इंदौर (मध्य प्रदेश)। इंदौर के किसान राजेश पाटीदार अपने आसपास के ज्यादातर किसानों की तरह आलू, प्याज और लहुसन की खेती करते थे लेकिन लागत के अनुरूप में मुनाफा नहीं हो रहा, इसलिए राजेश ने अमरुद की बागवानी शुरु की। 3 एकड़ जमीन के मालिक राजेश पाटीदार पिछले 4 साल से थाई अमरुद की खेती कर रहे हैं, जिससे उन्हें सालाना करीब 5 लाख रुपए की कमाई होती है।
मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर से करीब 55 किलोमीटर जमली गांव में राजेश पाटीदार की जमीन है, जिसमें वो अमरुद की खेती और उसके बीच में मौसम के हिसाब से सफेद मूसली, अदरक या हल्दी की इंटरक्रॉपिंग करते हैं।
“पहले मैं भी परंपरागत तरीके से आलू, प्याज और लहसुन की खेती करता था, जैसे बाकी लोग करते थे लेकिन बढ़ती लागत के कारण काफी काफी नुकसान हुआ, जिसके साल 2017 में मैंने उन्हें बंद कर दिया और बागवानी के साथ औषधीय पौधों की खेती शुरु कर दी।” राजेश अपनी शुरुआती कहानी बताते हैं।
राजेश पाटीदार (51 वर्ष) ने अमरुद का बाग (Thai Guava) लगाने के वक्त किस्म और तकनीक का सही चुनाव किया। छत्तीसगढ़ के रायपुर से वीएनआर किस्म के पौध मंगवाए। 3 एकड़ जमीन में उन्होंने करीब 1800 पौधे लगवाए हैं। औसतन किसान एक एकड़ में 600-800 पौधे अमरुद जैसी फसलों के लगवाते हैं, जिन्हें बीच ज्यादा दूरी चाहिए होती है और दूसरी फसलों को प्रमुखता से लेना होता है वो पौधे से पौधे और लाइन से लाइन के बीच की दूरी बढ़ा देते हैं। राजेश के पौधों की दूरी 7 गुणा 10 फीट है। राजेश बताते हैं, “पौधों में पोषण और सिंचाई का काम सही तरीके से हो और कम खर्च में हो इसलिए हमने शुरुआत में ही ड्रिप इरीगेशन लगवा दिया था।” अमरुद की बाग में अमूमन 18-20 महीने में फल आने शुरु हो जाते हैं और समय के साथ उत्पादन बढ़ता जाता है।
साल में 7-8 लाख की होती है उपज, 2-3 लाख रुपए आता है खर्च
कमाई के बारे में पूछने पर राजेश बताते हैं, “पिछले साल लॉकडाउन में अमरुद 50-60 रुपए किलो में बिका था, और करीब 20 टन उत्पादन हुआ था, इस साल और 30 टन का उत्पादन और 50 रुपए किलो के रेट का अनुमान है। पूरी फसल से सालभर में करीब 5 लाख रुपए सलाना की आमदनी कमाई होती है।”
राजेश बताते हैं, ” पूरे साल में अमरुद से करीब 7-8 लाक रुपए की आय होती है, जिसमें से 2-3 लाख रुपए की लागत निकल जाती है। इस तरह 5 लाख के आसपास का मुनाफा होता है। वहीं अमरुद की बाग में मूसली की खेती से सालाना 3-3.5 लाख की उपज मिलती है और खर्च हटाकर औसतन डेढ़ से से 2 लाख रुपए तक बच जाते हैं।”
राजेश पाटीदार के मुताबिक अमरुद जैसे फलों में हार्वेटिंग के समय की बहुत अहमयित होती है, फल ज्यादा बड़ा होने पर ही उसका अच्छा रेट नहीं मिलता है।
राजेश के बाग में इस वक्त 400-700 ग्राम वजन के अमरुद लगे हैं। वो कहते हैं, “हमारी बाग में पहले चरण की हार्वेस्टिंग जारी है। जो फसल 500-700 ग्राम का होगा उसी की तोड़ाई होगी। फिर उन्हें पैक करके 20-20 किलो के बॉक्स में रखकर बाजार भेजा जाता है। जिस फल का वजन एक किलो तक हो जाता है, बाजार में उसका रेट कम हो जाता है इसलिए समय पर फलों को तोड़ा जाना जरुरी है। इंदौर मंडी के अलावा वो दिल्ली और मुंबई भी अपने अमरुद भेजते हैं।
लहसुन, आलू और प्याज की खेती छोड़ने के बाद उन्होंने बागवानी के अलावा खेतों में दो और प्रयोग किए थे, पहला उन्होंने अपनी खेती को जैविक किया और दूसरा बाग में पौधों के बीच में बची जगह में मूसली, हल्दी और अदरक जैसी कंद वाली फसलें उगानी शुरु की।
अपनी यात्रा के बारे में राजेश पाटीदार बताते हैं, “कुछ साल पहले मैं एक प्राइवेट कंपनी में काम भी करता था लेकिन जल्द ही मन उकता गया और गांव वापस आ गया फिर अपने गांव जमली से 15 किलोमीटर दूर 3 एकड़ की अपनी जमीन पर बाग लगाया।
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बागवानी के साथ सफेद मुसली की खेती
राजेश आगे बताते हैं कि अमरूद के पौधों के बीच में इंटर क्रॉपिंग के तौर पर वह औषधीय फसलों जैसे सफेद मुसली (Musli) हल्दी और अदरक आदि की खेती करते हैं। इस साल उन्होंने अपने बगीचे में सफेद मुसली खेती जिसकी हार्वेस्टिंग कुछ दिनों पहले ही हुई है। जून महीने में उन्होंने सफेद मूसली की फसल लगाई थी। उन्होंने बताया कि तीन एकड़ से लगभग 400 किलोग्राम (4 कुंटल) सफेद मूसली का उत्पादन हुआ है।
राजेश बातते हैं, “खेत से निकालने के बाद सफेद मूसली (क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम) को अच्छी तरह सुखाकर इंदौर के सियागंज में बड़े व्यापारियों को बेच देते हैं, इस बार उन्हें 800-850 रुपए का दाम मिला है।”
खर्च के बारे में वे बताते हैं, “औषधीय फसलों में लगभग आधा खर्च होता है। इस साल सफेद मूसली की खेती से 3 से 4 लाख रूपए की कमाई हो जाएगी। जिसमें लगभग 40 से 50 फीसदी खर्च हो जाता है।”
जैविक खेती के लिए करते हैं गाय पालन
अमरूद की बागवानी के साथ राजेश अपने फार्म पर गौ पालन करते हैं। राजेश का कहना है कि जैविक खेती के लिए गाय पालन बेहद जरूरी है। गाय के गोबर का उपयोग खाद निर्माण में किया जाता है। उन्होंने फार्म पर गोबर गैस का प्लांट भी लगा रखा है, जिससे निकलने वाली गैस का उपयोग रसोई में करते हैं। वहीं अपशिष्ट पदार्थ का उपयोग खाद के रुप में होता है। जबकि गौ मूत्र का उपयोग जैविक छिड़काव के निर्माण में करते हैं।
मध्य प्रदेश जैविक खेती में अव्वल
मध्य प्रदेश में जैविक खेती के प्रति किसानों का रूझान काफी बढ़ा है। मध्य प्रदेश कृषि विभाग की वेबसाइट के मुताबिक, मध्य प्रदेश में सबसे पहले 2001-02 जैविक खेती को बढ़ावा देने की पहल की गई थी। इस वर्ष प्रदेश के हर जिले के प्रत्येक विकास खंड के एक गांव में जैविक खेती करने का लक्ष्य रखा गया था। वहीं इन गांवों को ‘जैविक गांव’ का नाम दिया गया था। पहले साल यानि 2001-02 में प्रदेश के 313 गांवों में जैविक खेती की गई।
एग्रीकल्चर एण्ड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट एक्सपोर्ट डेव्हलपमेंट अथॉरिटी (एपीडा) के अनुसार, मध्य प्रदेश जैविक में देशभर में अव्वल है। मध्य प्रदेश के 0.76 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती की जाती है। राज्य में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 2011 में जैविक कृषि नीति लागू की गई। इसके बाद इंदौर, उज्जैन, सीहोर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, रायसेन, भोपाल, जबलपुर, मंडला, बालघाट समेत कई जिलों के जैविक उत्पादों की देश-विदेश में मांग बढ़ने लगी।