देहरादून/लखनऊ। पूरे विश्व में ग्लोबल वार्मिंग का असर दिखाई देने लगा है, लेकिन इसका असर सिर्फ इंसानों तक सीमित नहीं है, इसका असर दूध देने वाली गायों पर भी दिखेगा।
बरेली के भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक देसी और संकर गायों पर पिछले कई वर्षों से शोध कर रहे हैं, इस शोध में उन वैज्ञानिकों का मानना है कि देसी नस्ल की गायें खुद को आसानी से हर तरह के मौसम के अनूकूल कर लेती हैं।
“जलवायु परिवर्तन से आने वाले समय में पशुओं के लिए चारा कम होगा, शुद्ध पानी नहीं मिलेगा, मच्छर, मक्खी और जू जैसे परीजीवियों से बीमारियां बढ़ेगी, उनकी प्रजनन क्षमता पर असर पड़ेगा, जिससे दूध उत्पादन घटेगा। ऐसे में देशी नस्ल की गाय (गिर, साहीवाल और थारपारकर) संकर नस्ल की गायों अपेक्षा तापमान को झेल पाएंगी।” आईवीआरआई के जैविक मानवीकरण विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. अशोक तिवारी गाँव कनेक्शन से बताते हैँ।
जलवायु के अनुकूल खेती और पशुधन करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने जलवायु समुत्थानशील कृषि पर राष्ट्रीय नवोन्वेषण (निकरा) परियोजना चला रही है। इस परियोजना में देश के कई संस्थानों के वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं।
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‘छह घंटे तापमान बढ़ाकर रखा गया गायों को’
“देसी गायों पर हमारे संस्थान में काफी समय से शोध भी चल रहा है। बढ़ते तापमान में गाय कितनी अनुकूल है इसके लिए साइकोमेट्रिक चैंबर भी तैयार किए गए। इनमें दस-दस गायों के ग्रुप हैं, जिसमें देसी और संकर नस्ल की गाय है। इन चैंबर में 6 घंटे तापमान को बढ़ाकर गायों को रखा गया। देसी और संकर में जो भी बदलाव आए उनका अध्ययन किया गया,” वह आगे कहते हैं।
कृषि मंत्रालय के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली समिति ने संसद में रिपोर्ट पेश की गई, जिसके मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण दूध उत्पादन को लेकर नहीं संभले तो इसका असर 2020 तक 1.6 मीट्रिक टन दूध उत्पादन में कमी के रूप में दिखेगा, वहीं 2050 तक यह गिरावट दस गुना तक बढ़ कर 15 मीट्रिक टन हो जाएगा। ऐेसे में देसी गाय ही कारगर सिद्ध होंगी।
देसी गायों में मिले विशेष जीन
आईवीआरआई के वैज्ञानिकों ने तापमान बढ़ोतरी के दौरान गायों के रक्त नमूने लिए। इस दौरान देसी गायों में कुछ विशेष जीन मिले, जो उनके भीतर ज्यादा तापमान सहने की क्षमता विकसित करते हैं। डॉ. अशोक तिवारी के अध्ययन के मुताबिक जेनेटिक स्टडी के बाद यह निष्कर्ष निकला कि संकर गायें बढ़ते तापमान को कम झेल पाती हैं।
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उत्तराखंड राज्य के देहरादून जिले के कालसी ब्लॉक में रेड सिंधी और साहीवाल गायों का संरक्षण और संवर्धन किया जा रहा है। यह देश का पहला ऐसा फार्म है जहां गायों जहां विप्लुत होने की कगार पर लाल सिंधी गाय का संरक्षण किया जा रहा है।
इस केंद्र के फार्म मैनेजर डॉ. अजय पाल सिंह असवाल बताते हैं, “तापमान जिस तरह से बढ़ रहा है कहीं-कहीं पानी की कमी हो रही है, पशुओं में बहुत तरह की बीमारियां आने का खतरा बना हुआ है, ऐसे में देसी गाय गिर, साहीवाल, रेड सिंधी यह सभी गाय लाज़बाव है क्योंकि 45 से 46 डिग्री तापमान में देसी गाय खा रही हैं और दूध दे रही हैं।”
वह आगे कहते हैं, “देसी गाय जलवायु के अनुकूल होने के कारण इनमें किसी भी प्रकार की कोई बीमारी नहीं होती है। पानी की वजह से अगर उच्च गुणवत्ता का हरा चारा नहीं भी है तो भी यह पशु बहुत अच्छी तरह से रह सकता है और दुग्ध उत्पादन कर सकते हैं।”
भारत में पाई जाने वाली देसी गाय गिर, साहीवाल, थारपारकर समेत कई नस्लें बहुत कम देखरेख और विपरित वातावरण में भी बेहतर दूध देती हैं। लेकिन एक दौर में सरकार ने इन्हें तवज्जों न देकर विदेशी नस्ल की गायों को तवज्जो दिया, जिनमें से ज्यादातर यहां सफल नहीं हो पाईं और देसी गायों की नस्लें भी संकर होकर बिगड़ती गईं। आज हमारे देश की देसी गाय विदेशों में अच्छा दूध उत्पादन कर रही हैं।
देसी गायों से ब्राजील में उत्पादन दोगुना
हाल में ब्राजील से लौटे डॉ. अजय अपने अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं, “कुछ देशों में हमारी ही देसी नस्ल को 50 साल पहले लेकर गए और उनके देश का दुग्ध उत्पादन आज दोगुना तिगुना है। जैसे कि मैं ब्राजील का उदाहरण देता हूं। हमारे देश से ज्यादा उनके पास पशुधन है, 210 मिलियन गोंवश की संख्या है जिसमें से 85 प्रतिशत गोवंश हिंदुस्तान की गाय है। उनके गिर गाय 20 से 24 किलो दे रही है। ब्राजील में देसी गायों के प्रति गाय दुग्ध उत्पादन क्षमता भारत देश की तुलना में दोगुनी है।”
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जल्द तैयार होंगी वैक्सीन
साहीवाल और थारपारकर नस्ल के अलावा आईवीआरआई के वैज्ञानिक दूसरी देसी गाय के नस्लों पर तापमान बढ़ने के असर का अध्ययन करेंगे। जिससे तापमान बढ़ोत्तरी के बाद कीड़ों के प्रकोप से बढ़ने वाली बीमारियों की रोकथाम में वैक्सीन तैयार की जा सके।