थैलेसीमिया को खून संबंधी ऐसी बीमारी के तौर पर जाना जाता है; जिसकी वजह से शरीर में अपर्याप्त मात्रा में हीमोग्लोबिन बनता है। इसका असर रेड ब्लड सेल्स यानी लाल रक्त कणिकाओं के काम करने पर भी पड़ता है। थैलेसीमिया को कभी ऐसी बीमारी माना जाता था जिसे नियंत्रित करना मुश्किल था। लेकिन अब हालात काफी बदल चुके हैं।
थैलेसीमिया को वर्ष 2016 के दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (आरपीडब्ल्यूडी) के अंतर्गत, मानक विकलांगता माना गया है। मेडिकल रिसर्च की दुनिया में आधुनिकता, बढ़ते जागरूकता अभियानों और सरकारी संस्थाओं, स्वास्थ्यसेवा पेशेवरों और परोपकारी संगठनों के आपसी प्रयासों के साथ भारत अब थैलेसीमिया रोग से मुकाबला करने के मामले में अग्रणी है।
सरकारी नीतियाँ और अन्य प्रयास
भारत सरकार ने विभिन्न प्रयासों के माध्यम से बढ़-चढ़कर इस समस्या का समाधान करने की कोशिश की है। ऐसा ही एक प्रमुख कार्यक्रम है थैलेसीमिया बाल सेवा योजना (टीबीएसवाई), जिसे 2017 में शुरू किया गया था और मई 2023 में इसके तीसरे चरण की शुरुआत की गई। सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के चलते, थैलेसीमिया के उन मरीज़ों को इलाज के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध करायी जाती है; जिन्हें बोन मैरो ट्रांसप्लांट कराने की ज़रूरत होती है।
सुरक्षित तरीके से खून संबंधी समस्याओं की देखभाल की ज़रूरत को समझते हुए नेशनल ट्रांसफ्यूजन काउंसिल (एनबीटीसी) ने सभी राज्यों और इलाकों में रहने वाले थैलेसीमिया मरीज़ों को मुफ्त में खून उपलब्ध कराने के लिए दिशा-निर्देश तय किए हैं। इसके अलावा, सरकार ने स्वैच्छिक रक्तदान को प्रोत्साहन और न्यूक्लिक एसिड टेस्टिंग (एनएटी) जैसी खून के जांच की विश्वस्तरीय पद्धतियां लागू करके ट्रांसफ्यूजन-ट्रांसमिटेड इंफेक्शन (टीटीआई) को रोकने पर भी जोर दिया है।
भारत को दुनिया की थैलेसीमिया राजधानी के तौर पर जाना जाता है। देश में 1.5 लाख से ज़्यादा लोग थैलेसीमिया मेजर (यानी ब्लड ट्रांसफ्यूजन पर निर्भर) से पीड़ित हैं और हर वर्ष इस बीमारी के 10,000 नए मामले सामने आते हैं और वह भी तब जबकि इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है। थैलेसीमिया एक अनुवांशिक रक्त संबंधी बीमारी है, रोग के साथ जीना एक लगातार चलने वाला संघर्ष है, खासतौर पर ऐसे समय में जब पर्याप्त मात्रा में खून की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक चुनौती हो। हालाँकि, भारत सरकार लगातार इस विषय पर काम करने की कोशिश कर रही है और ये कोशिशें जारी है।
वर्ष 2020 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस बीमारी के रोकथाम के बारे में सामान्य लोगों को जानकारी देने के लिए इंडियन रेड क्रॉस सोसाइटी के नेशनल हेड क्वार्टर (आईआरसीएस एनएचक्यू) ब्लड बैंक में थैलेसीमिया स्क्रीनिंग एंड काउंसलिंग सेंटर का उद्घाटन किया। वर्ष 2023 में नीति आयोग के विनोद के. पॉल ने कहा था कि आदिवासी इलाकों में सिकल-सेल बीमारियों की जाँच करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मॉडल की मदद से थैलेसीमिया की जाँच भी की जा सकती है। इससे केंद्र सरकार को थैलेसीमिया का मुकाबला करने के लिए एक राष्ट्रीय मिशन की शुरुआत करने का बल मिला।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षा आयोग (एनसीपीसीआर) द्वारा थैलेसीमिया मरीज़ों को मुफ्त में ब्लड ट्रांसफ्यूज़न थेरेपी उपलब्ध कराने का निर्णय स्वागत योग्य है जिससे मरीज़ों के जीवन को आसान बनाने में काफी हद तक मदद मिल सकती है। शोध के मामले में, आईसीएमआर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यून हेमेटोलॉजी (एनआईआईएच) और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च इन ट्राइबल हेल्थ (एनआईआरटीएच) थैलेसीमिया जैसी हीमोग्लोबिन संबंधी बीमारियों के बारे में शोध कर रहे हैं। वे जमीनी स्तर पर जांच कर रहे हैं और जांच संबंधी तकनीकों में सुधार ला रहे हैं।
इसके अलावा, डॉ. भारती प्रवीण पवार, केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री ने विश्व थैलेसीमिया दिवस के अवसर पर थैलेसीमिया बाल सेवा योजना (टीबीएसवाई) के तीसरे चरण की शुरुआत की। मंत्री ने जागरूकता बढ़ाने, जांच कराने और थैलेसीमिया व सिकल सेल एनीमिया जैसी खून संबंधी बीमारियों के उपचार की सुविधाओं के महत्व पर जोर दिया। इस कार्यक्रम के दौरान थैलेसीमिया बाल सेवा योजना पोर्टल भी लॉन्च किया गया और सिकल सेल संबंधी बीमारियों के मानक उपचार के दिशा-निर्देश भी जारी किए गए। समय से बीमारी का पता लगाने और प्रयास करके थैलेसीमिया से बचाव किया जा सकता है। इस संभावना को देखते हुए सरकार ने इस बीमारी के राष्ट्रीय बोझ को कम करने के लिए जागरूकता बढ़ाने और जांच संबंधी कार्यक्रमों को लागू पर ज़ोर दिया है।
सार्वजनिक जागरूकता की कमी
भारत में खून की आपूर्ति की कमी को पूरा करने के मामले में एक प्रमुख बाधा, स्वैच्छिक रक्तदान के बारे में लोगों के बीच जागरूकता की कमी है। यहाँ तक कि पढ़े-लिखे लोग भी अक्सर रक्तदान को प्रतिक्रियात्मक मानते हैं और मुख्य रूप से निजी संबंधों के लिए ही ऐसा करते हैं। इसके अलावा, रक्तदान को लेकर कई मिथक और गलत धारणाएँ भी भारत में दान करने वाले लोगों को हतोत्साहित करती हैं। इसके अलावा, रक्तदान की प्रक्रिया के बारे में समझ की कमी है और आसपास की जगह पर यह सुविधा उपलब्ध न होने से भी लोग रक्तदान नहीं कर पाते हैं।
इसके अलावा, सरकारी नियमों के बावजूद कई अस्पतालों और ब्लड बैंक में रिप्लेसमेंट डोनेशन की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है जिसकी वजह से पर्याप्त और विविधता युक्त ब्लड बैंक तैयार करने में बाधाएं आती हैं और वह भी खास तौर पर आपातकालीन स्थितियों के लिए। अब सबसे महत्वपूर्ण है जागरूकता का प्रसार करना, ताकि इसे अंतिम पायदान पर मौजूद लोगों तक पहुँचाया जा सके और ग्रामीण इलाकों में भी लागू किया जा सके, जहाँ जानकारी की कमी की वजह से लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ये आदेश और उपाय तभी काम के हैं जब बड़े शहरों से बाहर रहने वाले लोगों को लाभ मिले जहाँ थैलेसीमिया मरीज़ों की बड़ी आबादी को सुरक्षित व मुफ्त खून की कमी की वजह से परेशानी का सामना करना पड़ता है।
आगे की राह
सोशल मीडिया और टेक्नोलॉजी का प्रभावी तरीके से इस्तेमाल करके नए रक्तदाताओं को इस तरफ आने के लिए आकर्षित किया जा सकता है और मौजूदा रक्तदाताओं को नियमित तौर पर रक्तदान करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। कंपनियों, सिविल सोसाइटी संगठनों और अन्य पक्षों के साथ मिलकर ऐसे अभियान चलाए जा सकते हैं जिससे जागरूकता बढ़े और रक्तदान के बारे में गलत धारणाओं का निवारण किया जा सके। शैक्षणिक सामग्री को स्कूल और कॉलेजों के पाठ्यक्रम में शामिल करने से मिथकों को खत्म करने और स्वैच्छिक रक्तदान की संस्कृति को बढ़ावा दिया जा सकता है, ताकि लोग इसे गर्व का विषय और सामाजिक जिम्मेदारी समझें।
असरदार तरीके से थैलेसीमिया या का समाधान करने के लिए खून की जाँच के मानक दिशा-निर्देशों का कड़ाई से पालन करना ज़रूरी होता है। मरीज़ों के हितों का खयाल रखने वाले समूहों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के बीच के आपसी सहयोग से खून की सुरक्षा, ट्रांसमिशन से जुड़े जोखिमों और सामाजिक मिथकों से जुड़ी चिंताओं का समाधान सटीक तरीके से सूचनाओं का प्रसार करके किया जा सकता है। इसके अलावा, भारत की बड़ी आबादी में स्वैच्छिक रक्तदान के लिहाज़ से अपार संभावनाएं हैं जिसे बढ़ावा देने की ज़रूरत है।
जाँच के आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल शुरू करना बेहद ज़रूरी है, लेकिन प्रभावी तरीके से उन्हें लागू करना सबसे महत्वपूर्ण है। स्वास्थ्यसेवा से जुड़े ढांचे में सुधार करना, स्वास्थ्यसेवा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को प्रशिक्षित करना और नई टैक्नोलॉजी में निवेश करना, इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है। थैलेसीमिया पर प्रभावी तरीके से रोक लगाने के लिए, खून की जाँच के दिशा-निर्देशों को कड़ाई से लागू करना और मानक प्रोटोकॉल ज़रूरी हैं।
मरीज़ों की देखभाल करने वाले थैलेसीमिया पेशेंट्स एडवोकेसी ग्रुप (टीपीएजी) जैसे समूहों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के बीच आपसी सहयोग से खून की सुरक्षा, ट्रांसमिशन से जुड़े जोखिमों और सामाजिक मिथकों को खत्म करने में मदद मिल सकती है। भारत की बड़ी आबादी को देखते हुए स्वैच्छिक रक्तदान को प्रोत्साहित करने में अपार सभावनाएँ हैं।
थैलेसीमिया के खिलाफ एकजुट होकर हम अपने देश की वास्तविक संभावनाओं के बारे में जान सकते हैं और ऐसा भविष्य तैयार कर सकते हैं जो बचाव किए जा सकने वाली बीमारियों से मुक्त हों। सरकार, निजी क्षेत्र और नागरिकों के बीच के समर्पण और सहयोग के माध्यम से हम सेहतमंद और मज़बूत भारत का निर्माण कर सकते हैं जिससे उज्ज्वल भविष्य का रास्ता तैयार हो सकता है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिहाज से, थैलेसीमिया के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता का प्रसार करने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी बेहद ज़रूरी है। दूरगामी सफलता सुनिश्चित करने के लिए, जागरूकता अभियानों की गति बनाए रखना और भारत की बड़ी युवा आबादी को प्रोत्साहित करना ज़रूरी है, ताकि वे नियमित स्वैच्छिक रक्तदाता बन सकें।
(डॉ. किरीट पी सोलंकी लोकसभा के सांसद हैं)