जब अक्टूबर के साथ लौटती हैं बचपन की मीठी यादें  

अक्टूबर आता, तो हाथों में गोबर की खुशबू समाई होती, हम स्कूल से लौटकर बस्ता पटककर सीधे उस घर के आगे जाकर खड़े हो जाते, जहाँ गाय या भैंस बंधी होती; शाम को घर के चबूतरे की दीवार पर तरैया जो बनानी होती।

यह बात कई साल पुरानी है। अगर मैं अपनी उम्र संख्या में न बताकर ये कहूँ कि उस समय जब अठन्नी की मूँगफलियाँ मेरी नन्ही हथेलियों में समाने नहीं आती थीं, तो हम फटाक से अपनी फ्रॉक का घेर आगे कर देते थे… बात इतनी पुरानी है कि तब हमें आइसक्रीम के फ्लेवर नहीं पता होते थे, हम बस इतना जानते थे कि हमारी सॉफ्टी में ढेर सारी लाल चेरी होनी चाहिए… बात इतनी पुरानी है कि कई बार मेले में आसमानी झूला झूलते हुए ऐसा लगता था कि भगवान जी बस यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर रहते होंगे… और इतनी पुरानी कि शाम ढलते ही घर लौटने की जल्दी में दौड़ते हुए कई बार घुटने छील लिए…

सच कहें तो यह बात तब की है जब हमारे मनोरंजन का साधन त्यौहार और मेले होते थे। अगर लोगों से पूछा जाए कि उन्हें साल में कौन सा महीना सबसे अच्छा लगता है, तो वे या तो उस महीने का नाम लेते हैं, जिसमें उनका या उनके किसी खास का जन्म हुआ हो, या फिर अपने पसंदीदा मौसम के हिसाब से महीना चुन लेते हैं। पर मेरे साथ ऐसा नहीं है।

मैं हमेशा कहती हूँ कि मुझे अक्टूबर पसंद है, बेहद पसंद है, और तब से पसंद है जब मुझे न तो हिंदी में अक्टूबर लिखना आता था, न ही अंग्रेजी में “October” की स्पेलिंग याद थी। बस इतना याद था कि इन दिनों हमारे यहाँ मेला लगता है, और कन्या भोज के बाद जो सिक्के मिलते थे, वे मेले में आसमानी झूला और सॉफ्टी पर खर्च होते थे। मेरे कस्बे में मेला हमेशा अक्टूबर में ही लगता था। हो सकता है कि तारीखों में कभी बदलाव हुआ हो, लेकिन मेरे ज़हन में अक्टूबर और उसके आसपास के दिनों की खुशबू इतनी गहरी समाई हुई है कि हर बार अक्टूबर की आहट पाते ही लगता है कि मेरे हाथ टाइम मशीन लग गई हो।

हालाँकि यहाँ ऑस्ट्रेलिया में अक्टूबर गर्मी की आहट लेकर आता है, लेकिन मेरी उम्र का एक बड़ा हिस्सा उस मौसम में बीता है जब अक्टूबर आते ही घर के आँगन में कई महीनों से पसरी सूरज की तपिश धीमी पड़ जाती थी। बारिशें थमने लगतीं, और सुबहें सर्दियों की आहट लिए होतीं।

स्कूल का समय 7 से खिसककर 9 हो जाता, और हम थोड़ी देर और बिस्तर में दुबके रहते। अक्टूबर आता, तो श्राद्ध चल रहे होते। हर दिन किसी न किसी के घर से न्योता आता। पर श्राद्ध के भोजन के साथ दिक्कत यह होती थी कि खाते वक्त मेरा आधा समय तौखर (विशेष प्रकार की खीर) से चिरौंजी हटाने में चला जाता। तौखर मुझे बेहद पसंद थी, लेकिन चिरौंजी से बैर था।

इन श्राद्ध के दिनों में हमारे आसपास का आलम यह होता कि जिस भी गली से गुजरते, पकवानों की महक आती और आसमान में ढेर सारे कौवे उड़ते दिखते। सब कहते थे कि कौवे जो खाना खाते हैं, वह हमारे पूर्वजों (हमारी बड़ी अम्मा तब तक गुजर चुकी थीं) के पास पहुँचता है। इस बात को मानते हुए मैंने श्राद्ध के बाद भी मौका मिलते ही कौवे को कुछ न कुछ खिला दिया। उन्हें कभी बेवजह उड़ाया नहीं, क्योंकि हमारे लिए वे भगवान जैसे थे।

अक्टूबर आता, तो हाथों में गोबर की खुशबू समाई होती। हम स्कूल से लौटकर बस्ता पटककर सीधे उस घर के आगे जाकर खड़े हो जाते, जहाँ गाय या भैंस बंधी होती। शाम को घर के चबूतरे की दीवार पर तरैया जो बनानी होती। कुछ जगहों पर इसे साँझी भी कहते हैं। हमारे ब्रज की यह बेहद खूबसूरत परंपरा है। हमारे यहाँ इसे तरैया कहते हैं। 15 दिन श्राद्ध के होते हैं और उतने ही दिन तरैया के भी।

हम गोबर लाते, आकृतियाँ बनाते और बाबा की सिगरेट की डिब्बी से बची हुई चाँदी की पन्नी से सजाते। कभी-कभी फूलों से भी सजाते। कोशिश होती कि बाकियों से अच्छी बने, पर ऐसा कभी हुआ नहीं। एक बुआ थीं, जो सबसे सुंदर तरैया बनाती थीं। अक्टूबर आता, तो यह उम्मीद लेकर आता कि इस बार कन्या भोज के बाद हमारी खाली गुल्लक शायद भर जाए। भरे पेट में भी एक घर से दूसरे घर हम यह सोचकर दौड़ते कि शायद अठन्नी मिल जाए। पर कन्या खिलाने वाले लोग इतने निर्दयी होते, कहते “पूरा खाओ, फिर मिलेगी”। अब सोचें तो लगता है कि उस गुल्लक को सिक्कों से भरने के लिए हमने क्या-क्या नहीं किया! और करना पड़ता, क्योंकि उन्हीं सिक्कों से मेले का खर्चा निकलता।

अक्टूबर आता, तो कस्बे में मेले की आहट होने लगती। हमारे लिए यह सिर्फ दशहरे का मेला नहीं था, बल्कि ऐसा त्यौहार था जब बेटियाँ ससुराल से मायके लौट आना चाहतीं, बड़े शहरों में नौकरी करने वाले लोग घर आना चाहते, और घर की महिलाएँ मेले में सजी दुकानों का इंतजार करतीं ताकि उनके पुराने चाय के प्याले बदले जा सकें। विमान का इंतजार करते बच्चे मोहल्ले के चबूतरे गुलजार करते, और हम भी इन्हीं बच्चों की भीड़ में कहीं खड़े होकर प्रार्थनाएँ कर रहे होते।

उस वक्त हमें पक्का यकीन था कि विमान में बैठे स्वरूप ही भगवान हैं, जो हमें सब कुछ दिला सकते हैं, हर मुश्किल से बचा सकते हैं। इसलिए हम हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उन दिनों न जाने क्या-क्या माँग लेते। वो खिलौना जो मेले में पसंद आया हो लेकिन इतने पैसे न हों, वो दोस्ती जो पिछली शाम सहेली से लड़ाई के कारण टूट गई हो, वो गुलाबी फ्रॉक जो किसी दुकान पर टँगी देखी हो, वो गुल्लक जो कई दिनों से सिक्के डालने के बाद भी भरी न हो, वो गृहकार्य जो करना भूल गए हों… न जाने क्या-क्या माँगते।

तब सारी शिकायतें, सारी फरमाइशें 10-12 दिन तक उन्हीं से होतीं। और विश्वास तब और बढ़ता जब पापा रात को घर आते समय वह खिलौना ले आते या दूसरी सुबह वह रूठी सहेली पास आकर मुस्कुरा देती। मेरे वो राम-सीता सब सुनते थे, और इसलिए यह सिर्फ मेला नहीं था, यह हमारी मन्नतों का ठिकाना भी था। अक्टूबर आता, तो घर में दिवाली की भगदड़ मच जाती। हालाँकि दिवाली आने में दिन होते, पर दिवाली की सफाई के लिए हमारे घरों ने हमेशा अक्टूबर को ही चुना।

ज्यादातर घरों में अंदर पुताई चल रही होती और बाहर कूड़े का ढेर। कूड़ा जो घर की टांड (स्टोरेज एरिया) खाली करके निकाला जाता। हमें बहुत अच्छा लगता जब टांड से सामान निकलकर आँगन में बिखरता और हमें अपनी पुरानी चीजें दिखतीं। कोई खराब रेडियो, पापा की साइंस की फाइल, बुआ का कोई सुंदर दुपट्टा, या कभी मेरा ही खोया हुआ कोई खिलौना। अक्टूबर आता, तो रजाइयाँ और गर्म कपड़े निकलते, और उनके साथ घर में नेफ्थलीन बॉल्स की महक फैल जाती। हो सकता है आपके लिए वह महक खास न हो, पर हमारे लिए वह भी अक्टूबर की ही खुशबू है।

अक्टूबर आता, तो पारिजात (हरसिंगार) खिलता। वह फूल, जिसके लिए हम अपनी दोस्त के घर सुबह-सुबह दौड़ लगाते। फिर उन नन्हें तारों को जमीन से बटोरते, हथेलियों पर घिसते और उसकी खुशबू गहरी साँस लेकर महसूस करते… एक उम्र तक अक्टूबर ऐसे ही आता रहा… जब त्यौहार सिर्फ मनाए नहीं, बल्कि जी भरकर जिए। वे हमारे भीतर ठहर गए और ऐसा ठहरे कि मन के अंदर एक महकता हुआ अक्टूबर बस गया, जिसे सोचते ही मुझे हमेशा लगता है कि मरते समय भले ही नरक मिले, पर महीना अक्टूबर का ही हो।

(पूजा व्रत गुप्ता लेखिका हैं और अभी ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं)

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