास के क्षेत्र का महत्वपूर्ण केन्द्र होने के कारण इसी गाँव में पहला स्कूल, डाकघर, अधिकारियों के लिए डाक बंगला, चेक पोस्ट आदि का निर्माण किया गया। बाद के वर्षों में गुप्तचर विभाग का ऑफिस और विदेशी मुद्रा विनिमय के लिए बैंक भी खोला गया था।
वर्ष 1962 में भारत – चीन युद्ध से पहले यह व्यापार रोक दिया गया था। इस युद्ध का व्यापार प्रथा पर काफी प्रभाव पड़ा। सभी व्यापारियों को तिब्बत तकलाकोट मंडी से अपने व्यवस्थित व्यापार, पैसे और वर्षों की साख को छोड़कर रातों – रात वतन लौटना पड़ा।
स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि उस दौरान तिब्बत के उनके साथियों ने बहुत सहयोग किया था। व्यापार और पर्यटन ख़त्म होने से गांव की रौनक भी धूमिल होने लगी थी। फिर यह व्यापार दोबारा 1991 में अलग ही रूप में शुरू किया गया। सीमा पार के लोग अब भी तिब्बती ही थे मगर शासन चीनियों का था। अब वस्तुएँ पैसों के बदले खरीदी – बेची जाती हैं। फ़िलहाल कोविड महामारी के बाद से यह व्यापार बंद है। नेपाल के लोग फ़िलहाल यह व्यापार तिंकर दर्रे द्वारा जारी रखे हुए हैं।
भारत – नेपाल – तिब्बत (चीन) सीमा पर बसे होने के कारण गर्ब्यांग गाँव सामरिक नज़रिए से भी काफी महत्वपूर्ण है। यहाँ आने के लिए प्रशासन से ‘इनरलाइन परमिट’ बनवाने की ज़रूरत होती हैं। लिपूलेख दर्रा भारत से तिब्बत आने – जाने का एक बेहद पुराना, सुरक्षित और सुगम रास्ता रहा है।
सदियों से, इसके सहारे ही इस क्षेत्र के तमाम बाशिंदे , व्यापार और चराई के लिए या विश्व भर के कई सर्वेयर, गुमनाम जगहों की तलाश और मानचित्र निर्माण के लिए आते जाते रहे हैं। भारत के अनेक यात्री कैलाश – मानसरोवर तीर्थ यात्रा के लिए गए और सुरक्षित लौटे भी हैं। वर्तमान में आदि कैलाश, पार्वती सरोवर, ओम पर्वत के लिए यहाँ पर्यटन विकसित किया जा रहा है जिससे स्थानीय लोगों को भी रोज़गार के अवसर मिल रहे हैं।
धंसता गर्ब्यांग
हिमालय पर्वत अभी भी अपने निर्माण की प्रक्रिया में ही है। ये दुनिया के सबसे नवीनतम पर्वतों में से एक है, इसलिए बेहद संवेदनशील और भंगुर है। गर्ब्यांग और छिंदु के आसपास का क्षेत्र पिछले कई दशकों से धीरे – धीरे ज़मीन में धंस रहा है मगर पिछले कुछ वर्षों में यह धंसाव साफ़ नज़र आने लगा है। घरों में भारी टूटफूट और दरारें होने लगी हैं।
बारिश के समय ये क्षेत्र ज़्यादा तेजी से प्रभावित होता है। बदलती जलवायु और बिगड़ता वर्षाचक्र इसे और भयावह बनाते हैं। औसत तापमान मे वृद्धि के कारण ग्लेशियर भी तेज़ी से पीछे को खिसक रहे हैं, जिससे बर्फीले नालों में पानी का दबाव और मिट्टी का कटाव बढ़ा है।
गाँव के इस तरह जमींदोज़ होने के पीछे दो तरह के मत हैं। एक, इस गाँव के नीचे कोई बड़ा ग्लेशियर है। गर्मी बढ़ने पर समय के साथ – साथ वो धीरे – धीरे पिघल रहा है, जिसके कारण गाँव धंसता जा रहा है। दूसरा मत, वर्षों पूर्व यह गाँव नदी द्वारा एकत्र किए गए गाद के एक बड़े से ढेर पर बसा है।
अब नदी इसके तल को काट रही है, और गाँव भी नीचे धंसता जा रहा है। कुछ स्थानीय लोगों का मानना है कि घाटी में अत्यधिक हलचल और पहाड़ों की ब्लास्टिंग के कारण हमारे देवता नाराज़ हो गए हैं और उन्हीं के श्राप से ऐसा हो रहा है। हालाँकि कारण चाहे जो हों, छोटा विलायत अब ‘सिंकिंग विलेज’ कहलाने लगा है। प्रशासन ने इस गाँव को वर्षों पहले ही असुरक्षित घोषित कर दिया था। लोगों को तराई क्षेत्रों में विस्थापित करने के लिए जमीनें भी आवंटित की गई हैं मगर आज भी ज़्यादातर लोग अपने इन पहाड़ी घरों में ही रहता चाहते हैं।
अंत में कहा जा सकता है कि हिमालय की इन सुदूर और संवेदनशील घाटियों में मानव जीवन आसन नहीं है। हमें सन 1988 में मालपा की त्रासदी को याद रखना चाहिए, जिसमें पहाड़ खिसकने से एक रात में ही लगभग 300 जिंदगियाँ दफ़न हो गई थीं। ऐसी जगह बसर करने के लिए पहाड़ों, नदियों और जंगलों के साथ सामन्जस्य और उनका सम्मान करना बेहद ज़रूरी है। यहाँ प्रकृति के साथ विरोध नहीं बल्कि प्रेम व्यवहार रखना चाहिए। ‘रं’ समुदाय के पूर्वजों ने ऐसा करके ही इस क्षेत्र में अपनी सभ्यता स्थापित की थी।
पड़ोसी देशों के साथ वर्तमान स्थिति को देखते हुए घाटी में सड़क निर्माण और भारी वाहनों का आगमन सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकता है मगर सड़क और अन्य सभी निर्माण काम सही तकनीक और पर्यावरण बिन्दुओं को ज़ेहन में रख कर किए जाने चाहिए। शायद इसमें समय और राशि ज़्यादा ख़र्च हो मगर ख़तरे काफी हद तक कम हो सकेंगे। ऐसा करके कम से कम हिमालय के इस हिस्से और यहाँ की सभ्यता को तो बचाए रखा जा सकता है।