लखनऊ। वो लाॅस एंजेलिस की एक खूबसूरत शाम थी। 2004 की फरवरी में काफी ठंड थी, रास्ते रोज़ाना की तरह वक्त से तेज़ भाग रहे थे। तरतीब से बढ़ता हुआ ट्रैफिक, सड़क के दोनों तरफ जगमगाती रोशनी, हंसते-मुस्कुराते और खुश-एहसास चेहरे, सब था वहां। दुनिया के चंद सबसे महंगे शहरों में शुमार होने वाले अमेरिका के इस शहर में क्या नहीं था। लेकिन शहर के एक हिस्से में एक शख्स ऐसा भी था जिसके लिए वो रंगीनियां, वो मुस्कुराहटों के फव्वारे, वो दिलकश नज़ारे कुछ मायने नहीं रखते थे। इस शख्स का नाम था जॉन हॉकिन्स।
36 साल के जॉन अमेरिका में फिज़िक्स और केमिस्ट्री के टीचर थे। वो एक महीना पहले ही भारत के शहर मुंबई से लौटे थे। और जब से लौटे थे तभी से ज़हन में वहां की खूबसूरत यादें बार-बार सांस ले रही थीं। एक टूरिस्ट के तौर पर मुंबई आए जॉन को शहर में इतना प्यार और इतना अपना मिला कि वो एहसास उन्हे भुलाए नहीं भूल रहा था। हां, मुंबई लॉस एंजिलिस जैसा खूबसूरत और चमचमता तो नहीं था लेकिन कुछ था जिसकी वजह से एक रिश्ता सा बन गया था।
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दरअसल जॉन जब मुंबई आए तो उन्होंने देखा कि रवायतों, तहज़ीबों और भावुकता से सजे इस देश में अशिक्षा की समस्या बहुत ज़्यादा है। बच्चे स्कूल नहीं जाते, सरकारी स्कूलों की ज़बरदस्त कमी है, सुविधाओं की कमी है। उस शाम जॉन यही सोचते रहे कि काश वो कुछ कर सकते। जॉन ने इस ख्याल के साथ कई साल बिताए और फिर एक रोज़ ये फैसला ले ही लिया कि वो भारत वापस आएंगे और यहीं रहकर बच्चों की तालीम के लिए काम करेंगे।
दिसंबर 2012 में वो फिर से भारत आये और दिल्ली पहुँचे। जहां उन्होंने पाया कि देश की राजधानी होने के नाते वहाँ कई एनजीओ काम कर रही हैं, शायद इसीलिए वो उत्तर भारत के दौरे पर निकल गए। फिर वहां से पटना, कानपुर, आगरा होते हुए जॉन ने लखनऊ के डालीगंज इलाके में रहकर बच्चों को मुफ्त में पढ़ाना तय किया। बाद में, डॉ सुनीता गांधी की एनजीओ ‘देवी संस्थान’ का साथ मिला तो पीछे मुड़ कर नहीं देखा। आज उन्हे इलाके का हर शख्स जानता है।
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ये बात सच है कि एक बूंद से सागर नहीं भरता लेकिन इससे भी कौन इंकार कर सकता है कि छोटी-छोटी कोशिशें ही बड़े बदलवा का पहला कदम होती हैं। वो दुनिया बदल देंगे ऐसा तो मुमकिन नहीं है लेकिन हां, उन्हे इस बात की खुशी ज़रूर होगी कि वो अपने हिस्से की दुनिया बदल रहे हैं।