‘मैं हूँ पोस्ट वुमन, ई-मेल के ज़माने में चिट्ठियाँ बाँटती हूँ’

बिजय लक्ष्मी जब गाँवों में चिट्ठी लेकर पहुँचती हैं तो हर कोई हैरान हो जाता कि एक महिला डाकिया? लेकिन अब तो लोगों की आदत हो गई है, बिजय से मिलकर आप भी कहेंगे हैं- 'सुपर-वुमन का तो पता नहीं मगर पोस्ट-वुमन ज़रूर होती हैं'
post woman

दोपहर के करीब तीन बजे सिअरिया गाँव में गली के आखिरी छोर पर चर्तुभुज राउल के घर के दरवाजे पर दस्तक होती है, जैसे ही उनकी बेटी अनुजा दरवाजा खोलती है तो सामने कंधे पर बैग टाँगे और हाथों में रजिस्टर लिए खड़ी महिला कहती है- “दीदी आपकी चिट्ठी”, अनुजा हैरान होकर कहती है, “पहले तो दूसरे भाईना आते थे”।

ये हैं ओडिशा के ढेकानाल जिले के खूंटी गाँव की पोस्ट वुमन बिजय लक्ष्मी, शुरूआत में जिन्हें देखकर हर कोई हैरान हो जाता था, अरे एक महिला चिट्ठी लेकर आयी है। लेकिन समय के साथ भाई-बहन, चाचा-चाची की चिट्ठियाँ तो कम हो गईं, लेकिन सरकारी चिट्ठियाँ होती हैं।

24 साल की बिजय हँसते हुए कहती हैं, “आजकल तो चिट्ठियाँ आने भी कम हो गई हैं, बस सरकारी कागज़ या जॉइनिंग लेटर आते हैं।”

लेकिन पोस्ट वुमन बनने का सफर विजय के लिए थोड़ा मुश्किल भरा रहा, पढ़ाई कर रहीं थीं तभी उनके पिता की मौत हो गई तो घर की जिम्मेदारियाँ उन्हीं के ऊपर आ गई, लेकिन बिजय कहाँ रुकने वालों में थीं।

बिजय हमेशा से सरकारी नौकरी करना चाहती थीं, और इसी के लिए कड़ी मेहनत करती रहीं। वे कहती हैं, “शादी से पहले मैं रोज़ सुबह 4 बजे उठकर पढ़ाई करती थी, फिर सुबह 6 बजे से बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी। 8 बजे तक ट्यूशन खत्म कर कॉलेज के लिए निकल जाती।”

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अपने घर की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए बिजय बच्चों को भी पढ़ाती रहीं। पिता की किराने की दुकान बंद हो गई थी, और परिवार की महिलाएँ बाहर जाकर काम नहीं करती थीं। बिजय ने इन सामाजिक बेड़ियों को तोड़ा और अपने सपनों की ओर बढ़ीं। इस बीच, उन्होंने अपने छोटे भाई की पढ़ाई का खर्चा भी संभाला और परिवार का साथ हमेशा उनके साथ रहा।

ग्रेजुएशन के दौरान वे सुबह और शाम ट्यूशन पढ़ाती थीं। सुबह 6 से 8 बजे तक बच्चों को पढ़ातीं और फिर कॉलेज निकल जातीं, जो उनके घर से 24 किलोमीटर दूर था। “कई बार शाम को पढ़ाते-पढ़ाते जब बच्चे चले जाते, तब खुद को पढ़ने का समय मिलता, ”वे याद करते हुए कहती हैं।

बिजय बताती हैं कि उनकी माँ हमेशा उनका साथ देती थीं, उनके लिए खाना बनाकर तैयार रखती थीं। इस तरह पोस्टल जॉब के लिए तैयारी करते हुए बिजय ने आवेदन किया, और 2019 में उनका चयन पोस्टवुमन के रूप में हुआ। उनका सपना तो हमेशा शिक्षक बनने का था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी नौकरी के साथ पढ़ाई भी जारी रखी।

पोस्टल सेवा में काम करते हुए उन्हें पाँच साल हो गए हैं, और पिछले साल उनकी शादी भी हो गई है। शादी के बाद पढ़ाई, नौकरी और घर सँभालना मुश्किल होता गया, पर बिजय समय निकालकर अपनी तैयारी करती रहती हैं।

जब पहली बार उन्हें गाँव में चिट्ठियाँ बाँटने के लिए भेजा गया, तो मन में कई सवाल उठे—लोग क्या सोचेंगे? उनकी प्रतिक्रिया कैसी होगी? लेकिन अब, समय के साथ ये सब सामान्य हो गया है।

बिजय बताती हैं, “अपनी स्कूटी पर चिट्ठियों की गठरी लेकर गाँव की गलियों में जाते हुए पहले डर लगता था। पेड़ के नीचे हेलमेट उतारकर चिट्ठियाँ छाँटती कि किस गाँव में कितने घरों में पहुँचाना है।” “पहली बार दरवाजा खटखटाते समय दिल में घबराहट थी कि क्या होगा, लोग क्या कहेंगे। पर अब, दिन बीतते-बीतते सब सामान्य हो गया है, ”बिजय ने आगे कहा।

धूप, बारिश, सर्दी में भी काम जारी रहता है। बिजय कहती हैं, “बरसात के दिनों में भी चिट्ठियाँ बाँटती हूँ, लोग मना कर देते हैं, कहते हैं कि वापस आ जाओ। लेकिन मैं खड़ी रहती हूँ, भले भीगती रहूँ।”

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