हम आपको जो कहानी बताने जा रहे हैं वो सिर्फ इसलिए ख़ास नहीं है क्योंकि इस कहानी की भूमिका पिछले सिर्फ एक साल में बंधी है बल्कि इसलिए भी क्योंकि यह कश्मीर जैसी संघर्षों भरी धरती में जन्मी है। इस अंक में आपदा प्रभावित समुदायों की जरुरतों के अनुसार ‘गूँज’ के राहत से पुनर्वसन तक के कार्यों का एक बड़े स्तर पर सफल हो पाने का विवरण है। सितम्बर
2014 ने जम्मू-कश्मीर के इतिहास में सबसे भयानक बाढ़ देखी। राफ्ट्स के साथ राहत कार्य शुरू करने के साथ ही, ‘गूँज’ ने जल्द ही स्थानीय वालंटियर समूहों में से ही कुछ लोगों को जम्मू-कश्मीर टीम का हिस्सा बना लिया। इस समय तक एक और आपदा दस्तक दे चुकी थी, वो थी ठण्ड, जैसे-जैसे हम लोगों और उनकी समस्याओं से जुड़ते चले गए वैसे-वैसे काम का विस्तार बढ़ता चला गया।
हमारी प्राथमिकता जम्मू-कश्मीर के सबसे दूरदराज के इलाकों तक लगभग 20,000 विंटर किट्स पहुंचाने की थी, इसके साथ ही हमने स्थानीय अस्पतालों और डॉक्टरों की मदद से मेडिकल कैम्प लगाने और लगभग 1000 से ज़्यादा छात्रों के लिए कोचिंग क्लासेज शुरू करने का काम किया (बाढ़ के दौरान इनकी पढ़ाई का काफी नुकसान हुआ था)। पिछले एक साल के दौरान हमने बहुत से कम्प्यूटर सेंटर, स्कूलों में प्राथमिक चिकित्सा इकाई और लगभग 19,000 किताबों के साथ 44 पुस्तकालय शुरू किए हैं। हमारा काम लाइन ऑफ़ कण्ट्रोल से लगने वाले गाँवों तक पहुंच गया जहां 500 से ज्यादा परिवारों को खाद और बीज बांटे गए।
पिछले 14 महीनों में 27,000 से ज़्यादा बाढ़ प्रभावित परिवारों को पूरे देश से भेजे गए 98 ट्रक सामान से मदद मिली है जो लोगों के मदद के ज़ज्बे को दिखाती है।
ये अपने आप में अद्भुत है कि कैसे समस्याओं को किसी तरह से भी सुलझा लेने के विश्वास के साथ हमारा काम आगे बढ़ता जा रहा है। हमें स्थानीय लोगों और संस्थाओं के सहयोग पर विश्वास है, जिससे काम को गति और मजबूती मिलती है और एक परस्पर विश्वास बना रहता है। इसी विश्वास की वजह से लोग हमारे विकास के कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए साथ जुड़ते हैं। यह सारी प्रक्रिया हमारे इस विश्वास को दृढ़ करती है कि राहत का मतलब सिर्फ सामान पहुंचा देना ही नहीं है, बल्कि लोगों के साथ मुश्किल की उन घडिय़ों में उनके साथ बने रहना है जब वो अपनी जि़न्दगी सामान्य करने के प्रयास कर रहे हों।
कश्मीर की ठिठुरा देने वाली ठण्ड हमारे काम के लिए एक बड़ी चुनौती थी यहां तक की राज्य सरकार भी बेहतर काम करने की उम्मीद में अपना कार्यालय श्रीनगर से जम्मू स्थानांतरित कर देती है। ऐसे में जो लोग सब कुछ खो चुके थे, उनके लिए सर्दियां एक दूसरी बड़ी आपदा साबित हुईं जिससे उन्हें जूझना था। यह यक़ीनन एक मुश्किल समय था, हमने पाया की देश के अन्य हिस्सों से कश्मीर में काम की तलाश में आए मज़दूर, सबसे ज़्यादा नज़रंदाज़ समूहों के लोग थे, जबकि सच यह है कि यही प्रवासी मज़दूर शहरों को दुबारा खड़ा करने में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं। हमने उन्हें विंटर किट्स, गद्दे, रज़ाई और अन्य ज़रुरत का सामान पहुंचाया और तभी से वे ‘गूँज’ के राहत और पुनर्वसन के कार्यों का अभिन्न केंद्र है।
यह कहानी अधूरी होगी अगर हम ‘क्लॉथ फॉर वर्क’ के सफ़र के बारे में न बताएं। जैसा कि अक्सर होता है, हमारी स्थानीय टीम को विश्वास नहीं था कि लोग सामान के बदले काम करने को तैयार होंगे या नहीं। इसकी शुरुआत हुई जब कुछ लोगों ने अपने मृत सम्बन्धियों को सम्मान देने के लिए कब्रिस्तान की सफाई करने का निश्चय किया। एक दूसरी जगह पर पुरुष और महिलाओं ने रुके हुए नालों की सफाई की। इन सब ने फिर से साबित किया कि हम इंसानों को जब भी सम्मान-गरिमा और दान में से एक चीज़ चुननी हो तो हम हमेशा ही गरिमा का विकल्प ऊपर चुनेंगे।
हम जानते हैं कि ये कोई साधारण बात नहीं है कि कश्मीर के बहुत अन्दर के इलाके का कोई गाँव खुद के लिए पांच किमी लम्बी सड़क बना डाले। हमें आपको फिरोज़ अहमद के बारे में बताना होगा जो दक्षिणी कश्मीर, अनंतनाग जिले के हसनपुरा तवेला गाँव के निवासी हैं। ये उर्दू में मास्टर्स कर रहें हैं। फिरोज़ का गाँव बाढ़ में बुरी तरह प्रभावित हुआ था। इस बाढ़ में 504 घरों में से लगभग 250 परिवारों ने अपना सब कुछ खो दिया था। एक साल के बाद भी ये परिवार अस्थायी ठिकानों में चिंताजनक स्थितियों में रह रहे हैं। जब फिरोज़ ने ‘गूँज’ से बात की तो हमने वहां एक मेडिकल कैंप लगाने के अलावा राहत सामग्री पहुंचाई। इसके बाद फिरोज़ ने अपने गाँव के बड़े बुजुर्गों और स्थानीय वालंटियरों की मदद से, गाँव से होकर बहने वाली 1.5 किमी लम्बी नहर साफ़ की। ये काम क्लॉथ फॉर वर्क के अन्दर किए गए चार कामों में से पहला था। बाढ़ के एक साल बाद अक्टूबर 2015 में ‘गूँज’ ने फिरोज़ और गाँव वालों के साथ मिलकर एक और कदम बढ़ाया, खेतों तक जाने वाली पांच किमी एक सड़क बनाईं।
इसने एक और बड़े विचार को जन्म दिया, क्लॉथ फॉर वर्क के तहत हसनपुरा तवेला को हसनपुरा राख से जोडऩे वाली सड़क बनाने का विचार। कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि किसानों ने स्वेच्छा से अपने खेतों की जमीन सड़क निर्माण के लिए देने का निश्चय किया। पांच किलोमीटर की सड़क दो चरणों में तैयार हुई जबकि काम आठ दिन तक चला जिसमें 473 लोगों ने हिस्सा लिया। 150 से ज़्यादा किसानों को इस सड़क से फायदा हुआ, आपको गूँज की ये बदलाव की कहानी कैसी लगी।
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