भोपाल। फातिमा बानो ने पुरानी दकियानूसी सोच को तोड़ते हुए न सिर्फ देश की पहली मुस्लिम महिला रेसलिंग कोच बनी बल्कि अपनी तरह सैकड़ों बेटियों को अखाड़े में पहलवान तैयार करने में जुटी हुई हैं। इस अखाड़े में पहलवानी सीख रहे सैकड़ों खिलाड़ी नेशनल और इंटरनेशल मेडलिस्ट हैं। पिछले 30 वर्षों से यहाँ नि:शुल्क हजारों खिलाड़ी पहलवानी सीख चुके हैं।
इस अखाड़े में पांच सालों से पहलवानी सीख रही सिवनी जिला मुख्यालय से 18 किलोमीटर दूर रामाटोला बोगा गाँव की पुष्पा विश्वकर्मा (22 वर्ष) अपने माथें का पसीना पोछते हुए उत्साह से बताती है, “गाँव की लड़की कुश्ती लड़ेगी ये आज भी किसी को रास नहीं आता, हमारे घरवालों ने तो इतनी दूर भेज दिया है पर बाकी की लड़कियां जो कुश्ती सीखना चाहती हैं उन्हें आज भी मौका नहीं मिलता है, अगर हमे मौका मिले तो हम देश के लिए मेडल ले आयें।”
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पुष्पा को तीन बार मध्यप्रदेश केसरी और एक बार भारत कुमारी मेडल मिल चुका है। पुष्पा ने कहा, “अगर हमे घरवाले सीखने न भेजते तो आज हम भी गाँव में होते, जमाना आज चाहे जितना आगे बढ़ गया हो पर लड़कियों को आज भी उनके मन के काम करने की आजादी नहीं देता है। अगर लड़कियों को मौका मिले तो वो देश का नाम जरूर रोशन करें। मैं ओलम्पिक में देश के लिए मेडल लाना चाहती हूँ, और लोगों का ये भ्रम दूर करना चाहती हूँ कि कोई भी खेल लड़के-लड़की के लिए नहीं बना है।” पुष्पा विश्वकर्मा इस अखाड़े की पहली लड़की नहीं है जो गाँव से आयी हों और इस तरह की सोच रखती हों बल्कि इनकी तरह कई ग्रामीण लड़कियां देश को मेडल दिलाने की इच्छा रखती हैं।
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“बचपन से ही मुझे खेल पसंद था लेकिन आज से 20 साल पहले हमारे परिवार में बेटियों को खेलने की आजादी नहीं थी। मुझे बहुत याद नहीं है शायद मेरे बहुत जिद करने पर मुझे जुडो खेलने की छूट मिली थी। हर लड़की को कुश्ती खेलने की आजादी मिले इसलिए मैंने कोच की नौकरी छोड़कर नि:शुल्क इस अखाड़े में पहलवानी सिखाना शुरू किया। पैसा किसी खिलाड़ी के लिए उसके करियर में बाधा न बने इस सोच से मेरे पति पिछले 30 वर्षों से यहाँ फ्री में पहलवानी के दांवपेंच सिखा रहे हैं।” ये कहना है भोपाल के जहांगीराबाद की फातिमा बानों (43 वर्ष) का।
भारत में साल 1997 में जब कुश्ती आयी उस समय किसी लड़की के लिए कुश्ती खेलना किसी अजूबे से कम नहीं था। फातिमा बानो उस समय का अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “पहले पर्दा प्रथा बहुत ज्यादा थी, जब उस समय मैंने शुरुआत की थी तो लोग कहते थे इससे शादी कौन करेगा। लोग दूर से देखकर कहते थे हटो पहलवान आ रही है। मेरे साथ के बच्चे भी मेरे साथ नहीं खेलते थे। मैंने अपने शौक के आगे इन बातों पर ध्यान ही नहीं दिया, बुरा तो बहुत लगता था लेकिन धीरे-धीरे मेरी ज़िद को घर, परिवार और समाज ने न चाहते हुए मान लिया था।”
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भोपाल जिला मुख्यालय से महज एक किलोमीटर की दूरी पर बने ‘अखाड़ा ट्रेनिंग स्कूल गप्पू उस्ताद’ भोईपुरा बुधवारा में सुबह छह बजे से लड़के-लड़कियां पहलवानी सीखने आ जाते हैं। इस अखाड़े की सबसे खास बात ये है कि यहाँ सीख रही ज्यादातर लड़कियां ग्रामीण क्षेत्रों की हैं। इस सेंटर में हजारों बच्चे पहलवानी सीख चुके हैं। इस अखाड़े में सीखे 500 बच्चे नेशनल मेडलिस्ट हैं, 70 बच्चे इंटरनेशल मेडलिस्ट हैं। अभी भी 30 से 35 बच्चें रोज पहलवानी सीखने आते हैं।
सिवनी जिला की खिलाड़ी गेसू राहंगडाले (19 वर्ष) यहाँ पांच साल स कुश्ती सीख रही हैं। ये दो बार इंटरनेशल खेल चुकी हैं। इनका कहना है, “आज हर क्षेत्र में लड़कियां आगे जा रही हैं लेकिन अगर हम गांव की बता करें तो आज भी पहलवानी लड़कों का ही खेल माना जाता है। फातिमा मैम जिस तरह से निकल कर आयी हैं उनके देखादेखी कुछ माँ-बाप अपने बच्चों को मौका तो दे रहे हैं लेकिन उन्हें समाज के ताने बहुत सुनने पड़ रहे हैं।”
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30 साल से इस अखाड़े में खिलाड़ी नि:शुल्क सीख रहे हैं पहलवानी
शाकिर नूर अहमद पिछले 30 वर्षों से इस अखाड़े में फ्री में पहलवानी सिखाते हैं। शाकिर नूर अहमद बताते हैं, “कुश्ती हमने अपने शौक के लिए सीखा था, फातिमा को भी मैंने ही कुश्ती सिखाई। हम चाहते हैं कुश्ती जैसे खेल में ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियां ज्यादा से ज्यादा आयें। अगर हम फीस लें तो हो सकता है गरीब लड़कियां इस खेल से वंचित रह जाएँ, इसलिए मै फीस नहीं लेता हूँ।” फातिमा जब कोच थी तो उन्हें इस अखाड़े में आने का बहुत कम वक़्त मिलता था इसलिए उन्होंने नौकरी छोड़कर पिछले दो वर्षों से पूरा इस समय इस अखाड़े को देती हैं।
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फातिमा कुश्ती के क्षेत्र में विक्रम पुरस्कार पाने वाली पहली महिला
फातिमा को 13 मेडल के अलावा 1997 में हैदराबाद सीनियर नेशनल चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल मिला। इन्हें मध्यप्रदेश का सर्वोच्च खेल पुरस्कार विक्रम पुरस्कार 2001 में मिला, इसके बाद कुश्ती के क्षेत्र में अभी तक किसी को ये पुरस्कार नहीं मिला है। इनके पति नूर शाकिर को को उसी साल विश्वामित्र अवार्ड मिला था।
कोच की भूमिका भी निभा चुकी हैं
वर्ष 2007 में खेल एकेडमी में फातिमा मुख्य कोच रह चुकी हैं। कोच की नौकरी फातिमा को क्यों छोड़नी पड़ी इस सवाल के जबाब में फातिमा ने कहा, “मैं अपने मर्जी का काम नहीं कर पा रही थी, मै चाहती थी मेरी तरह सैकड़ों लड़कियां पहलवानी के खेल में आगे आयें। अगर एक महिला पहलवानी सिखाती है तो मुझे लगता है इनके घरवाले इन्हें ज्यादा मना नहीं करेंगे। इस अखाड़े के खिलाड़ियों को ज्यादा से ज्यादा समय देने के लिए मैंने नौकरी छोड़ दी।”