महात्मा गांधी ने क्यों कहा था ‘भारत ना बांटो भले जिन्ना को प्रधानमंत्री बना दो’

भारत के बंटवारे का एक ही आधार समझ में आता है और वह है कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना की जिद और उनकी शर्तें जिनके सामने भारत के बड़े-बड़े नेता झुक गए और वह सब कुछ मान लिया जो जिन्ना चाहते थे। कहने में संकोच नहीं होता कि बंटवारे के समय यदि वल्लभ भाई पटेल प्रधानमंत्री होते तो रेडक्लिफ की बनाई गई लकीर भिन्न होती और भारत का भाग्य 70 साल तक अजीबो गरीब हालात में नहीं रहता।

देश के विभाजन का आधार समझना जरूरी है जब पंडित जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना और माउंटबेटन ने शिमला में बैठकर देश विभाजन पर हस्ताक्षर किए तो उसका मसौदा क्या था? और उनके बीच में आखिर समझौता क्या हुआ था? यह स्कूल कॉलेज में बताया जाना चाहिए। यदि हम मोहम्मद अली जिन्ना की मांग को ध्यान में रखें तो उनका कहना था कि भारत भूमि का मुस्लिम आबादी के अनुपात में पाकिस्तान को दिया जाए शायद ऐसा हुआ भी होगा, लेकिन जितने थोड़े से लोग पाकिस्तान गए उससे कहीं ज्यादा लोग भारत में रह गए। यही कारण है कि जब पाकिस्तान से रिफ्यूजी बहुत बड़ी संख्या में आ रहे थे, तो वल्लभ भाई पटेल ने कहा था यदि इसी तरह रिफ्यूजी आते रहे तो उन्हें बसाने के लिए पाकिस्तान की ज़मीन का हिस्सा मांगें, जहाँ तक देश के विभाजन का सवाल है, महात्मा गांधी तो यह कहते थे कि भारत का विभाजन उनकी छाती पर होगा और जब विभाजन के डॉक्यूमेंट पर तीन लोग हस्ताक्षर कर रहे थे तो गांधी जी शिमला में मौजूद थे और उन्होंने ना तो भाग लिया ना शायद उन्हें बुलाया ही गया होगा।

इसके विपरीत विनायक दामोदर सावरकर का सोचना था कि देश का विभाजन तो हो, लेकिन हिंदू और मुस्लिम आबादी की अदला बदली पूरी तरह हो जाए। सही कहूं तो यह मुश्किल काम था, मगर विभाजन के सिद्धांत का यही मन्तव्य था। इन सबसे अलग संघ परिवार और शायद डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी अखण्ड भारत के पक्षधर थे और विभाजन नहीं चाहते थे फिर भी विभाजन हुआ और उसका क्या आधार था? यह शायद ही किसी को पता हो। हो सकता है कुछ बातें मौलाना अबुल कलाम आजाद को पता रही हों, क्या इसीलिए उन्होंने अपनी पुस्तक इंडिया विंस फ्रीडम के 30 पेज उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित होने की इच्छा जाहिर की थी जब उनके देहांत के 30 वर्ष बीत जाए। विभाजन के आधार को खोजें तो एक स्रोत फ्रीडम एट मिडनाइट है जिसे ‘’पियर एलियट एंड कॉलिन्स’’ ने लिखा है और उस समय के घटनाक्रम को विस्तार से बताया भी है ।

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इस प्रकार विचार करें तो महात्मा गांधी बंटवारे के लिए जिम्मेदार नहीं है और देखा जाए तो संघ परिवार को भी इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि वह तो सदैव अखण्ड भारत की बात करते रहे। जहाँ तक मौलाना आजाद का सवाल है वह भी विभाजन के खिलाफ थे और उन्होंने जिन्ना को समझाया था कि मुस्लिम समाज दो देशों में बट जाएगा और कमजोर हो जाएगा। इस प्रकार यदि देखें तो अखण्ड भारत की कल्पना के अनुरूप यह नहीं है बल्कि मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए अविभाजित मुस्लिम समाज हितकर होता। ऐसी कुछ बातें मौलाना आजाद ने अपनी पुस्तक इंडिया विंस फ्रीडम में लिखी भी है। तब विभाजन के लिए जिम्मेदार कौन है सांप्रदायिक हम किसे कहें और विभाजन कैसे रुक सकता था यह विचारणीय प्रश्न है। गांधी जी ने अंतिम उपाय के रूप में सुझाया था कि अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री मोहम्मद अली जिन्ना को बना दिया जाए और गांधीजी शायद इसके लिए सबको मना लेते शिवाय नेहरू जी के। हुआ भी यही वल्लभभाई पटेल तक मानने को तैयार थे मोहम्मद अली जिन्ना तो खुशी-खुशी अविभाजित भारत का प्रधानमंत्री बनना स्वीकार करते, लेकिन नेहरू जी ने साफ मना कर दिया और विभाजन रोकने का गांधी जी का अंतिम प्रयास भी फेल हो गया।

अभी कुछ समय पहले जब आडवाणी जी ने यह कह दिया की मोहम्मद अली जिन्ना सेकुलर थे या सांप्रदायिक नहीं थे तो संघ परिवार के वर्ग के छत्ते पर मानो कंकड़ी मार दी, उन्होंने और सब लोग उनसे नाराज हो गए। लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि मोहम्मद अली जिन्ना जब इंग्लैंड में थे बैरिस्टर थे और समय-समय पर भारत की राजनीति पर विचार व्यक्त करते थे, तो कहीं दूर- दूर तक वह सांप्रदायिक विचार नहीं होते थे। भारत आने के बाद एक तो गांधी जी के रामधुन और राम राज्य की कल्पना से जिन्ना प्रभावित नहीं हुए और उन्हें लगा कि गांधी जी का रास्ता सेकुलर रास्ता नहीं है। नेहरू जी के साथ कोई सैद्धांतिक मतभेद जिन्ना का नहीं होना चाहिए था, लेकिन शायद उन्हीं के कारण जिन्ना विदक गए और मुस्लिम लीग की सदस्यता स्वीकार कर ली उसका नेतृत्व कबूल कर लिया और नतीजा हमारे सामने है।

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हम इतना कह सकते हैं कि हिंदू महासभा के प्रमुख विनायक दामोदर सावरकर विभाजन के पक्ष में थे लेकिन उनका विभाजन ऐसा नहीं होता यदि उनकी चलती तो। सावरकर जी का सोचना था कि यदि विभाजन होता ही है तो आबादी की अदला- बदली पूरी तरह होनी चाहिए और जब आबादी के अनुपात में धरती का बंटवारा हो रहा है, तो जो हिस्सा मुस्लिम समाज के निमित्त है वह उन्हें और जो हिंदू समाज के लिए है वह उन्हें मिलना चाहिए। यह बात जो सामने आई और जब वास्तव में विभाजन हुआ तब इस बात पर फैसला हुआ कि जिन इलाकों में मुस्लिम आबादी का बहुमत है वहाँ पाकिस्तान और जहाँ हिंदुओं का बहुमत है वहाँ हिंदुस्तान बने। यह इतिहासकारों पर छोड़ना होगा कि यह विचार किसका था शायद जिन्ना का नहीं था। जिन्ना आबादी के अनुपात में पाकिस्तान चाहते थे मुस्लिम आबादी के अनुपात में लगभग उन्हें पाकिस्तान मिला भी, मैंने वेब्स्टर डिक्शनरी में आबादी और क्षेत्रफल दोनों देशों का देखने की कोशिश की तो यही नतीजा निकला की हाँ जिन्ना की इच्छा लगभग पूरी हो गई लेकिन हिंदुओं का क्या हुआ? हिंदुओं को अपने हिस्से में इंडोनेशिया के बाद सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी को बसाना पड़ा, यह कैसा विभाजन था और यह किसका विचार था? कि जो नहीं जाना चाहते वह न जाए और जो जाना चाहते वह जाएं।

नेहरू और लियाकत अली के बीच जो समझौता हुआ उसकी शब्दावली तो मैं नहीं जानता लेकिन इससे पूर्वी पाकिस्तान के हिंदुओं का कुछ भी भला नहीं हुआ। कुछ लोगों का मानना है कि मुस्लिम बहुल इलाके पाकिस्तान को दिए गए और हिंदू बहुल इलाके भारत में रहे, लेकिन यह बात ठीक नहीं प्रतीत होती है। यदि ऐसा होता तो कश्मीर पाकिस्तान को गया होता और जम्मू भारत में रहा होता शायद हैदराबाद भी इसी तरह या इसी आधार पर पाकिस्तान को निजाम देना चाहता था। इसलिए बंटवारे का यह आधार नहीं है और बंटवारे का सही आधार तो नेहरू और जिन्ना ही बता पाएंगे जो अब बताने के लिए हमारे बीच में नही हैं। इसलिए लगता है भारत का बटवारा मोटे तौर पर आबादी के अनुपात में माना गया होगा और ऐसा लगता भी है, लेकिन यदि ऐसा है तब भारत को इस बंटवारे में बहुत बड़ा घाटा हुआ। विचार करने का विषय यह भी है कि विभाजन के बाद भारत में क्या बदला और पाकिस्तान में क्या बदला? भारत में कुछ बदल ही नहीं सका क्योंकि जो तर्क विभाजन के पक्ष में जिन्ना लियाकत अली और सोहरावर्दी दिया करते थे, वह तो आज भी लागू होते हैं; विभाजन के पक्ष में मोहम्मद अली जिन्ना का एक तर्क यह भी था कि हिंदू मेजॉरिटी के साथ मुस्लिम माइनॉरिटी नहीं रह सकती और वह माइनॉरिटी तो आज भी है।

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सही माने में भारत इंडोनेशिया के बाद सबसे बड़ा मुस्लिम देश है फिर भी यहाँ हिन्दुओं के लिए हिन्दू कोड बिल और मुस्लिमों के लिए शरिया कानून चलते रहे और चल रहे हैं यह नेहरू जी की सोच के अनुसार था। शायद होना यह चाहिए था कि सेकुलर प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के द्वारा इंडियन कोड बिल बनाया जाता, लेकिन पता नहीं क्यों उन्होंने जीवन भर सेकुलर की बात किया लेकिन 1954 में सेकुलर का सिद्धांत किनारे रख दिया।

महत्वपूर्ण यह भी है कि जब पंजाब का बंटवारा हुआ और बंगाल का बंटवारा हुआ तो उसका आधार क्या था? क्या लोगों की राय मांगी गई थी? मैं समझता हूँ ऐसा कुछ नहीं हुआ था। रेडक्लिफ नाम का अंग्रेज सर्वेयर जो भारत के बारे में ज्यादा कुछ जानता ही नहीं था उसको जिम्मेदारी दी गयी भारत और भारतवासियों के भाग्य का फैसला करने की, आखिर किस योग्यता के आधार पर नेहरू जी ने रेडक्लिफ को इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी थी और वह भी बहुत ही कम समय में, शायद एक साल के अंदर बंटवारे की लकीर जो खींची गई उसका औचित्य क्या है? इतिहासकार बता पाएंगे।

भारत के बंटवारे का एक ही आधार समझ में आता है और वह है कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना की जिद और उनकी शर्तें जिनके सामने भारत के बड़े-बड़े नेता झुक गए और वह सब कुछ मान लिया जो जिन्ना चाहते थे। कहने में संकोच नहीं होता कि बंटवारे के समय यदि वल्लभ भाई पटेल प्रधानमंत्री होते तो रेडक्लिफ की बनाई गई लकीर भिन्न होती और भारत का भाग्य 70 साल तक अजीबो गरीब हालात में नहीं रहता। यहाँ तक कि संविधान निर्माता की इच्छा पर भी कोई गौर नहीं किया गया तब कैसा विभाजन, कैसा भारतीय संविधान और कैसे भारतीयों के हितों की रक्षा के उपाय यह इतिहासकार ही बता पाएंगे, लेकिन इतना जरूर है कि आज की तारीख में यह विषय बहुत ही प्रासंगिक है।

स्कूल कॉलेज में विस्तार से पढ़ाया जाना चाहिए, इतिहास का अंग होना चाहिए और आज के बहुत से मुस्लिम नेता जिन्ना और लियाकत अली की भाषा बोल रहे हैं, यह भारत के लिए बहुत ही दुखद है। हम इतिहास को बदल तो नहीं पाएंगे लेकिन जो कुछ बचा है उसे संभाल तो सकते हैं और उसमें प्रजातांत्रिक तरीके से किए गए निर्णय स्वीकार्य होने चाहिए आशा है वह दिन आएगा जब मेजॉरिटी के विचार सम्मान के नजर से देखे जाएंगे ना की पहला अधिकार माइनॉरिटी को दिया जाएगा।

देश की आजादी के बाद 60-70 साल तक जिन हालात से समाज गुजरा, जितने दंगे झेलें और खून-खराब होता रहा, इससे तो गांधी जी का यह प्रस्ताव अच्छा था कि भारत ना बांटो जिन्ना को प्रधानमंत्री बना दो, लेकिन गांधी जी के नाम पर राज करने वाले लोगों द्वारा ना तो उनका यह कहना कि ‘’भारत का बंटवारा मेरी छाती पर होगा’’ और ना ‘’भारत ना बांटो भले ही जिन्ना को प्रधानमंत्री बना दो’’ एक भी नहीं माना गया। और न मानने वालों में स्वयं नेहरू जी थे जिन्हें गांधी जी ने प्रधानमंत्री बनाया था। अब जो हुआ वह ठीक हुआ, जो हो रहा है वह भी ठीक हो रहा है और जो होगा वह भी ठीक होगा इन्ही विचारों के साथ हमें राष्ट्र निर्माण करना चाहिए।

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