किसी राष्ट्र, राज्य या क्षेत्र की पहचान उसकी संस्कृति, स्थानीय भाषा, रहन-सहन, खानपान यहां तक कि वहां पाई जाने वाली स्थानीय स्वदेशी पशुओं की नस्लों को लेकर होती है। इसके चलते वह राज्य अथवा क्षेत्र अपनी एक विशेष पहचान के लिये जाना जाता है। लेकिन जब उसकी यही विशेषताएं ही धीरे-धीरे करके विलुप्त होने लगे तो चिंता होना लाजमी है।
वर्तमान में ऐसा ही कुछ हो रहा है मध्य प्रदेश राज्य की स्थानीय स्वदेशी डेयरी पशुओं की नस्लों को लेकर। राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी विशेषताओं को लेकर जानी पहचानी जाने वाली गायों और भैंस की नस्लों को लेकर चिंता होना स्वाभाविक है। ऐसा क्यों हो रहा है इसके पीछे मुख्य वजह क्या है प्रमुख तौर पर जो तथ्य सामने आ रहे हैं उसके अनुसार स्थानीय गायों और भैंस की नस्लों में दुग्ध उत्पादकता का कम होना है। साथ ही गायों के बछड़ों का मशीनीकरण के चलते खेती में प्रयोग नगण्य होते चले जाना हैं।
मध्य प्रदेश में गायों की स्थानीय स्वदेशी नस्लों की तरफ से किसानों का रूझान कम होता जा रहा है। प्रदेश में प्रमुख रूप से गायों की चार स्वदेशी नस्ल पाई जाती हैं। जिनमें कैनकथा, मालवी, निमाड़ी और ग्वालों गाय प्रमुख हैं।
कैनकथा बुंदेलखण्ड में, मालवी नस्ल मालवा में, निमाड़ी नस्ल निमाड़ में और ग्वालो महाकौशल में पाई जाती है। गायों के संरक्षण के नाम पर दुग्ध उत्पादक विदेशी गायों की नस्लों को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है।
वहीं दूसरी तरफ किसानों का गाय पालन के प्रति घटते रूझान के पीछे मुख्य कारणों में स्थानीय देशी गायों में दुग्ध उत्पादकता कम होने के साथ ही गाय के दूध का उचित मूल्य भी नहीं मिल पाना है।
गाय के बछड़ों का भी कोई उपयोग नहीं हो पा रहा है। इस कारण किसान-पशुपालकों को लगने लगा है कि गाय पालन घाटे का सौदा बनता जा रहा है। गायों के संरक्षण के नाम पर आज राज्य की चारों स्थानीय देशी नस्लों के संरक्षण पर कहीं कोई बात नहीं हो रही है।
सिर्फ अन्य राज्यों की अधिक दूध देने वाली दुधारू गायों की नस्लें जिसमें प्रमुख तौर पर विदेशी क्रॉस ब्रीड नस्ल की गायों को ज्यादा संरक्षण दिया जा रहा है। ऐसा ही होता रहा तो आने वाले कुछ दशकों में राज्य से स्थानीय देशी गायों की नस्लों को विलुप्त होने से रोक पाना मुश्किल होगा।
केनकथा गाय
राज्य की प्रमुख स्वदेशी गायों में केनकथा नस्ल के पशु प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर और उत्तर प्रदेश के ललितपुर, हमीरपुर, बांदा आदि जिलों में पाये जाते हैं। जिनका प्रमुख तौर पर भारवाहन के कार्यों में ही उपयोग किया जाता है। इस नस्ल में प्रति ब्यांत औसत दूध देने की क्षमता लगभग 500 से लेकर 600 लीटर तक है।
मालवी गाय
मालवी मालवा क्षेत्र की यह एक प्रमुख गाय की नस्ल है। इसी कारण इस नस्ल का मालवी नाम इसके मूल स्थान के नाम पर रखा गया है। यह नस्ल प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश के राजगढ़, शाजापुर, रतलाम और उज्जैन जिले में पायी जाती है। इस नस्ल में प्रति ब्यांत औसत दूध देने की क्षमता लगभग 900 से लेकर 1200 लीटर तक है।
निमाड़ी गाय
इसी प्रकार से निमाड़ी गाय मुख्य रूप से मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र की प्रमुख नस्ल है। जिसका नाम भी इसके मूल स्थान मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र के नाम पर ही रखा गया है। यह नस्ल मध्य प्रदेश के खरगौन, बड़वानी, इंदौर आदि जिले में पायी जाती है। इसके प्रजनन पथ में मध्य प्रदेश के खरगॉंव (पश्चिम निमाड़) और बड़वानी जिले शामिल हैं। इस नस्ल की गाय औसतन प्रति ब्यांत 600 से 950 लीटर तक दुग्ध उत्पादन करती है।
ग्वालो गाय
मध्य प्रदेश के बालाघाट, छिंदवाड़ा, सिवनी, छत्तीसगढ़ के दुर्ग एवं राजनंदगांव तथा महाराष्ट्र के वर्धा और नागपुर जनपदों में पायी जाती है। यह एक तेजी से घूमने वाली नस्ल है जोकि पहाड़ी क्षेत्रों में त्वरित परिवहन के लिये काफी उपयुक्त होती है।
बावरी गाय
मध्य प्रदेश राज्य की गायों की चार प्रमुख नस्लों के अलावा एक अन्य स्थानीय स्वदेशी नस्ल भी पाई जाती है। जिसकी कुछ वर्षों पूर्व ही बावरी नस्ल की गाय के रूप में पहचान की गई है। मध्य प्रदेश के चंबल संभाग के श्योपुर व मुरैना जिले के कुछ विकास खण्ड़ों में एक अनोखी पशु आबादी दिखाई देती है जिसे स्थानीय लोग ”बावरी” के रूप में पहचानते हैं।
श्योपुर जिले के विजयपुर, कराहल तथा मुरैना जिले के सबलगढ़, कैलारस एवं जौरा विकास खण्ड़ों में यह पशु आबादी कहीं ज्यादा तो कहीं कम दिखाई देती है। स्थानीय रूप से ”बावरी” (जिसे गर्री के नाम से भी जाना जाता है) के रूप में जाना पहचाना जाता है। बताया जाता है कि इस गाय के दूध का खोआ बहुत ही उम्दां किस्म का बनकर तैयार होता है। है। इस नस्ल की गाय से प्रति ब्यांत 650 से लेकर 850 लीटर तक दुग्ध उत्पादन प्राप्त होता है।
भदावरी भैंस
वहीं भैंस की बात करें तो राज्य की एकमात्र नस्ल भदावरी को माना जा सकता है जोकि उत्तर प्रदेश के साथ ही मध्य प्रदेश के कुछ जनपदों की स्थानीय नस्ल है। इस नस्ल की उत्पत्ति भदावर क्षेत्र की मानी जाती है जोकि आगरा एवं इटावा जनपदों के अंतर्गत पुरातन भदावर राज्य कहलाता था जोकि उत्तर प्रदेश के आगरा, इटावा और भिंड (म.प्र.) जनपदों के अंतर्गत आता है।
इसी नस्ल की भैंस यमुना और चम्बल नदी के किनारे पाये जाने वाले बीहड़ों में प्रमुखता से पाई जाती थी। इसी के चलते भदावरी नस्ल भिण्ड, मुरैना के बीहड़ों से लेकर ग्वालियर जनपद के कुछ क्षेत्रों में भी पायी जाती है। लेकिन इन जनपदों में भी भदावरी नस्ल की भैस अब बहुत कम दिखाई देती है।
चंबल के बीहड़ों में भी स्थानीय पशुपालकों के यहां इस नस्ल की भैस दिखाई नहीं देती जबकि बीहड़ों के दूरदराज के गांवों और वहां की भौगोलिक परिस्थितियों में इस नस्ल की भैस बहुत ही अनुकूल मानी जाती रही है। भदावरी नस्ल की भैंस से औसतन प्रति ब्यांत 1200 लीटर तक दुग्ध उत्पादन प्राप्त होता है।
भदावरी नस्ल की भैंस के दूध में सर्वाधिक 8.5 से लेकर 13 प्रतिशत तक वसा पाई जाती है। जो कि दूरदराज के गांवों में जहां दूध की कीमतें बहुत कम मिलती है ऐसे क्षेत्रों में घी बनाने की लिये सबसे अच्छा विकल्प है।
(डॉ सत्येंद्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी, मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं, यह उनके निजी विचार हैं।)