स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क
कानपुर। विजयाराम चन्द्रन पिछले 30 वर्षों से मजदूर के बच्चों को शिक्षित कर रही हैं। वे ‘अपना स्कूल’ नाम से स्कूल चला रही हैं, जिसकी अब 25 से ज्यादा शाखाएं हैं। विजयाराम उन बच्चों को पढ़ा रही हैं जो समाज की मुख्यधारा से दूर हैं। आइये जानते हैं कैसे विजयाराम अपनी इस सोच को आगे बढ़ा रही हैं।
विजयाराम अब तक करीब 20 हजार बच्चों को शिक्षित कर चुकी हैं। कानपुर रेलवे स्टेशन से 16 किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में आईआईटी हाउसिंग सोसाइटी के गोपालपुर मोहल्ले में रहने वाली विजयाराम चन्द्रन (72 वर्ष) बताती हैं, ”मजदूरी कर रहे श्रमिकों के बच्चे पढ़ाई नहीं कर पाते थे क्योंकि मजदूरी करने के लिए उनके मां-बाप को एक स्थान से दूसरे स्थान पलायन करना पड़ता था, इसलिए मैंने उन स्थानों पर ही ‘अपना स्कूल’ नाम से विद्यालय खोल दिए जहां ये मजदूरी करते थे।”
विजयाराम चन्द्रन मूलरूप से तमिलनाडु की रहने वाली हैं और देश के आठवें राष्ट्रपति आर वेंकटरमण की बेटी हैं, इनके पति वर्ष 1968 में कानपुर आईआईटी में प्रोफ़ेसर हुए। तब से ये कानपुर में आकर बस गईं।
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मजदूरों को बहुत समझाने पर वे अपने बच्चों को ‘अपना स्कूल’ में भेजने के लिए तैयार हुए, अब तक 20 हजार बच्चे इन अपना स्कूल में पढ़ चुके हैं। कई बच्चों ने इसी स्कूल में पढ़कर आगे की पढ़ाई की और आज इन्हीं स्कूल में पढ़ा रहे हैं।
विजयाराम चन्द्रन
कानपुर में 25 ‘अपना स्कूल’ में 25-30 भट्टों के लगभग हजार बच्चे प्रतिदिन पढ़ने आते हैं। कानपुर में 280 ईंट-भट्टे हैं। एक ईंट-भट्टे पर 80-100 परिवार काम करते हैं। ईंट-भट्टों पर रहने वाले परिवार ज्यादातर बिहार के मुसहर समुदाय से हैं।
आज से 30 साल पहले ये बच्चे शिक्षा से कोसों दूर थे, विजयाराम चन्द्रन के मन को ये बात खटकती थी कि आखिर इन बच्चों का क्या कसूर है, जिसकी वजह से ये शिक्षा से वंचित हैं। दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा लगाने वाले बच्चों को इन्होंने अपने घर से पढ़ाना शुरू किया और वर्ष 1986 में ‘अपना स्कूल’ की नींव रखी। अपना स्कूल के शुरुआती दौर में विजयाराम चन्द्रन कई किलोमीटर पैदल चलकर कड़ी दोपहरी में काम कर रहे मजदूरों के पास जाकर उनके बच्चों को स्कूल भेजने की गुजारिश करती थी। आज इन्होंने उम्र के 72 साल भले ही पूरे कर लिए हों लेकिन आज भी ये सिलाई केंद्र खोलकर कई लड़कियों और लड़कों को कई तरह की रोजगारपरक शिक्षा दे रही हैं।
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मूलरूप से झारखंड रांची के रहने वाले मुकेश कुमार (21 वर्ष) बचपन से ही कानपुर के भट्टों पर काम करते थे, जब अपना स्कूल खुला तो वहां इन्होंने पढ़ाई शुरू की। मुकेश का कहना है, “पैदा होते ही भट्टों पर मां-बाप को ईंट पाथते देखा है, जब बड़ा हुआ तो मैंने भी यही काम शुरू कर दिया। जब विजया दीदी मेरी मां के पास गईं और मुझे पढ़ाने के लिए बोला तो मैंने मना कर दिया, उनके बहुत समझाने पर मां तैयार हुई।” वो आगे बताते हैं, “आज मैं स्नातक कर रहा हूं और अपना स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहा हूं, जिसके बदले मुझे मानदेय मिलता है, भट्टों पर मेरा काम करना बंद हुआ। आज मेरी तरह आस-पास के कई भट्टों के युवा पढ़ाई करके कुछ न कुछ काम कर रहे हैं।”
अपना स्कूल में पढ़ाई कर आज सिलाई केंद्र पर सिलाई सीख रही मूलरूप से हरदोई जिले के बीकापुर गाँव की रहने वाली रोली सक्सेना (15 वर्ष) अभी कानपुर जिले के कल्यानपुर कस्बे में रह रही हैं।
इनके मां-बाप मजदूरी करने के लिए कानपुर आकर रहने लगे, रोली खुश होकर बताती हैं, “मेरी मां नये बन रहे मकानों में मजदूरी का काम करती हैं मेरे पापा हैं नहीं। अपना स्कूल में फीस नहीं पड़ती है इसलिए पांचवी वहां से पास की। पांचवी के बाद की मेरी फीस विजय दीदी दे रही हैं आज मैं नवीं कक्षा में पढ़ रही हूं और सिलाई सेंटर में आकर सिलाई भी सीख रही हूं।”
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इसी सेंटर पर सिलाई सीख रही अंजली निषाद (14 वर्ष) का कहना है, “हमारी मम्मी सब्जी बेचतीं हैं, हमारी दो बहनों ने पढ़ाई इसलिए नहीं की क्योंकि घर में काम कौन करता, दीदी की वजह से आज मै नवीं कक्षा में पढ़ पा रही हूं, कभी नहीं सोंचा था कि हमें भी पढ़ने को मिलेगा।”