गाँव, किसान और पोस्ट ऑफिस 

आखिर किसान, मजदूरों और भारतीय डाक के साथ ऐसा क्या रिश्ता है? जिसने इतनी बड़ी तादाद में डाकघरों को जिंदा रखा है। बेशक बहुत गहरा रिश्ता है, विश्वास का रिश्ता।

आज हम कुछ सेंकड में हज़ारों किमी दूर बैठे किसी अपने से वीडियो कॉल पर बात कर लेते थे; लेकिन एक दौर भी था जब गाँव की गलियों के बाहर डाकिए दिख जाते थे, लेकिन अब अगर खाकी कपड़ों में साइकिल की घंटी बजाता कोई डाकिया दिख जाता है तो बड़ी बात होती है। अब नहीं दिखते हैं डाकिए।

9 अक्टूबर को विश्व डाक दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए आम जनता में डाक उत्पादों के बारे में जागरूक के प्रसार के लिहाज से डाक विभाग 9 से 14 अक्टूबर के दौरान डाक सप्ताह मनाता रहा है। 2023 में इसमें कुछ बदलाव हुए और पाँच दिनों में आखिरी दिन 13 अक्तूबर को अंत्योदय दिवस के रूप में मनाया गया। लेकिन इस साल डाक सप्ताह की शुरुआत 7 अक्टूबर से की गयी और 11 अक्टूबर को इसका समापन वित्तीय साक्षरता दिवस के साथ हो रहा है। पहले 10 अक्टूबर बचत बैंक दिवस, 11 अक्टूबर मेल दिवस, 12 अक्टूबर डाक टिकट संग्रह दिवस, 13 अक्टूबर व्यापार दिवस तथा 14 अक्टूबर को बीमा दिवस मनाने की परंपरा रही है।

विश्व डाक दिवस पूरी दुनिया में 1969 से मनाया जाता है। 2024 का विषय देश भर में संचार को सक्षम बनाने और लोगों को सशक्त बनाने के 150 वर्ष रखा गया था। यह साल संयोग से यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन की स्थापना का 150वीं वर्षगांठ भी है। यह वैश्विक संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ के बनने के पहले 9 अक्तूबर, 1874 को स्थापित हो गयी थी।

दुनिया में अव्वल है भारत

जब डाकघरों की बात होती है तो भारत सबसे अग्रणी देश नजर आता है। पूरी दुनिया में 6.40 डाकघरों में सबसे अधिक 1,64,972 डाकघर भारत के हैं। इसमें भी 1,49,478 डाकघर ग्रामीण अंचलों में हैं, जिसमें से ग्रामीण शाखा डाकघरों की संख्या 136,762 है। उत्तर प्रदेश में अकेले 15,420 डाकघर देहात में हैं। महाराष्ट्र में 11,471, राजस्थान में 9730, तमिलनाडु में 9264, बिहार में 8227 तथा पश्चिम बंगाल में 7328 डाकघर हैं। ये ग्रामीण डाकघर ही भारतीय डाक की असली शक्ति है। इसी भरोसे पर भारतीय डाक यह नारा देता है कि ऐसी कोई जगह नहीं,जहां हमारी पहुंच नहीं। हमें चाहिए सिर्फ एक पता। देश के किसी कोने में भारतीय डाक सेवा में सक्षम है।

आखिर किसान, मजदूरों और भारतीय डाक के साथ ऐसा क्या रिश्ता है जिसने इतनी बड़ी तादाद में डाकघरों को जिंदा रखा है। बेशक बहुत गहरा रिश्ता है, विश्वास का रिश्ता। 

छोटे देहाती डाकघरों के बड़े काम

कुछ समय पहले हिमाचल प्रदेश में पालमपुर के कमलहेड डाकघर में मेरा जाना हुए, जिसके दायरे में 32 किमी के दायरे में फैले 9 गाँव आते हैं। उनकी आबादी भले पाँच हजार है पर वहाँ तक पहुंचना डेढी खीर है। फिर भी लंबा रास्ता तय करके पोस्टमैन उनको डाक सामग्री पहुंचाता है। आजकल गाँव के लोग भी काफी आनलाइन शापिंग कर रहे हैं तो काफी सामान आते रहते हैं। हिमाचल में ही बैजनाथ उप डाकघर में 50 हजार खाते हैं। 

हरियाणा में रोहतक का गढ़ी सांपला गाँव महान किसान नायक सर छोटूराम की जन्मभूमि है। गाँव का नाम उनके नाम पर हो गया है पर आम बोलचाल में पुराना नाम कायम है। करीब 3200 की आबादी वाले इस डाकघर की पोस्टमास्टर सुनीता देवी डॉक्टरेट हैं। उनके प्रयासों से गाँव में एक हजार से अधिक खाते खुले हैं और हर बालिका का सुकन्या खाता खुल गया है। आसपास कई बैंक हैं फिर भी ग्रामीणों का डाकघरों पर भरोसा है। चिट्ठियां कम हो गयीं पर किसी का चेकबुक तो किसी का आधार और किसी का पार्सल, कुछ न कुछ आता रहता है। 

असम के कामरूप जिले के धारापुर गाँव में ब्रहमपुत्र के करीब स्थित डाकघर में एक हजार खाते हैं। इस डाकघर की बागडोर महिला पोस्टमास्टर लीलावती कलिता के हाथ है। राजस्थान में टोंक जिले में देवली तहसील का पनवाड़ डाकघऱ में दस हजार से अधिक खाते हैं। करीब हर परिवार डाकघर से जुड़ा है। रोज 300 चिट्ठी औऱ दूसरी उपभोक्ता सामग्रियां आती हैं। फौजियों का इलाका होने के कारण पहले बहुत मनीआर्डर आते थे, पर अब पार्सलों की भऱमार है। आधार खाते का अपग्रेडेशन, गैस सब्सिडी, नरेगा भुगतान से लेकर तमाम काम है। यह डाकघर किसानों और खेतिहर मजदूरों के बहुत काम आ रहा है। 

उत्तर प्रदेश में बरेली जिले में धनेटा गाँव के डाकघर के दायरे में 10 गाँव हैं। खाते 2500 हैं, पर आधार कार्ड से लेकर ग्रामीण विद्युतीकरण का डाटा जुटाने जैसे कई काम इसके पास हैं। हापुड़ जिले के रसूलपुर गांव का डाकघर बहुत छोटी सी जगह से काम करने के बाद भी ग्रामीणों के काफी काम आ रहा है।

भारत के कई हिस्सों में करीब ऐसी ही तस्वीर है जो बताती है कि संचार, सूचना क्रांति या सड़क औऱ परिवहन क्रांति के बाद भी ग्रामीण इलाकों में डाकघरों की उपयोगिता कायम है। किसी न किसी कारण डाकघरों में ग्रामीणों का काम पड़ता रहता है। 

ग्रामीण भारत में डाक सेवाएँ

आधुनिक डाक व्यवस्था की स्थापना के साल 1854 में सारे देश में महज 700 और आजादी  मिलने के दौरान भी महज 23,334 डाकघर थे। अंग्रेजी राज में धीमी गति से डाकघर खुले। राजाओं की सरहद में भी नाममात्र के डाकघर खुले। 1905 तक जब भारत के मानचित्र में आज का पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा भी शामिल था, तब केवल 17,651 डाकघर खुल सके थे।

आजादी मिलने के बाद देश के पहले संचार मंत्री रफी अहमद किदवई। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के निवासी स्वाधीनता सेनानी किदवई जमीनी नेता थे। उन्होंने आम आदमी को केंद्र में रख कर संचार सुविधाओं का विस्तार करने की रणनीति बनायी। गाँव में 1949 में 3749 तथा 1950-51 में 4016 डाकघर खुले। फिर दूसरी पंचवर्षीय योजना में 22,231 और तीसरी योजना में 20,941 डाक घर  खोले गए। 1 जुलाई 1968 को डाकघरों की संख्या एक लाख हो गयी। 1984-85 तक 1,44,875 डाकघर हो गए। आजादी के बाद कितना भी दबाव रहा हो पर डाकघरों की संख्या लगातार बढी। डाकघरों का विस्तार एक सीमा तक होने के बाद उनको सुविधासंपन्न बनाने पर जोर दिया।

अनूठे भारतीय डाकघर

आजादी के पहले दुर्गम और जटिल इलाके डाक सेवा से वंचित थे, पर आज हर दो गांव पंचायत के बीच में एक डाकघर है। यहां दूरी,जनसंख्या और आय संबंधी मानदंडो की कसौटी पर डाकघर खोले जाते हैं। ग्रामीण डाकघरों के उदार मापंदड हैं। इसी कारण आदिवासी, पहाडी़ और दुर्गम देहाती इलाकों से लेकर द्वीपों में बसे गांवों में डाकघर कायम हैं। 

अतीत में डाकघरों ने अपनी व्यापक पहुंच के कारण आर्थिक विकास में ही नहीं विभिन्न क्षेत्रों में अहम भूमिका निभाई। मलेरिया रोधी उपाय, परिवार नियोजन, साक्षरता का विस्तार, चुनाव प्रणाली, लघु बचत या सैनिकों की पेंशन समेत तमाम कामों में डाकघरों ने अनूठा योगदान दिया। परंपरागत सेवाओं के साथ चुनौतियों के लिहाज से बहुउपयोगी भूमिका जारी रखने के कारण आज भी वे बचे हुए हैं।

ग्रामीण अंचलों को डाक सेवा मुहैया कराने के लिए नावों में फेरी बोट पोस्ट आफिस, मोबाइल पोस्ट आफिस, टट्टू डाकघर, पहाड़ी गाँवो के लिए खच्चरों पर डाक घर और ऊंटों पर डाकघर खोलने के साथ कई प्रयोग हुए। रफी अहमद किदवई ने जटिल भूगोल के बीच जो भी साधन सुलभ हुए डाक सेवाओं के लिए उसका उपयोग किया। उन्होंने कश्मीर की विश्वविख्यात डल झील पर एक तैरता डाकघर 1953 में खोलने का फैसला किया था जिसने दुनिया भर के सैलानियों का ध्यान अपनी ओर खींचा। हरियाणा में साइकिल डाकघर भी खुले। 

बाद में राजस्थान के दुर्गम रेगिस्तानी इलाकों की ढ़ाडिय़ां तो सेवा देने के लिए बीकानेर जिले के दुर्गम गाँवों में ऊंट डाकघर खुले। ऊंटों पर डाकघर का सारा तामझाम जुटाने साथ पर लेटरबाक्स भी लगाया था। ऊंटों ने डाक सेवा में मुगल सम्राट अकबर के जमाने से योगदान दिया पर यह कल्पना नहीं की गयी थी कि वे खुद चलते फिरते डाकघर बनेंगे। अन्य प्रयोगों के साथ ऊंट डाकघर का प्रयोग बेहद सफल रहा। अमरनाथ यात्रा के दौरान डाक सेवा प्रदान करने के लिए 1964 में टट्टू डाकघर खुला, जबकि 1976-77 में ब्रहमपुत्र के सरहदी गांवों की सेवा के लिए फेरी बोट पोस्ट आफिस खोला गया। फिर दार्जिलिंग में दुर्गम पहाड़ी गांवों को सेवित करने के लिए खच्चों पर डाकघर खुला और 1079-79 में केरल में नौकाओं पर डाकघर आरंभ हुआ।

ग्रामीण डाक सेवक

ग्रामीण समाज में पोस्टमैन या ग्रामीण डाक सेवक बेहद सम्मानित हैसियत रखता है। वेतन कम, काम का बोझ अधिक है और वह डाक तंत्र में सबसे निचले पायदान पर खड़ा है, फिर भी वही सरकार और समाज के के बीच सबसे मजबूत कड़ी है। इसके सम्मान में बहुत सी रचनाएं लिखी गयी हैं। पचास के दशक में अनिल मोहन की यह रचना काफी चर्चित रही। 

युग-युग जिओ डाकिया भैय्या

सांझ सबेरे इहै मनाइत है, हम गंवई के रहवैया।

कुड़कअमीन, गिरदावर, आवत लोटत नागिन छातिन पै।

तुहैं देखि कै फूलत छाती, नयन जुड़ात डाकिया भैया।

वास्तव में गाँव की झोपड़ी से लेकर राष्ट्रपति भवन और संसद भवन तक सीधी पहुंच पोस्टमैन की है। देहात में शादी और अन्य समारोह का कार्ड डाकखाने में डालने के पहले पोस्टमैन को देने का रिवाज कई इलाकों में रहा है। एक दौर तक ये देहात में अनपढ़ लोगों को चिट्ठियां या टेलीग्राम पढ़ कर सुनाने से लेकर उसका जवाब भी लिखते थे। भारत जैसे देश में जहां 36 भाषाओं में अलग-अलग तरीके से पते लिखे जाते हों वहां डाकियों के लिए कितना चुनौती भरा काम होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

यह दिलचस्प तथ्य है कि 1857 से लेकर 1947 के दौरान स्वाधीनता आंदोलन में कई हिंसक पड़ावों में डाकघरों को लूटा या जलाया गया, पर पोस्टमैन पर हमला नहीं हुआ क्योंकि लोग उसे अपना आदमी और हितैषी मानते थे। उनकी सकारात्मक भूमिका के कारण ही तमाम गीत-लोकगीत बने। कई भाषाओं में फिल्में बनीं। 

पोस्टमैनों की दो श्रेणियां हैं, एक विभागीय या स्थायी पोस्टमैन हैं तो दूसरा है ग्रामीण डाक सेवक या जीडीएस। ग्रामीण डाक सेवक करीब ढाई लाख हैं और उनके जिम्में वे सारे काम हैं जो स्थायी के जिम्मे होते हैं। वे दुर्गम से दुर्गम इलाके के भूगोल ही नहीं समाज की भी सबसे गहरी समझ रखते हैं। रेगिस्तान की तपन से लेकर बर्फबारी या बाढ़ के दौरान देहाती इलाकों में उनका काम जारी रहता है। वे ही भारतीय डाक की रीढ़ हैं। उनकी माली हालत जून 2018 में वेतन भत्तोंम में संशोधन के बाद भी ठीक नही है, पर पहले से बेहतर है, पर इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक खुलने के बाद उन पर काम का बोझ भी बढा है।

बैंकिंग सेवा और वित्तीय साक्षरता

ग्रामीण इलाकों में वित्तीय साक्षरता और बचत की आदत में डाकघरों ने काफी अहम भूमिका निभाई। डाकघर बचत बैंक 1 अप्रैल, 1882 से देश में कायम हैं। लंबे इतिहास के साथ डाकघरों ने आम जनता का भरोसा जीता। डाकघर बचत बैंक भारत का सबसे पुराना बैंक है। 1882 में कमसे कम 4 आना और सालाना अधिकतम 500 रू. की रकम ही जमा हो सकती थी। समय के साथ इसमें काफी बदलाव हुए और भारतीय डाक बचत बैंक की तुलना रिजर्व बैंक आफ इंडिया से होने लगी थी। बचत आंदोलन को भी डाक सेवाओं ने गति दी। पर डाकघर बचत बैंक स्वतंत्र बैंक नहीं है। ये वित्त मंत्रालय की एजेंसी के रूप में काम करते है, जिस पर डाक विभाग को कमीशन मिलता है। पर इन पर ग्रामीणों का काफी भरोसा है। 

इसी की देन है कि बैंकिंग क्रांति के बाद भी इस समय देश में डाकघरों में 26 करोड़ डाकघर बचत बैंक खाते हैं, जिनमें 12.68 लाख करोड़ रुपए जमा है। इसके अलावा 11.39 करोड नकदी पत्रों में भी 3.66 लाख करोड़ रुपए की रकम जमा है। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के नारे के साथ शुरु सुकन्या खातों में से 84 फीसदी खाते डाकघरों में खुले हैं। इन खातों में बड़ी तादाद ग्रामीण इलाकों की है।

डाकघरों की बचत योजनाएं जोखिम रहित हैं। देश में पाँच लाख से अधिक लघु बचत एजेंटों को भी इससे काम मिलता है। इसके आवर्ती जमा खाता (RD),सावधि जमा (TD), मासिक आय योजना ( MIS), लोक भविष्य़ निधि (PPF), राष्ट्रीय बचत पत्र ( NSC), किसान विकास पत्र ( KVP), वरिष्ठ नागरिक बचत योजना( SCSS) और सुकन्या योजना के साथ महिला बचत को काफी लोकप्रियता मिली।

इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक

डाकघरों पर कायम भरोसे को ही ध्यान में रख कर मोदी सरकार में 1 सितंबर 2018 को इंडिया पोस्ट पेमेंट बैंक IPPB आरंभ किया। करीब दो लाख पोस्टमैनों को स्मार्ट फोन और बायोमैट्रिक डिवाइस मुहैया करा कर आम जनता के दरवाजे पर जाकर बैंकिंग सेवाएं देने की पहल इस योजना के तहत हुई। बेशक इससे किसानों, मजदूरों, गृहिणियों, वरिष्ठ नागरिकों और छोटे कारोबारियों को बहुत सुविधा मिली है।  

इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक की स्थापना के बाद ग्रामीण डाकघर बैंकिंग सेवाओं में और मजबूत हुए हैं। दूसरी तरफ एटीएम, ई-बैंकिंग और और मोबाइल बैंकिंग सुविधा ने डाकघरों को आधुनिक बैंकों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। 

इस बीच में ग्रामीण डाक जीवन बीमा और डाक बीमा भी काफी लोकप्रिय हुई है. 1884 मे डाक जीवन बीमा की स्थापना हुई थी। डाक जीवन बीमा और ग्रामीण डाक जीवन बीमा से प्राप्त कुल प्रीमियम आय 2018-19 में 10,398 करोड़ थी, जो 2022-23 में बढ कर 14,246 करोड़ हो गयी है।  गांवों में बचत की आदत को विकसित करने में भारतीय डाक की भूमिका में राष्ट्रीय बचत संस्थान नागपुर ने भी काफी सहयोग किया जो राष्ट्रीय बचत संगठन के नाम पर 1948 में स्थापित हुआ था। यह वित्त मंत्रालय के तहत आर्थिक मामलों के विभाग के अधीन आता है। छोटी बचतों के प्रोत्साहन में इसका योगदान है।

देहातों में लेटरबॉक्स 

लेटरबाक्स भारतीय डाक की पहचान और शान हैं। आजादी मिलने के दौरान देश में कुल 57,321 लेटरबाक्स थे। इनकी संख्या 1968-69 तक बढ़ कर 1,80,275 हो गयी। इस दौरान सर्वाधिक 1,27,858 लेटरबाक्स देहाती इलाकों में लगे। 1970 तक लेटरबाक्सों की संख्या 2,36,795 हो गयी। 1976-77 के बाद देहात में और लेटरबाक्स लगाने के लिए सरकार ने एक विशेष अभियान चलाया। इस समय देश में करीब 5,79,595 लेटर बॉक्स डाक इकट्ठा करते हैं। देश के 4,05,754 गांवों में लेटरबाक्स के साथ डाक विभाग की मौजूदगी है। 

भारतीय डाक के 150वें वर्ष विशेष समारोह के शुभारंभ पर 2004 में राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम ने कहा था कि डाक विभाग दिलों को जोडऩे का काम करता है। प्रकृति से यह विस्तार पा रहा असाधारण संगठन है। यह ताकत और बढ़ानी चाहिए। नाबार्ड जैसी संस्थाओं के साथ सहयोग करके डाकघर किफायती ब्याज दरों पर ग्रामीण ऋण के वितरण का प्रमुख स्त्रोत बन सकते है।हमारी ग्रामीण जनसंख्या की यह सबसे बड़ी जरूरत प्रतीत होती है।

संचार क्रांति, गाँव और डाकघर

संचार क्रांति अभी गांवों में उस तरह नहीं पसरी है जिस तरह महानगरों और कस्बों में। फिर भी उसका असर साफ दिख रहा है। गावों में मोबाइल क्रांति के पहले सार्वजनिक फोन भी अधिकतर ताकतवर लोगों के घरों में लगे थे। मोबाइल आया तो आरंभिक काफी समय तक निजी आपरेटरों की दिलचस्पी गांवों में नहीं रही। मोबाइल क्रांति का असली केंद्र महानगर रहे। लैंडलाइन को जब अक्तूबर 2004 में मोबाइल फोनों ने पछाड़ा तब कहीं जून 2006 में देश के हर सातवें व्यक्ति के पास मोबाइल हो सका जो पहले 125 में से एक के पास था। 

दूरसंचार क्षेत्र में चामत्कारिक प्रगति का श्रेय मोबाइल फोनों को जाता है जो कुल फोनों का 98 फीसदी से अदिक हो चुके हैं। 2001 में भारत में 50 लाख से भी कम और 2002 में 64.31 लाख मोबाइल थे, जिसकी संख्या 2024 में 120 करोड़ हो गयी।मोबाइल सेवाओं की स्थापना 2जी प्रोदयोगिकी पर आधारित थी। बाद में 2010 में 3जी, 2016 में 4 जी और अब 5जी का जोर है। 2जी और 3जी में वायस सेवा बेहतर रही, पर 3जी और 4 जी से वीडियो, ईमेल और सोशल मीडिया क्रांति में मदद मिली। गांवों में बातचीत से आगे स्मार्ट फोंनों की पहुंच हो चुकी है। 

पाँचवीं पीढी की तकनीक सबसे ताकतवर है। पर 2025 तक 20 फीसदी आबादी 5जी से लैस होगी ऐसा तमाम विशेषज्ञ मानते हैं। लेकिन आईटी संबंधी स्थायी संसदीय समिति का आकलन है कि शहरी इलाकों से कहीं अधिक ग्रामीण इलाकों में वायरलेस ब्राडबैंड की दरकार है। 

डाकघरों का डिजिटलीकरण और आधुनिकीकरण

हाल के सालों में डाकघरों के आधुनिकीकरण के कारण कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं। अप्रैल, 2008 में ‘प्रॉजेक्टा ऐरो’ के साथ यह प्रक्रिया आरंभ हुई थी जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में डाकघरों की सेवाओं में सुधार आया। विश्वसनीय कनेक्टिीविटी का आधार खड़ा हुआ। मैनुअल काम से राहत मिली। ‘लुक एंड फील’ में सुधार हुआ। 2022 में डाक विभाग की आईटी आधुनिकीकरण परियोजना 2.0 के तहत 5785 करोड़ के परिव्यय से आठ सालों में कई नए साधन जोड़ने हैं। सभी 25070 विभागीय डाकघरों का कंप्यूटीकरण काफी पहले हो चुका है। 136778 शाखा डाकघरों को सिम आधारित कनेक्टिविटी वाले मोबाइल डिवाइस दी गयी है ताकि डाक, वित्तीय, बीमा संबंधी लेन देन आनलाइन हो सके।

चिट्ठियाँ कमजोर हुईं पर डाक घर कायम

बेशक संचार और सूचना क्रांति ने चिट्ठियों को इतिहास का विषय बना दिया, पर उसका महत्व कायम है। भारत में चिट्ठी पत्री का पुराना इतिहास रहा है। माध्यम हरकारा रहा हो या डाकिया, हंस रहा हो या फिर कबूतर वे हमेशा बरकरार रहीं। 

रूक्मिणी श्रीकृष्ण को विपृ के माध्यम से चिट्ठियां भेजती थीं तो नल दमयंती का पत्राचार हंस के माध्यम से होता था। गांधीजी ने तो अपने जीवन काल में जाने कितनी चिट्ठियां लिखीं जो आज भी चर्चा में आती रहती है। तमाम लेखकों, राजनेताओं और जाने माने लोगों की चिट्ठियों पर जाने कितना साहित्य लिखा गया है। गांधीजी को हर रोज देश दुनिया से सैकड़ों चिट्ठियां मिलती थीं। वे हरेक का जवाब सहज भाव से और समय से देते थे। इसीके माध्यम से ही उन्होंने बड़े से बड़े और गरीब से गरीब आदमी के साथ संवाद कायम रखा। वो पोस्ट कार्ड को सबसे किफायती मानते हुए उस पर काफी चिट्ठियां लिखते थे। 

शहरों में आम धारणा है कि संचार क्रांति और खास तौर पर मोबाइल क्रांति की आंधी में डाकघर अपनी हैसियत खो रहे हैं। लेकिन भारत के कई हिस्सों में ग्रामीण डाकघरों की उपयोगिता इस धारणा को झुठलाती है। भले वे टूटी फूटी डाकघरों में क्यों न हों लेकिन गांव और किसान के बहुत करीब हैं। चमक दमक वाले बैंकों से कही अधिक काम आ रहे हैं।

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