लखनऊ। झुग्गी-झोपड़ी में तीन साल पहले तिरपाल के नीचे शुरू हुई इस ‘बदलाव पाठशाला’ ने अब तक कई छात्र-छात्राओं की जिंदगी बदल दी है। कभी बाल मजदूरी करने, कूड़ा-करकट बीनने और भीख मांगने वाले बच्चों के हाथों में आज कॉपी और कलम है। आज वे सपने देख रहे हैं, अपने हौसलों को बुंलद कर रहे हैं।
इस पाठशाला में पांचवी कक्षा में पढ़ रही सानिया (11 वर्ष) ने जन्म भले ही शिक्षा से वंचित परिवार में लिया हो लेकिन वह भी दूसरे बच्चों की तरह पढ़ना चाहती है, अपने सपनों को पूरा करना चाहती है। उसने उत्साह और आत्मविश्वास के साथ कहा, “मैं डॉक्टर बनना चाहती हूं जिससे बीमार लोगों का इलाज कर सकूं।” सानिया की तरह इस पाठशाला में पढ़ने वाले सैकड़ों बच्चों के सपने कुछ ऐसे ही हैं। आज ये बच्चे अपने हौसलों को उड़ान दे रहे हैं।
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उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की ये ‘बदलाव पाठशाला’ बेहद खास है। यहाँ पढ़ाने वाले शिक्षक कोई मानदेय नहीं लेते। ये सिर्फ विषय ही नहीं पढ़ाते बल्कि विभिन्न तरह की रोचक गतिविधियाँ भी कराते हैं। यहाँ पढ़ रहे बच्चों को कबाड़ से जुगाड़, गुड टच-बैड टच, जूडो-कराटे, संविधान की बेसिक जानकारी, म्यूजिक, पेंटिंग, डांस जैसी कई चीजें सिखाई जाती हैं। सोमवार से गुरुवार तक इन्हें विषय पढ़ाये जाते शुक्रवार और शनिवार को तमाम तरह की गतिविधियां कराई जाती हैं।
यहाँ पढ़ रहे कई बच्चे जो कल तक या तो बाल मजदूरी करते थे या फिर कूड़ा बीनते थे, कई घरों में छोटे बच्चों की देखरेख के लिए ये बच्चे रहते थे तो कई भीख भी मांगते थे। लेकिन आज ये सब कुछ छोड़कर पढ़ाई कर रहे हैं। अपने भविष्य की नींव मजबूत कर रहे हैं, बदलाव की एक नई कहानी गढ़ रहे हैं।
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सानिया झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली एक छात्रा है जिसके माता-पिता फेरी लगाकर परिवार का खर्चा चलाते हैं। आज से तीन साल पहले तक वह अपने छोटे भाई-बहनों की देखरेख करती थी जिस कारण उसने पढ़ाई छोड़ दी थी। लेकिन बदलाव पाठशाला खुलने के बाद उसमें उम्मीद की एक किरण जागी। आज उसकी गिनती पाठशाला के सबसे होशियार बच्चों में होती है। इस साल उसका नवोदय का फार्म भी भरा गया है जिसकी वह तैयारी कर रही है। जिससे उसकी आगे की पढ़ाई पैसों के आभाव में बाधित न हो सके।
क्योंकि ये बच्चे बेहद गरीब परिवारों के हैं। इनके माता-पिता दिहाड़ी मजदूरी करते हैं या फिर फेरी लगाते हैं। इनमे से कई परिवार पहले कूड़ा-कचरा बीनते थे तो कई भीख मांगकर परिवार का भरण-पोषण करते थे। लेकिन एक गैर सरकारी संस्था ‘बदलाव’ की मदद से अब ये परिवार भीख मांगने का काम छोड़कर कुछ न कुछ रोजगार कर रहे हैं। अब ये परिवार न तो अपने बच्चों को मजदूरी पर ले जाते और न ही घर की जिम्मेदारी सम्भालने का बोझ डालते। ये बच्चे अब सरकारी विद्यालय में दाखिला ले चुके हैं। जहाँ ये दिन में पढ़ाई करते और शाम को बदलाव पाठशाला में पढ़ते।
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‘बदलाव पाठशाला’ उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर दूर दुबग्गा के बसंतकुंज कालोनी सेक्टर-पी में चलती है। ये लखनऊ की एक झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्ती है, जिसे सरकार ने आवास देकर यहां बसाया है।
लगभग पांच वर्षों से लखनऊ में काम कर रही एक गैर सरकारी संस्था ‘बदलाव’ जो खासकर राजधानी के भिखारियों के पुनर्वास पर काम करती है। ये संस्था अबतक 100 से ज्यादा भिखारियों को भीख माँगना छोड़कर रोजगार से जोड़ चुकी है। जब इस संस्था की नजर इस बस्ती पर पड़ी तो गांधी जयंती के अवसर पर वर्ष 2016 को यहां ‘बदलाव पाठशाला’ की नींव रखी गयी। जिसमें आज पूरी बस्ती के 200 से ज्यादा बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं और अपने भविष्य की तकदीर गढ़ रहे हैं।
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इस पाठशाला में पढ़ने वाली रुही (11 वर्ष) की उम्र भले ही कम हो लेकिन वो इसी उम्र में कुछ साल पहले तक अपने घर के काम करती थी और उसके मम्मी-पापा मजदूरी करने जाते थे लेकिन आज वो खुश है क्योंकि अब वो पढ़ाई कर रही है। उसने खुश होकर बताया, “जबसे मैं स्कूल पढ़ने आ रही हूं मुझे बहुत अच्छा लगता है। पहले पूरे दिन घर पर रहती थी, बर्तन मांजती, कपड़े साफ़ करती और खेलती रहती। ये मैम जी हमें घर से पढ़ने के लिए लेकर आयीं हैं।”
रुही जिस टीचर का जिक्र कर रही है वो गुलशन बानो हैं जो जबसे पाठशाला खुली है तबसे पढ़ा रही हैं। गुलशन बानो की तरह यहाँ 6 शिक्षक पढ़ाती हैं। डॉ शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय से मास्टर ऑफ़ सोशल वर्क की पढ़ाई कर रही हैं वो भी यहां बच्चों को पढ़ाती है। ये स्टूडेंट अपनी पढ़ाई करने के बाद दोपहर तीन बजे से शाम 6 बजे तक यहाँ पढ़ाते हैं।
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गुलशन बानो ने बताया, “हम भी इसी गरीबी में पले-बढ़े हैं। गरीबी का दर्द क्या होता है ये मैंने झेला है। इन बच्चों को पढ़ाकर मुझे आत्मसंतुष्टि मिलती है। अगर इन बच्चों का भविष्य बन गया तो ये मेरे लिए सबसे खुशी की बात होगी।” गुलशन बानो रोज सुबह इन बच्चों को लेकर बस्ती से दो किलोमीटर दूर प्राथमिक विद्यालय पीरनगर में छोड़ने जाती हैं और शाम को लेने। क्योंकि बीच में सड़क पार करके जाने की वजह से कई बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं।
बदलाव संस्था के संस्थापक शरद पटेल ने बताया, “ये राजधानी का अल्पसुविधा प्राप्त क्षेत्र है। यहां पढ़ रहे 50 प्रतिशत अल्पसंख्यक और 50 प्रतिशत दलित बच्चे हैं। यहाँ रहने वाले लोग आज भी यही सोचते हैं कि बच्चों को पढ़ाने से कोई फायदा नहीं क्योंकि उनकी नौकरी नहीं लगेगी। इनकी काउंसलिंग करने में बहुत समय लगा तब कहीं जाकर आज ये जिम्मेदारी पूर्वक अपने बच्चों को रोजाना यहाँ पढ़ने भेजते हैं।”
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उन्होंने आगे कहा, “इस पाठशाला को चलाने के लिए हमारे पास कोई फंड नहीं है इसलिए इसे समुदाय और वालेंटियर की मदद से चला रहे हैं। मुझे इस बात की बेहद खुशी है कि यहाँ पढ़ रहे जो बच्चे पहले बोलने में झिझकते थे आज वो यहाँ चल रही विभिन्न गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इस वर्ष पांचवीं कक्षा में पढ़ रहे सभी बच्चों का नवोदय विद्यालय में होने वाले एडमिशन का फार्म भरा गया और इस टेस्ट के लिए उनकी तैयारी करवाई जा रही है।”
यहाँ पढ़ा रहे एक वालेंटियर परवेज अहमद अपने बीते दिनों को याद करते हुए बताते हैं, “जब मैं आठ साल का था तब मेरे पिता का देहांत हो गया था। मेरी माँ ने किस आर्थिक तंगी में मुझे यहाँ तक पढ़ाया ये मैंने महसूस किया है। पैसों की तंगी पढ़ाई में कितनी बाधा बनती है इस बात का मुझे एहसास है।” उन्होंने कहा, “हम इन बच्चों की पैसों से तो मदद नहीं कर सकते लेकिन इन्हें नि:शुल्क पढ़ा जरूर सकते हैं। कॉलेज से दो बजे छुट्टी के बाद दोपहर 3 बजे से रोजाना शाम 6 बजे तक हमलोग यहाँ पढ़ाने आ जाते हैं। यहाँ बच्चों को खेल-खेल में रोचक तरीके से पढ़ाया जाता है जिससे उनका रोज पढ़ने आने का मन करे।” परवेज अहमद की तरह यहाँ शिवम वर्मा, अमित रावत, आकांक्षा मिश्रा और अभिमन्यु यहाँ वालेंटियर पढ़ाते हैं।
शरद यहाँ पढ़ा रहे शिक्षकों और समुदाय के सहयोग की तारीफ़ करते नहीं थकते। उन्होंने कहा, “इनके सहयोग के बिना यह पाठशाला चलाना मेरे लिए सम्भव ही नहीं था। आज हमारे पास सीमित संसाधन भले ही हैं पर बच्चों की पढ़ाई में कोई कमी नहीं है। जितना सम्भव हो रहा है इन्हें रोचक तरीके से पढ़ाया जा रहा है।”
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