उत्तराखंड: पलायन की समस्या से निपटने के लिए इस व्यक्ति ने दिखाई राह

बीस साल तक मुंबई जैसे शहर में काम करने के बाद कोरोनाकाल में अपने गाँव वापस लौटकर अपना व्यवसाय शुरू करके दूसरे युवाओं को भी रोजगार की राह दिखायी है।
reverse migration

टिहरी (उत्तराखंड)। रमेश नेगी (42) की लगभग आधी ज़िंदगी मुंबई में बीती है। 20 साल तक मुंबई में रहने के बाद लॉकडाउन ने उन्हें अपने गाँव लौटने के लिए मजबूर कर दिया। अपना सारा कामकाज समेट कर घर लौटे रमेश अब वापस मुंबई नहीं जाना चाहते हैं।

उत्तराखंड के टिहरी ज़िले के नागिनी गाँव निवासी रमेश नेगी बताते है कि उन्होंने आधी ज़िंदगी (20 साल) मुंबई जैसे बड़े शहर में तरह तरह के काम करके गुज़ारी है। पिछले कुछ साल में मुंबई में उनका कामकाज जम गया था। वे पर्ल अकादमी जैसे बड़े संस्थान में कैंटीन और होटल जैसा खुद का व्यवसाय करते थे। रमेश नेगी के पास 70 कर्मचारी काम कर रहे थे, लेकिन कोरोनाकाल आते ही उनके ऊपर मानो पहाड़ सा टूट पड़ा हो, सारा काम-धंधा चौपट हो गया, कर्मचारियों को वेतन देना भी मुश्किल हो गया था जैसे-तैसे सभी का वेतन देकर वे लॉकडाउन में परिवार सहित अपने गाँव लौट आए।

रमेश नेगी ने गाँव लौटकर अपना ख़ुद का छोटा सा कारोबार शुरु कर लिया है। वे विभिन्न पहाड़ी उत्पाद जैसे तिमला, सेमल, नींबू, आम से बनाए हुए अचार और चटनी, डब्बा बंद पैकजों में बेचते हैं। मुंबई से लौटने के बाद रमेश नेगी को बाद एक विचार आया। उन्होंने गाँव के ही कुछ युवाओं को अपने साथ जोड़ा। इन युवाओ को गाँव में प्राकृतिक रूप में मौजूद पहाड़ी फलों को तोड़ने की ज़िम्मेदारी थी। बदले में रमेश ने उनका मेहनताना बांध दिया था। रमेश इन फलों का अचार और चटनी बनाते थे। रमेश ने थोड़ी दौड़-धूप की तो बेचने के लिए बाज़ार भी मिल गया। पास ही के पहाड़ी शहर चम्बा में कई दुकानों और होटलों में रमेश नेगी के बनाए चटनी और अचार की मांग ज़ोर पकड़ने लगी। कारोबार जम गया है और अब रमेश गाँव में ही रहकर काम करना चाहते हैं।

रमेश नेगी ने गाँव कनेक्शन की टीम को बताया, “गाँव लौटने के बाद मैं बिलकुल हिम्मत हार चुका था, आर्थिक तंगी भी ऊपर से सर पर थी लेकिन मेरे परिवारजनों और खासकर बड़ी बेटी सिमरन ने मेरा हौंसला बढ़ाया और गाँव में ही रोज़गार के लिए कई आईडियाज़ दिए जिनमे मुझे अपने गाँव में मौजूद विभिन्न पहाड़ी फलों से चटनी और अचार बनाना सबसे उपयुक्त लगा। इसमें ज़्यादा पैसों के निवेश की भी ज़रूरत नहीं थी।”

पलायन उत्तराखंड की इतनी बड़ी समस्या है कि राज्य में बड़ी संख्या में ऐसे गाँव हैं जिन्हें ‘भूतहा गाँव’ कहा जाता है। यानी इन गाँवों में अब कोई नहीं रहता। हर नई सरकार पलायन रोकने और रिवर्स माइग्रेशन को प्रोत्साहित करने की योजनाएं बनाती हैं मगर राज्य बनने के 20 साल बाद भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। लेकिन करोनकाल में हुए लॉकडाउन के दौरान लौटे लाखों प्रवासियों से सरकार को अब एक उम्मीद की किरण दिखाई दी है, उत्तराखंड ग्राम्य एवं पलायन आयोग की सितम्बर में प्रकाशित रिपोर्ट आंकड़ों के अनुसार राज्य में 3,57,536 प्रवासी लॉकडाउन के दौरान उत्तराखंड के अपने गाँवों को वापस लौटे हैं, जिसमे रमेश नेगी के गृह जिले टिहरी गढ़वाल के 40,420 प्रवासी नागरिक वापस लौटे।

रमेश नेगी का कहना है कि उनकी तरह तमाम ऐसे प्रवासियों को सरकारी सहायता मिलनी चाहिए जो यहीं रहकर अपना रोज़गार करना चाहते है। “मैंने भी अपने जन प्रतिनिधियों से अपने रोज़गार को बढ़ाने के लिए सरकारी सहायता की मांग की है, जिससे मैं अपना कारोबार आसपास के बड़े मार्किट में फैला सकूं। इससे पहले कि मेरे जैसे तमाम प्रवासी दोबारा वापस शहरों की ओर रुख मोड़ें, जन प्रतिनिधियों को इसके बारे में विचार करना चाहिए, “रमेश नेगी ने कहा।

अभी रमेश का कारोबार गाँव के पास के छोटे से पहाड़ी शहर चम्बा तक ही सीमित है। लेकिन इससे वो बमुश्किल अपने परिवार का पेट पाल पाते हैं। गाँव कनेक्शन की टीम जब नागिनी गाँव पहुंची, तो नेगी एनएच-94 पर मौजूद जड़धार गाँव के बाहर ज़ीरो पॉइंट पर अचार और चटनी बेचते मिले। जब हमने उनसे उनकी आमदनी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि ज़्यादा तो नहीं लेकिन घर-परिवार चलाने और लागत निकालने योग्य महीने का आठ से दस हज़ार रुपए तक कमा लेते हैं। नेगी बताते हैं कि स्थानीय ग्रामीणों सहित तमाम लोगो को तिमला सहित सेमल जैसे पहाड़ी उत्पादों का अचार और चटनी खूब लुभा रही है, लोग एकबार खाने के बाद दोबारा लेने के लिए आतुर दिखे है और इस तरह के प्रयास की भी खूब सराहना करते हैं। “भविष्य में अन्य पहाड़ी फलों पर भी मेरी नज़र है जिसका कुछ अच्छा उत्पादन अचार और चटनी के रूप में हो सकता है। मैंने अपने ब्रांड का नाम ‘पहाड़ी स्वाद’ रखा है जिसका मैं लाइसेंस भी ले चुका हूं, “रमेश नेगी ने बताया।

रमेश का कामकाज तो जमने लगा है लेकिन आठवीं कक्षा में पढ़ रही उनकी बड़ी बेटी सिमरन अपनी पढ़ाई को लेकर चिंतित ज़रूर है। सिमरन ने बताया कि वो पहले मुंबई के बड़े कान्वेंट, सैंट थॉमस स्कूल में पढ़ा करती थी लेकिन लॉकडाउन में गाँव वापस आने के बाद अब गाँव के पास में ही राजकीय इंटर कॉलेज जड़धार गाँव में पढ़ती है। “यहां की पढ़ाई मुंबई जैसी नहीं है, सबसे ज़्यादा मैं मिस अपने स्कूल टीचर्स और दोस्तों को करती हूं और चाहती हूं कि हम जल्द वापस मुंबई लौट सके,” सिमरन ने कहा।

सरकार अगर वापस लौटकर आए इन प्रवासियों की मदद करती है और सुदूर पर्वतीय इलाकों में शिक्षा पर ध्यान देती है तो उस समस्या का निदान आसानी से हो सकता है जिसके लिए पिछले 20 साल से प्रयास किए जा रहे हैं।  

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