गोबर, नीम, लहसुन प्याज से जैविक कीटनाशक बनाकर सफल उद्यमी बन गईं हैं इस गाँव की महिलाएँ

उत्तर प्रदेश के बहराइच में 22 महिलाएँ जैव उर्वरक, जैवनाशी (बायो पेस्टीसाइड) और जैव कीटनाशक तैयार करने के लिए स्थानीय रूप से मौजूद चीजों का इस्तेमाल कर रही है। अपने इन उत्पादों को पैक करके वे जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए किसानों तक पहुँचाती हैं।
#Biofertiliser

बहराइच, उत्तर प्रदेश। निबिया बेगमपुर उत्तर प्रदेश के सैकड़ों दूसरे गाँवों की तरह है; लेकिन पिछले एक साल में कुछ ऐसा हुआ है जिसने इसे बाकी गाँवों से अलग कर दिया है।

राज्य की राजधानी लखनऊ से लगभग सौ किलोमीटर दूर बसे इस गाँव में एक केंद्र है, जहाँ ग्रामीण महिलाएँ जैव उर्वरक, जैव कीटनाशक और जैवनाशी तैयार करती हैं, उन्हें पैक करती हैं और बिक्री के लिए किसानों तक पहुँचाती हैं। इन्हें बनाने के लिए कच्चे माल के लिए उन्हें परेशान नहीं होना पड़ता है। ये सब उन्हें अपने आसपास ही मिल जाता है, जैसे गाय का गोबर, नीम की पत्तियाँ और कई तरह के औषधीय पौधे।

जैव उर्वरक को जहाँ मिट्टी की संजीवनी कहा जाता है, वहीं जैवनाशी को पौध रक्षक कहते हैं, जबकि जैव कीटनाशक को हम बतौर जीजीओसी पेस्ट (अदरक, लहसुन, प्याज और मिर्च का पेस्ट) के नाम से जानते हैं।

इस नए उद्यम के पीछे जिस संगठन की मेहनत है, वह ‘उन्नति जैविक इकाई’ है। दरअसल ये 22 महिलाओं का एक स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) है, जिसने बहराइच जिले में दो ऐसे केंद्र स्थापित किए हैं, जिन्हें बायो-इनपुट रिसोर्स सेंटर (बीआरसी) के रूप में जाना जाता है।

बहराइच के रिसिया ब्लॉक में स्थित निबिया बेगमपुर के अलावा दूसरा बीआरसी यहाँ से 18 किलोमीटर दूर चित्तौरा ब्लॉक के बिछला गाँव में स्थित है।

निबिया बेगमपुर की 42 साल की एसएचजी सदस्य राम प्यारी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मृदा संजीवनी के नाम वाले इस जैव उर्वरक को हम स्थानीय स्तर पर किसानों को बेच रहे हैं; यह सिर्फ एक शुरुआत है , इसके जरिए समूह से जुड़ी 22 महिलाएँ तकरीबन हर महीने 1,500 रुपये कमा लेती हैं; उम्मीद है आने वाले समय में हमारी कमाई बढ़ जाएगी।”

राम प्यारी अपने गाँव की पहली महिला थीं, जो अप्रैल 2022 में मध्य प्रदेश के इंदौर में एक जैविक खेती परामर्श फर्म ‘अभिनव एएचआरडीओ’ के दौरे पर गईं। इस फर्म ने 500 से ज़्यादा गाँवों में एक लाख से अधिक किसानों के साथ काम किया है।

उन्हें वहाँ यह देखने के लिए बुलाया गया था कि गाय के गोबर से जैव उर्वरक कैसे बनाए जाते हैं। जो कुछ सीखा था, उसे अन्य महिलाओं के साथ साझा करने के लिए फिर वह अपने गाँव लौट आईं।

अभिनव एएचआरडीओ के दो संस्थापक रवि केलकर और अजीत केलकर ने भी महिलाओं की मदद करने और उन्हें अपने नए उद्यम के साथ जोड़ते हुए तकनीकी जानकारी देने के लिए गाँवों का दौरा किया।

महिलाओं ने गाय के गोबर से जैव उर्वरक और जैव कीटनाशक बनाने की प्रक्रिया सीखी और पिछले एक साल से वे अपने उत्पादों को स्थानीय किसानों को बेच रही हैं।

बेगमपुर बीआरसी 3,000 किसानों को सीधे अपने बनाए सामान दे रहा है। जिले के दूसरे 3,000 किसानों को ये जैविक सामान (उत्पाद) बिछला की दूसरी बीआरसी इकाई से मिलते हैं।

निबिया बेगमपुर गाँव के नरेंद्र कुमार उनके उत्पादों को इस्तेमाल में लाने वाले पहले किसान थे। बाद में इलाके के 50 अन्य किसान भी इस राह पर चल निकले। उन्होंने बताया कि पहले जहाँ उनके दो एकड़ के खेत में जैव उर्वरकों से ज़मीन पर दो से ढाई क्विंटल चावल की पैदावार हो पाती थी, अब पाँच क्विंटल चावल की पैदावार हो रही है।

लगभग 15 महीनों में, दोनों इकाइयों ने मिलकर किसानों को 3,30,000 रुपये के जैव उर्वरक, जैवनाशी और जैव कीटनाशक बेचे हैं।

कच्चा माल घर पर ही मौजूद

बिचला गाँव के एसएचजी के सदस्यों में से एक सुमन देवी ने जैव उर्वरक मृदा सँजीवनी बनाने की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए कहा कि उन्हें इसके लिए सिर्फ गाय और उसके गोबर की ज़रूरत होती है।

उर्वरक बनाने के लिए भैंस के गोबर का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, क्योंकि यह गाय के गोबर की तरह मिट्टी के लिए उपजाऊ नहीं है।

देवी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “समूह से जुड़ी हर महिला के घर के ठीक बगल में एक छोटा आयताकार गड्ढा है, जिसमें लगभग 60 किलो गाय का गोबर इकट्ठा किया जा सकता है। गोबर को 200 ग्राम अँडे के छिलके या चूने, 200 ग्राम रेत और बायोडायनामिक प्रिपरेशन के दो सेट के साथ मिलाया जाता है।”

बायोडायनामिक प्रिपरेशन जैविक उत्पाद हैं, जिन्हें मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए उसमें मिलाया जाता है।

इसके बाद मिश्रण को तीन महीने तक सड़ने दिया जाता है और फिर इसे सुखाया जाता है। अब यह खाद बनकर मिट्टी में मिलाने के लिए तैयार है।

देवी ने कहा, “लगभग 60 किलो गाय के गोबर से 25 किलो खाद बनकर तैयार हो जाती है।”

‘पौध रक्षक’ बायोपेस्टिसाइड

महिलाएँ बायोपेस्टिसाइड ‘पौध रक्षक’ भी बनाती हैं। इसे किसानों को 99 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से बेचा जाता है। जैवनाशी दो तरह के होते हैं। एक बीज अर्क से तैयार होते हैं, तो दूसरी तरह के बायोपेस्टिसाइड के लिए पत्ती के अर्क का इस्तेमाल किया जाता है।

बीज अर्क बायोपेस्टिसाइड तीन किलोग्राम नीम के बीज, दो किलोग्राम करँज के बीज और दो किलोग्राम महुआ के बीज को पीसकर और मिलाकर बनाया जाता है।

बीजों के इस पाउडर को पाँच लीटर गौमूत्र और 20 लीटर पानी में भिगोया जाता है।

आगा खान फाउँडेशन के एक प्रवक्ता ने बताया, “मिश्रण को अगले 20 से 25 दिनों तक रोज़ाना दो बार हिलाया जाता है। इसके बाद इसे छानकर लगभग छह महीने तक सँग्रहीत किया जा सकता है।” इस फाउँडेशन ने दो बीआरसी इकाइयों की स्थापना के लिए 14,00,000 रुपये की वित्तीय सहायता दी है।

500 मिलीलीटर बायोपेस्टीसाइड के एक पैकेट को 16 लीटर पानी में मिलाकर एक एकड़ ज़मीन पर उगी फसल पर स्प्रे किया जा सकता है। थ्रिप्स, सकर्स, लाल मकड़ियों, कैटरपिलर और फँगस जैसे बीमारियों से निजात पाने का एक यह बेहतर तरीका है।

पत्तियों से बने बायो पेस्टीसाइड को नीम, करंज, धतूरा, मदार, निर्गुणी, रतनजोत और बेशरम की पत्तियों से बनाया जाता है।

सबसे पहले इन पत्तियों को गोमूत्र में भिगोते हैं फिर 500 ग्राम महुआ फल और 12 लीटर पानी के साथ इसे मिलाया जाता है।

जैव कीटनाशक ‘जीजीओसी पेस्ट’

जैव कीटनाशक को जीजीओसी पेस्ट भी कहते हैं और इसे अदरक, लहसुन, प्याज और मिर्च से तैयार किया जाता है।

महिलाएँ एक किलो हरी मिर्च या आधा किलो लाल मिर्च, 500 ग्राम अदरक, 500 ग्राम प्याज और 500 ग्राम लहसुन का पेस्ट बनाकर उसमें करीब आठ लीटर पानी मिलाती हैं। मिश्रण को छानने से पहले 12 घँटे के लिए गर्म पानी में भिगोया जाता है। इस तरह से तैयार किए गए जैव कीटनाशक से एक एकड़ ज़मीन की फसल पर लगे कीड़ों से छुटकारा पाया जा सकता है। इसे तीन महीने तक इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन उसके बाद यह खराब होने लगता है।

आगा खान फाउंडेशन के प्रवक्ता ने बताया कि कंपाउंड पेस्ट और रोग नियंत्रण नामक एक अन्य उत्पाद पत्ती के अर्क, बीज के अर्क और जीजीओसी पेस्ट को 4:2:2 के अनुपात में मिलाकर बनाया जा सकता है।

एक एकड़ ज़मीन पर उगी फसल को कीटों, बीमारियों और कीड़ों से बचाने के लिए यह काफी है।

ग्रामीण महिलाओं को आय, तो किसानों को बेहतर पैदावार

निबिया बेगमपुर और बिछला गाँवों के किसानों के लिए ‘उन्नति जैविक इकाई’ द्वारा बनाए गए उत्पादों का इस्तेमाल करना एक बेहतर अनुभव रहा है। इससे उन्हें खुद से कीटनाशक बनाने, या दूर से खरीद कर लाने में लगने वाले समय की बचत होती है।

उन्नत सिंचाई सोलर विकास समिति के अध्यक्ष अजहर हुसैन ने गाँव कनेक्शन को बताया, “अब ज़मीन पर कीट कम हैं और मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार हो रहा है।” हुसैन छोटी जोत (1 एकड़ से कम) वाले 70 किसानों के एक समूह का नेतृत्व करते हैं, जो बहराइच में सौर ऊर्जा से सिंचाई करने के लिए एक साथ आए हैं।

किसान जैव उर्वरक 99 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से खरीदते हैं। हालाँकि, उर्वरक वापस पाने के लिए अपने खुद के कँटेनर साथ लाने वाले किसानों को छूट भी दी जाती हैं। इससे प्लास्टिक (कंटेनर) का इस्तेमाल कम हो जाता है। ऐसे किसानों को महिलाएँ 60 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से जैव उर्वरक बेचती हैं।

यह उद्यम मुन्नका देवी के लिए एक वरदान साबित हुआ है। 55 साल की देवी ने 10 साल पहले अपने पति को खो दिया था और कुछ साल बाद उनके इकलौते बेटे की भी मौत हो गई। उन्हें अपनी 28 वर्षीय बहू सुघरी देवी और अपने दो पोते-पोतियों का पेट भरने के लिए भीख तक माँगनी पड़ी थी।

स्वयं सहायता समूह की नेता राम प्यारी ने कहा, “एसएचजी और गाँव वालों की मदद से उन्हें गाय का गोबर मिल जाता है; अब हम कुछ पैसे कमा पाते हैं और सम्मान की ज़िंदगी जी रहे हैं। ” बतौर एसएचजी सदस्य मुनक्का देवी और उनकी बहू दोनों ने जैव उर्वरक बनाना सीखा था।

इन दोनों केंद्रों के और भी बहुत से फायदे हैं। जब कार्बनिक पदार्थ का इस्तेमाल जैव कीटनाशकों, जैव उर्वरक और जैव नाशी के उत्पादन के लिए किया जाता है, तो यह मीथेन का उत्पादन करता है जिसे आमतौर पर बायोगैस के रूप में जाना जाता है।

स्वयं सहायता समूह की महिलाएँ खाना पकाने के लिए इसी बायोगैस का इस्तेमाल कर रही हैं। बायो-गैस को कंटेनरों में जमा कर लिया जाता है जो पाइप के जरिए डिकँपोजिस पिट्स से जुड़े होते हैं। ये पाइप उस गैस को उनकी रसोई तक ले जाते हैं। जलाऊ लकड़ी या गाय के गोबर के उपलों के बजाय अब ये महिलाएँ इसी गैस पर खाना बनाती हैं। यह न सिर्फ वायु प्रदूषण को कम करता है बल्कि टिकाऊ ऊर्जा तरीकों को अपनाने में भी योगदान दे रहा है।

निबिया बेगमपुर गाँव में 10 घर ऐसे हैं जिन्होंने खाना पकाने के लिए बायोगैस इकाइयाँ भी स्थापित की हैं। यह एक ऐसी सुविधा है जिसकी वजह से खाना बनाते समय न तो धुएँ से जूझना पड़ता है और न हीं इसके लिए पैसे ख़र्च करने पड़ते हैं। बायो गैस इकाई के लिए बस थोड़ी सी ज़मीन चाहिए।

राम प्यारी ने कहा, “अगर हम जैव उर्वरक बना सकते हैं, तो हम बायोगैस इकाई का प्रबंधन भी आसानी से कर सकते हैं।”

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