ज्यादातर पशुपालक जानकारी के अभाव में पशुओं में होने वाले दाद, खुजली और जू होने पर ध्यान नहीं देते है, जिससे आगे चलकर उनको काफी नुकसान उठाना पड़ता है। अगर पशुपालक थोड़ा ध्यान दे तो बाहरी परिजीवी से दुधारु पशुओं को बचाया जा सकता है।
कई बार परजीवियों की वजह से पशु तनाव में चला जाता है, जिसका सीधा असर उसके दूध उत्पादन पर पड़ता है। भीतरी परजीवियों के प्रकोप से भैंस के बच्चों में तीन महीने की उम्र तक 33 प्रतिशत की मौत हो जाती है और जो बच्चे बचते हैं, उन का विकास बहुत धीमा होता है। इसलिए शुरू में ही परीजीवियों का ध्यान रखना चाहिए। किलनियों से पशुओं में लाइम रोग, क्यू ज्वर, बबेसिओसिस जैसी कई बीमारियां भी पनपती है। ये कई जूनोटिक रोगों के वैक्टर के रूप में मच्छरों के बाद दूसरे स्थान पर हैं तथा इन रोगों के प्रकोप द्वारा नुकसान पशु उत्पादकता के लिए एक बड़ी बाधा है।
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- पशुओं में खुजली एवं जलन होना।
- दुग्ध उत्पादन में कमी आना।
- भूख कम लगाना।
- चमड़ी का खराब हो जाना।
- बालों का झड़ना।
- पशुओं में तनाव और चिड़चिड़ापन का बढ़ना आदि।
- कम उम्र के पशुओं पर इनका प्रतिकूल प्रभाव ज्यादा होता है।
रोकथाम
- खाद्य तेल (जैसे अलसी का तेल) का एक पतला लेप लगाना चाहिए।
- साबुन के गाढ़े-घोल का इस्तेमाल एक सप्ताह के अंतराल पर दो बार करना चाहिए।
- आयोडीन को शरीर के ऊपर एक सप्ताह के अंतराल पर दो बार रगड़ना चाहिये।
- लहसुन के पाउडर का शरीर की सतह पर इस्तेमाल करें।
- एक हिस्सा एसेन्सियल आयल और दो-तीन हिस्सा खाद्य तेल को मिलाकर रगड़ना चाहिए।
- किलनी के लिए होम्योपैथिक ईलाज भी काफी उपयोगी है, इसलिए इसका प्रयोग करना चाहिए।
- पाइरिथ्रम नामक वानस्पतिक कीटनाशक भी काफी उपयोगी होता है।
- पशुओं की रीढ़ पर दो-तीन मुट्ठी सल्फर का प्रयोग करना चाहिए।
- चूना-सल्फर के घोल का इस्तेमाल 7-10 दिन के अंतराल पर लगभग 6 बार करना चाहिये ।
- किलनी नियंत्रण में प्रयोग होने वाले आइवरमेक्टिन इंजेक्शन के प्रयोग के बाद दूध को कम से कम दो से तीन हफ्तों तक प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।
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बचाव
- पशुओं को सेहतमंद रखने और बीमारी से बचाने के लिए उचित समय पर टीका लगवाना चाहिए ।
- दुधारू पशुओं को नियमित रूप से पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए । बीमार पशुओं का इलाज जल्दी कराना चाहिए, ताकि पशु रोगमुक्त हो सकें ।
- बीमार पशु के बरतन व जंजीरें पानी में उबाल कर जीवाणुरहित करने चाहिए।
- फर्श और दीवारों को भी कास्टिक सोडा के घोल से साफ करना चाहिए ।
- परजीवी के प्रकोप से बड़े पशुओं में कब्ज, एनीमिया, पेट दर्द और डायरिया के लक्षण दिखाई देते है। इसलिए वर्ष में 2 बार भीतरी परजीवीयों के लिए कृमिनाशक दवा का प्रयोग करना चाहिए।
- बाह्य परजीवी जैसे किलनी, जूं से बचने के लिए समय-समय पर पशुओं की सफाई की जानी चाहिए।
- नए खरीदे गए पशुओं को कम से कम तीन सप्ताह तक अलग रखकर उन का निरीक्षण करना चाहिए।
- इस अवधि में अगर पशु सेहतमंद दिखाई दें और उन्हें टीका न लगा हो, तो टीकाकरण अवश्य करा देना चाहिए।
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साभार: राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो, करनाल