एक छोटी सी पहल से घोंगडी कंबल को बढ़ावा देने के साथ ही बुनकरों को मिला बेहतर आजीविका का जरिया

घोंगडी कंबल को कभी महाराष्ट्र में आदिवासी समुदायों के लिए फख्र की निशानी थी। बनावट में खुरदरे, ऊनी कंबल पिट लूम पर बुने जाते हैं और फिर इन कंबलों को जैविक और प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है। इस पारंपरिक दस्तकारी को जिंदा करने और बुनकरों की आजीविका को बढ़ाने के लिए एक पहल की जा रही है।
Maharastra

महाराष्ट्र के सोलापुर के चिकल्थान गाँव के बालू ज़डकर, अपने इस पारंपरिक पेशे को बंद करने पर विचार कर रहे थे। जड़कर और उनके साथी अब ये देख रहे थे कि अब उनके हुनर का कदरदान कोई नहीं है, उनके कंबल लेने कोई नहीं आता है। इन कंबलों बनाने में 4 दिन लगते हैं और कंबलों को 300 से 500 रुपये में बेचा जाता है।

मशीनी करघों के आने से, इन हाथ से बुने हुए कंबलों का महत्व खत्म हो रहा था। बालू ने गाँव कनेक्शन को बताया, “उत्पादन की रफ्तार और लागत के मामले में मशीन से बुने हुए कंबलों के साथ मुकाबला करना बहुत मुश्किल है।”

लेकिन, इन पारंपरिक बुनकरों को पुणे के मैकेनिकल इंजीनियर नीरज बोराटे वरदान की शक्ल में मिले, जिन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर, इन ग्रामीण कारीगरों से जुड़ने के लिए एक कम्युनिटी आउटरीच प्रोजेक्ट शुरू किया।

घोंगडी कंबल को कभी महाराष्ट्र में आदिवासी समुदायों के लिए फख्र की निशानी थी और जड़कर जैसे कारीगरों को बुनने का हुनर विरासत में मिला है।

2016 में, बोराटे ने पारंपरिक कंबल दस्तकारी को जिंदा करने, उन्हें बनाने वाले बुनकरों की गरिमा को बहाल करने और न सिर्फ उनके लिए बल्कि उनकी आने वाली नस्लों के लिए अवसर पैदा करने के लिए एक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म – घोंगडी डॉट कॉम की स्थापना की।

पिछले पांच वर्षों में, ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ने दस्तकारों के लिए स्थायी अवसर पैदा किए हैं और अपने उद्यम के हिस्से की शक्ल में 1,700 से अधिक महिला कारीगरों को प्रशिक्षित भी किया है।

इस ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ने शुरुआत 5 हजार रुपये से की। आज इस प्लेटफार्म ने 5 लाख रुपये प्रति माह बिक्री के लक्ष्य को हासिल कर लिया है। महाराष्ट्र के घोंगडी कंबल के अलावा, ये ई-कॉमर्स प्लेटफार्म कर्नाटक के कांबली और आंध्र और तेलंगाना के अन्य कंबल बुनाई परंपराओं की भी मदद कर रहा है। इन राज्यों में लगभग 5 सौ पारंपरिक कंबल बुनकर हैं जो Ghongadi.com से जुड़े हैं।

बोराटे ने गाँव कनेक्शन को बताया, “भारत में लाखों कारीगर हैं जिनकी स्वदेशी कला और पारंपरिक दस्तकारी मर रही है। अपर्याप्त बाजार इको-सिस्टम की कमी के कारण इन कारीगरों की नई पीढ़ी अब इन कलाओं से दूर जा रही है।” उन्होंने बताया, “जब हमने दस्तकारी में कदम रखा, तो हमने पाया कि कुछ समस्याओं को दुरुस्त करने के लिए हस्तक्षेप की जरूरत है।”

घोंगडी कंबल

घोंगडी कंबल को कभी महाराष्ट्र में आदिवासी समुदायों के लिए फख्र की निशानी थी और जड़कर जैसे कारीगरों को बुनने का हुनर विरासत में मिला है।

बनावट में खुरदरे, ऊनी कंबल पिट लूम पर बुने जाते हैं और फिर इन कंबलों को जैविक और प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है। धनगार्ड या पारंपरिक भेड़ पालक आमतौर पर उन्हें बुनते हैं। ये कंबल मजबूत, गर्म और लंबे समय तक चलने वाले होते हैं

Ghongadi.com बाजार की मांग के हिसाब से डिजाइन तैयार करता है और बुनकरों को बनाने का आदेश देता है। बुनकरों को एक कंबल का 5 सौ से लेकर 1 हजार रुपये तक मिलता है। बुनकरों को डिजाइन और साइज के हिसाब से एक कंबल को तैयार करने में सात से आठ सौ किलो तक ऊन की जरूरत होती है।

बुनकरों को डिजाइन और साइज के हिसाब से एक कंबल को तैयार करने में सात से आठ सौ किलो तक ऊन की जरूरत होती है।

ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म इन कंबलों को 15 सौ से लेकर 3 हजार रुपये तक में बेचता है। देश भर में बेचे जाने के अलावा इन पारंपरिक कंबलों को हाल ही में ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दुबई और संयुक्त राज्य अमेरिका भेजा गया है।

कमाई में बढ़ोतरी

जड़कर जैसे बुनकर, जो अपना पुश्तैनी पेशा छोड़ने की कगार पर थे, उन्होंने अपनी दस्तकारी छोड़ने और और बुनाई को जारी रखने का ख्याल छोड़ दिया था। ज़काडे बताते हैं, घोंगडी डॉट कॉम ने उन्हें यकीन दिलाया कि उनके जरिए बुने गए सभी कंबल प्लेटफॉर्म खरीदेगा और उनकी गुणवत्ता के आधार पर उन्हें प्रति कंबल 1,000 रुपये तक का भुगतान किया जाएगा।

इसी तरह, कोल्हापुर जिले के वलनूर गांव के घोंगडी कारीगर अनिल हजारे भी 2019 से घोंगडी डॉट कॉम के साथ अपने जुड़ाव से खुश हैं। वह हाथ से बुने हुए कंबलों के माध्यम से प्रति माह लगभग 20,000 रुपये कमाते हैं। हजारे ने खुशी से कहा, “हमारे लिए अपने उत्पादों का बेचना काफी मुश्किल था। हम मुश्किल से 7,000 रुपये प्रति माह कमा पाते। अब इस ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की वजह से हम किसी भी राज्य में अपना उत्पाद बेच सकते हैं।”

बोराटे ने कहा, “मेरे कार्य क्षेत्र में मुख्य रूप से महिलाओं का वर्चस्व है और कभी-कभी इससे ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न हितधारकों के साथ विश्वास बनाने में कठिनाई होती है।” जबकि यह एक निरंतर चुनौती थी, बोराटे ने कहा कि उनके लिए कारीगरों के विश्वास को बनाए रखने और उनकी हर संभव मदद करने से ज्यादा पवित्र कुछ नहीं था।

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