व्यास घाटी में लगभग 3400 मीटर ऊँचाई पर छियालेख है, जिसे फूलों की घाटी भी कहा जाता है। यहाँ से नीचे जब काली-महाकाली नदी को देखते हैं तो उसके दोनों किनारों पर दो खूबसूरत गाँव नज़र आते हैं। नदी पार नेपाल में छांगरू और नदी वार (इस तरफ) भारत में गर्ब्यांग गाँव स्थित है। मध्य और उच्च हिमालय में फैली व्यास घाटी, भारत और नेपाल की एक साझी विरासत का हिस्सा है। छियालेख से आगे ही ऊपरी व्यास घाटी का प्रवेश द्वार खुलता है।
हिमालय में नदियाँ अवरोध भी हैं और रास्ते भी। इस लिहाज़ से गर्ब्यांग एक तिराहा है। एक रास्ता काली – महाकाली के साथ धारचूला से बूदी होते हुए यहाँ ऊपर पहुँचता है, फिर दूसरा भी इसी नदी के साथ आगे तिब्बत – चीन सीमा तक जाता है। तीसरा रास्ता गाँव से दाएँ काली – महाकाली नदी पार कर नेपाल में उसकी सहायक तिंकर खोला (नदी) के साथ – साथ पहले छांगरू और फिर तिंकर गाँव होते हुए तिब्बत सीमा से लगे तिंकर दर्रे तक जाता है। गर्ब्यांग – छांगरू को जोड़ने वाले लकड़ी के सीतापुल से दो गाँवों की यात्रा दो देशों की यात्रा हो जाती है।
चलिए अब हिमालय के सुदूर गाँवों की इस यात्रा श्रृंखला में हम गर्ब्यांग के बाद छांगरू को चलते हैं।
छांगरू गाँव
मैं गरजती – उफनती काली नदी को पुल से पार करते हुए प्रिय कवि नरेश सक्सेना की कविता गुनगुनाने लगा – पुल पार करने से, पुल पार होता है, नदी पार नहीं होती, नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना.. साथ ही ख्याल आया कि धारा के उस पार जाने पर सिर्फ नदी के किनारे ही नहीं, उसका नाम और नागरिकता दोनों ही बदल जाते हैं। इस पार (भारत) की काली नदी उस पार (नेपाल) की महाकाली हो जाती है, और मैं इस सुदूर उच्च हिमालयी क्षेत्र में पुल पर चंद कदम तय करके भारत से नेपाल की जमीन पर पहुँचता हूँ। नदी के किनारे, नाम और देश बदलते हैं, मगर जो बचा रह जाता है, वो है नदी के आर-पार के आपसी रिश्ते और रास्ते। देश दो, मगर एक से लोग, वही नाक – नक्श, आँखें और आँखों में बसे सपने।
श्यिती के पास स्थित इस सीतापुल के एक तरफ भारतीय सशस्त्र सीमा बल (एस एस बी) और दूसरी तरफ नेपाल की आर्म्ड पुलिस फ़ोर्स पहरा देती हैं। ये पुल दोनों देशों की सीमा के बीच स्थित है – नो मेंस लैंड जैसा।
यहाँ का भूगोल समझें तो छांगरू – तिंकर क्षेत्र नेपाल का अंतिम उत्तर – पश्चिमी कोना है। जिसके उत्तर में पश्चिमी तिब्बत और पश्चिम में भारत का उत्तराखंड है। यह क्षेत्र नेपाल के ‘सुदूर पश्चिम प्रदेश’ के अंतर्गत आता है। ज़िला दार्चुला और ज़िला मुख्यालय खलंग पड़ता है। एक तरह से यह गाँव भारत – नेपाल – तिब्बत की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के जोड़ बिंदु यानी ‘त्रि-संधि’ क्षेत्र में बसा है। इस कारण यह क्षेत्र भू-राजनीतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील और तीनों देशों के लिए सामरिक महत्व का है। यहाँ काली – महाकाली नदी उत्तराखंड (पिथौरागढ़) के सुदूर उत्तर में शुरू होकर तराई में टनकपुर – बनबसा तक भारत और नेपाल की लगभग 230 किमी तक अंतरराष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करते हुए बहती है।
मेरे आगे – आगे एक नेपाली व्यक्ति और उसके 4 – 5 खच्चरों ने भी पुल पार किया था। खच्चरों पर चावल के बोरे लदे थे, जो निचली घाटी में कहीं नेपाल से भारत की तरफ आए और फिर यहाँ वापस नेपाल में तिंकर गाँव तक वितरण के लिए जाएंगे। यहाँ यह उल्लेख आवश्यक है कि वर्तमान में इस सुदूर घाटी में बसे नेपाल के इन दोनों गाँवों का संपर्क नेपाल के किसी भी अन्य स्थान से नहीं है। स्थानीय लोग यहाँ से, या तो तिंकर दर्रा होते हुए व्यापार के लिए तिब्बत के तकलाकोट (पुरंग) तक जा सकते हैं, या फिर यही पुल पार करके भारत से होते हुए नेपाल के निचले पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों में दोबारा प्रवेश कर सकते हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि 1970 के आसपास ज़िला मुख्यालय से यहाँ तक लगभग 100 किलोमीटर का एक पैदल मार्ग (हौर्स ट्रैक) बनाया गया था। मगर भारी ग्लेशियरों के नीचे आने, मानसून, भूस्खलन और महाकाली की बाढ़ के कारण वह रास्ता अब उपयोग लायक नहीं रहा है।
देखा जाए तो छांगरू गाँव काली – महाकाली और तिंकर खोला के बीच एक दो-आब का क्षेत्र है। पुल पार करते ही सबसे पहले सुरक्षा बलों की एक छोटी-सी गुमटी आती है, फिर जरा आगे एक स्वागत द्वार है। सीधे हाथ को संगम के तिकोन तक एक पथरीला मैदान है, जो वास्तव में दोनों नदियों के जमा किए हुए अवसाद से बना है। इस मैदान में प्राचीन व्यास ऋषि मंदिर और सीता मंदिर हैं।
स्वागत द्वार से बाएँ दूर तक भी एक खुला घास का बुग्याल है। ये खुबसूरत बुग्याल पीछे काली – महाकाली के साथ – साथ पहाड़ की तलहट्टी तक फैला है। यह रोचक है कि पहाड़ों में रास्ते सिर्फ दाएं – बाएं ही नहीं बल्कि ऊपर – नीचे भी मुड़ते हैं। स्वागत द्वार के ठीक सामने, नीचे – नीचे एक पगडंडी तिंकर खोला के साथ – साथ पहले गागा (नेपाल की एक बॉर्डर आउट पोस्ट) और फिर आगे तिंकर गाँव तक जाती है। गागा में तिंकर खोला और नम्पा पर्वत से आती नम्पा धारा का संगम होता है। दूसरी पगडंडी जरा बाएं मुड़, ऊपर को छांगरू तक पहुंचती है। मैं भी इसी पर आगे बढ़ने लगा।
छियालेख और गर्ब्यांग से तो छांगरू नज़र आता है, मगर ऊँचाई पर बसे होने के कारण यहाँ नदी किनारे से नहीं दिखता। संभवतः बाढ़ आदि से सुरक्षा की दृष्टि से गाँव इतनी ऊँचाई पर बसाया गया होगा। साथ चल रहे बुजुर्ग ने मुझे रास्ता समझाया और फिर आगे हम अपनी – अपनी पगडंडियों पर बढ़ने लगे। बुग्याल पार कर थोड़ा ऊँचाई पर मैं खेतों के बीच पहुँचा। दिखते खेत जैसे थे, चोरस और सपाट मगर उनमे भी घास ही उगी थी। आगे चढ़ाई के साथ – साथ जंगल भी बढ़ता जा रहा था।
जंगल के रास्ते कुछ नोले (पहाड़ के गर्भ से निकलता पानी) भी थे, जो आने जाने वाले यात्रियों के लिए मीठे और स्वच्छ पानी के बेहतरीन प्राकृतिक स्रोत हैं। यह जंगल एक गहरी शांति और अथाह सकुन से भरा था। नम हवा में पेड़ों की खुशबु और ठंडक थी। जबकि इसके विपरीत, यहाँ से नदी पार भारत के पहाड़ अपने जंगलों के बिना नग्न से दिख रहे थे। निर्माणाधीन सड़क के लिए जंगल काट दिए गए हैं और भारी ब्लास्टिंग से टूटी चट्टानें नदी किनारे दूर तक फैली है। जिनके कारण पहाड़ सिर्फ नंगे ही नहीं बल्कि लहूलुहान और घायल से भी प्रतीत होते हैं।
नेपाल का ‘रं’ समुदाय
थोड़ा और चढ़ने पर ऊपर से आती आवाजों के कारण नजदीक ही गाँव होने का एहसास होने लगा। उच्च हिमालय में 11 हज़ार फीट की ऊँचाई पर बसे छांगरू में लगभग 110 परिवार रहते हैं। नदी वार के भारतीय गाँवों की ही तरह यहां भी ‘रं’ समुदाय के लोग रहते हैं। यहाँ ये बोहरा, ऐतवाल और लाला कहलाते हैं। ये भी अन्य उच्च हिमालयी गाँवों की तरह ऋतु प्रवास अर्थात कुंचा करते हैं। कुछ परिवार निचले क्षेत्रों में स्थायी कामकाज और नौकरियों के कारण कभी कभार ही यहाँ आते हैं। हालाँकि अब भारतीय रास्ते से यहाँ आना थोड़ा आसान हो गया है। पहले कोई परिवार अपने मवेशियों के साथ निचले आवास से यहाँ तक 15 दिनों की पैदल यात्रा करके पहुँचता था।
गाँव में सभी घरों के आगे धार्मिक आस्था और सुरक्षा का प्रतीक दारच्यों और गाँव के केन्द्र में एक सामूहिक दारबच्यों लगा था। उनकी ध्वजाएँ हवा में संगीत घोल रही थीं। इनसे प्राप्त प्रसाद (ज़िल्ब) लोग सुरक्षा के लिए हमेशा अपने साथ रखते हैं। ये लोग मुख्यतः भगवान शिव, व्यास ऋषि और कुछ स्थानीय देवी- देवताओं को पूजते हैं। धार्मिक अनुष्ठान के दौरान जानवरों की बलि देने की प्रथा भी है। नदी के दोनों तरफ, पहनावा, भोजन, भाषा आदि और जन्म से मृत्यु तक के अधिकतर रीति रिवाज़ एक सामान ही हैं।
गाँव के बीच पत्थरों से बना एक खुला चौक था। वहीं पर स्थानीय लोगों के साथ दिनभर संवाद होता रहा। यहाँ के भूगोल और वर्तमान स्थितियों पर ढेर-सी बातें हुई। शाम तक हम लोग हिमालय की उत्पत्ति, विभिन्न चट्टानों की संरचनाओं, घाटी में हिमानियों के उतरने और पिघलने की दर, दोनों देशों में नदियों का नामकरण और बंटवारा, बदलता फसल चक्र, तिब्बत – चीन से व्यापार, तकलाकोट मंडी, कैलाश मानसरोवर यात्रा तथा ‘रं’ समुदाय की संस्कृति और भविष्य आदि पर चर्चाए करते रहे।
लिम्पियाधुरा – लिपुलेख – कालापानी अंतरराष्ट्रीय सीमा विवाद को लेकर स्थानीय लोगों में बहुत जिज्ञासा, कुछ – कुछ संशय और थोड़ा आक्रोश भी दिखता रहा। मगर इसके बावजूद, दोनों देशों के ‘रं’ समुदायों के बीच गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, व्यापारिक और आर्थिक सम्बन्ध आज भी कायम हैं। दोनों ही तरफ के समुदायों के बीच सदियों से रोटी – बेटी के सम्बन्ध बनते रहे हैं। यहाँ की बेटियाँ नदी पार भारत में ब्याही जाती हैं, और उधर से इधर भी। यहाँ के कुछ पुरुष घर जवांई के रूप में भारतीय गाँवों में भी रहते हैं। इन रिश्तों और रास्तों ने नदी घाटी की सदियों पुरानी स्थानीय सभ्यता को आज भी जोड़े रखा है।
छांगरू – राखु की लोक कथाएँ
लोक कथाएं किसी समाज के इतिहास को जानने और तब से अब तक के समय परिवर्तन को समझने में सहायक होती हैं। ‘रं’ समाज में भी कथाएं कहने की परम्परा रही है, ये कथाएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यहाँ के इतिहास की झलक देती हैं। स्थानीय भाषा में इन कथाओं को ‘ऋह्’ कहा जाता है। बड़े लोग इन्हें शुरू करने से पहले ‘ऐना ऐना‘ कहते हैं, जिसका अर्थ होता है बहुत समय पहले की बात है। यह कहते हुए जितनी लम्बी साँस ली जाती है, कथा भी उतनी ही पुरानी मानी जाती है। एक कथा जो यहाँ सर्वाधिक प्रचलित है, संक्षिप्त रूप में इस प्रकार है-
बहुत समय पहले छांगरू से एक अन्य गाँव मार्मा का रास्ता हुआ करता था। बीच राह में उपजाऊ खेत और पहाड़ थे। कहते हैं कि वह गाँव इतना नजदीक था कि यदि गर्म स्यिली कूटो (फाफर की रोटी) यहाँ से ले जाई जाती तो वहाँ पहुँचने तक गर्म ही रहती थी। छांगरू की एक बेटी मार्मा में ब्याही गई थी। विधवा होने के बाद एक समय वह अपने इकलौते बेटे के साथ मायके (छांगरू) आई। मायके में नए घर का काम चल रहा था, मगर दीवारें जितनी बनाई जाती वह फिर से ढह जाती थी। एक रोज वह महिला खेतों में काम कर रही थी और उसका बच्चा खेलते – खेलते नए भवन के पास चला गया। किसी पत्थर से उसकी अंगुली कट गई और खून गिरते ही भवन की दीवारें स्वतः ही ऊँची होने लगीं। उसके मामाओं को लगा बच्चा खास है और उन्होंने लालच में आकर भवन निर्माण के लिए उसकी बलि दे दी।
शाम ढले विधवा माँ लौटी तो अपने बच्चे को इधर उधर खोजती रही। अंत में जब उसे पता चला कि उसके ही भाइयों ने इकलौते सहारे को मार दिया है तो वह बहुत दुखी और क्रोधित हुई। मजबूर महिला रोते हुए वापस मार्मा की तरफ चल पड़ी और श्राप दिया कि छांगरू राखु के सभी लोग ख़त्म हो जाएँ, उपजाऊ खेतों में घास कभी ख़त्म ना हो और छांगरू मार्मा रस्ता हमेशा के लिए बंद हो जाए।
अब मार्मा गाँव के लिए यहाँ से कोई रास्ता नहीं है और उस तरफ के खेतों में लम्बी घनी घास के कारण खेती नहीं हो पाती। साथ ही यहाँ स्थित प्राचीन दो मंजिला राखू गुफा में आज के मानव से अधिक बड़े कई इंसानी कंकाल और घरेलु सामान मिलते हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि इन लोगों का अंत उस महिला के श्राप से ही हुआ था। कुछ अन्य का कहना है कि इतिहास में वर्षो पहले कभी कोई चेचक हैजा या कोविड जैसी संक्रमण बीमारी आई होगी। डर के कारण लोग अपना सामान लेकर गाँव से इस गुफा में आश्रय के लिए आए होंगे। अधिक घुटन, ऑक्सीजन की कमी या संक्रमण बीमारी के यहाँ पहुँचने पर इन सभी की भी मौत हो गई। इसी तरह मार्मा के रास्ते का बंद होना किसी भूकंप या भूगर्भीय हलचल के कारण रहा होगा। इस क्षेत्र में ऐसी अनेक लोककथाएँ प्रचलित हैं।
वर्तमान में एक भूस्खलन ने गुफा का द्वार चट्टान से बंद कर दिया है, इसलिए मेरा वहाँ जाना संभव नहीं हो सका। गाँव के लोगों ने और कुछ पूर्व के यात्रियों ने इसका नजदीक से अवलोकन किया है। ये गुफा इस नदी घाटी क्षेत्र के प्राचीन मानव अवशेषों के एक संग्रहालय के रूप में भी देखी जा सकती है।
जीवन और अर्थव्यवस्था
सम्पूर्ण व्यास घाटी में भारत की तरफ कोई स्थायी दूरसंचार (फ़ोन) की सुविधा नहीं है। मगर यह रोचक है कि नेपाल का नेटवर्क नदी के दोनों तरफ आता है। भारत के सीमावर्ती गाँवों के लोग भी आवश्यकता होने पर नेपाली फ़ोन का ही इस्तेमाल करते हैं। इस नेटवर्क का कारण छांगरू में स्थित एक विशाल टावर है, जो दोनों तरफ के लोगों को सुविधा देता है। छांगरू के सामुदायिक केन्द्र में उच्च गुणवत्ता वाला इन्टरनेट भी उपलब्ध है। गाँव के युवा लड़के – लड़कियां यहाँ एक खुले मैदान में अपने अपने फ़ोन देख रहे थे। कुल मिलाकर इस क्षेत्र में आपसी सहयोग से सब हो जाता है। नेपाल के लोग भारतीय सड़कें इस्तेमाल करते हैं और भारतीय लोग नेपाली नेटवर्क।
छांगरू और तिंकर के स्थानीय लोग वर्षों से तिंकर दर्रे द्वारा तिब्बत से व्यापार करते रहे हैं। यहाँ घरों में ही महिलाओं द्वारा कुछ दुकानें चलाई जाती हैं, जिनमें मिलाजुला तिब्बती, भारतीय और नेपाली सामान मिलता है। तिब्बत – चीन से यहाँ मुख्यतः गर्म कपड़े, चरु (तिब्बती मुलायम रजाई), जूते, शराब, सॉफ्ट ड्रिंक और भारत से टॉफी – चॉकलेट, चिप्स, मैगी, क्रीम आदि मिलती हैं। यहाँ आपको कई लोग तिब्बती जैकेट और ट्रैक सूट पहने मिल जाएंगे। वर्तमान में भारत का तिब्बत के साथ व्यापार बंद है इसलिए इस तरफ के लोग भी गर्म कपड़ो की खरीददारी करने छांगरू आते हैं।
कई घरों के मुख्य द्वार पर रंग बिरंगी याक की पूंछ टंगी मिलती हैं। गाँव के आगे तिंकर घाटी के साथ साथ ही ऊँचाई पर बहुत बड़ा समतल मैदान है। इस मैदान में सभी के खेत बंटे हैं, जिनमें अप्रैल से अक्टूबर तक फसल की जाती है। यहाँ की मुख्य फसलें पल्ती (कुट्टू), फाँफर, नपल (अनाज), राजमा, मटर, गोभी, लफू (पहाड़ी मूली), आलू, राई, जुम्बू आदि हैं। मैदान पार अपी – नम्पा पर्वत श्रृंखला में संरक्षित जंगल क्षेत्र हैं। जहाँ बर्फीले पहाड़ों में यारशागुम्बा (कीड़ाजड़ी) और अन्य जड़ी-बूटियाँ एकत्र की जाती हैं। बाज़ार में कीड़ाजड़ी की कीमत 15 लाख रुपये प्रति किलो तक भी होती है। यह औषधि उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था का एक मुख्य आयाम है।
याक, द्रोमु और गाय के क्रॉस मिलन से जोपू व जोमु और तोल्बा व तोल्बिनी पैदा किए जाते हैं, जो खेतों में जुताई और सामान ढुलाई के काम आते हैं। यहाँ घोड़े, खच्चर और भेड़ बकरियां भी पाले जाते हैं। भेड़ बकरियों को सँभालने, शिकार करने और घर की सुरक्षा के लिए लम्बे बालों वाले झबरीले भोटिया कुत्ते भी रखे जाते हैं।
लौटते हुए
कालांतर में लोग खेतों की बुवाई और जानवरों की चराई के लिए आते जाते रहे हैं। सदियों से, कितने ही आक्रान्ता शासक, अंग्रेज अधिकारी, राजतंत्र के राजा और लोकतंत्र के प्रतिनिधि इस क्षेत्र में आए और गए मगर दोनों तरफ के समुदायों के बीच विश्वास और शांति बनी रही हैं।
आज भी इस घाटी में भारत – नेपाल सीमा के दोनों तरफ परस्पर गहरे सम्बन्ध बने हुए हैं। स्थानीय लोग अपने रिश्तेदारों से मिलने, शादी करने, मंदिरों में पूजा करने, जड़ी – बूटी एकत्र करने, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और रोजगार आदि के लिए अंतरराष्ट्रीय सीतापुल को पार करते हैं। ऐसे पुलों और नदियों ने ही हमारी सदियों पुरानी स्थानीय सभ्यताओं को आज भी जोड़े और बचाए रखा है।
देर शाम वापस लौटते हुए सोच रहा था, बहती धारा, धारा पार के पहाड़, पहाड़ों पर बुग्याल, बुग्यालों से ऊपर बसी बसासत, बसासतों के चारों ओर खेत, खेतों के पार फैला जंगल, जंगल से आगे की बर्फीली चोटियां और चोटियों से उतरते हिमनद.. . सब कुछ तो एक सा ही था, इधर भी और उधर भी। यदि यहाँ कुछ समय के लिए देशों की सीमाओं को भुला भी दिया जाए तो नदी के पूर्वी और पश्चिमी किनारों पर कोई भिन्नता नहीं मिलेगी। भोली प्रकृति ने कोई भेद नहीं छोड़ा है। भेद और सीमाएँ तो हम चतुर इंसानों ने बनाई है। यहाँ देशों की सीमाएं लोगों में भेद करती है, और जटिल भूगोल उन्हें एक करता है..