बहुत समय से मन में जिज्ञासा थी कि आखिर बहुजन समाज अब बिजली पासी की चर्चा क्यों नहीं करता? आखिर बिजली पासी का महत्व क्यों घट गया। पिछले महीने एक दिन संयोग पड़ा और जाकर बिजली पासी का किला, जिसे बड़े धूमधाम से बहुजन समाज ने बनवाया था, उसे देखने गया। वहाँ जाकर मैंने देखा कि कोई टूरिस्ट नहीं जाते हैं। बड़ा सा एक दरवाजा बंद है, और थोड़ी दूर पर एक और दरवाजा भी बंद है। इधर-उधर पूछताछ के बाद एक आदमी दरवाजे की चाबी लाया और उसने दरवाजा खोल दिया। हम लोग अंदर गए तो, देखा कि एक फिट ऊँची घास उगी हुई है, चारों तरफ घना जंगल है, कुछ लोग घास तो काट रहे थे लेकिन किले का रख-रखाव बहुत ही दयनीय दशा में है।
वहाँ पर बिजली पासी की एक बहुत विशालकाय मूर्ति बनी है, जिसका उद्घाटन कांशीराम और मायावती के कर कमलों से किया गया था। उस मूर्ति के नीचे जो वर्णन लिखा है वह तथाकथित दलित समाज के लिए गर्व का विषय बनता है, क्योंकि वह महान योद्धा 12वीं शताब्दी में जब पृथ्वीराज चौहान, आल्हा ऊदल और जयचंद जैसे महाराजाओं का जमाना था, तब एक पिछड़ी जाति का महान योद्धा बहुत लोगों को हराता हुआ उत्तर प्रदेश के एक भूभाग का अधिकारी बन गया।
बिजली पासी के बारे में आमतौर से जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन कहते हैं उनका जन्म 1148 में हुआ था और युद्ध करते हुए उनकी शहादत 1184 में हुई थी । यह वह जमाना था जब उत्तर भारत में पृथ्वीराज चौहान के नाम जैसा महान योद्धा मौजूद था। आल्हा, ऊदल और जयचंद भी इस समय हुए थे। बिजली पासी के पिता का नाम नथावन राम और माँ का नाम बिजना था, ऐसा कहते हैं। आश्चर्य की बात है कि अंग्रेजों के जमाने में या उसके पहले मुगलों के समय में भी बिजली पासी की कहानी ठीक प्रकार से नहीं लिखी गई।
कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के एक बड़े भाग पर बिजली पासी का राज्य था और उन्होंने 9 किले बनवाए थे और बिजनौर का नामकरण उन्हीं के नाम से हुआ है। सोचने की बात है कि जो इतने बड़े राज्य का राजा था और जिनका जयचंद और आल्हा, ऊदल के साथ संग्राम हुआ था, उसकी जाति दलित नहीं हो सकती। उसकी सेना में बहुत से बहादुर सिपाही उन्हीं की जाति के रहे होंगे और उन सभी का अपने-अपने गॉँव में वर्चस्व होगा इसलिए जिसे हम अनुसूचित जाति कहते हैं उसे दलित-शोषित कहना उचित नहीं है। ऐसे बहादुर योद्धा को कौन कहेगा कि वह दलित शोषित समाज से निकल कर आया था। लेकिन आश्चर्य इस बात पर होता है कि बिजली पासी के वंशज या उन्हीं की जात बिरादरी के लोग वह शौर्य और वह आधिपत्य हासिल करने की कला बचा नहीं पाए।
लखनऊ से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर लखनऊ और बाराबंकी जिलों की सरहद के गाँवों में पासी जाति के हजारों परिवार रहते हैं। यह परिवार या तो किसानों की फसल को बचाने के लिए बीसरदार का काम करते थे या फिर चोरी-डकैती जैसे कामों में भी लगते थे। इस जाति का एक व्यवसाय था सुअर पालन और वह सफाई से नहीं गंदे तरीके से पालते थे। वे खेती भी करते थे, लेकिन उनमें से अनेक लोग जंगली जानवरों का शिकार भी करते थे। अब सवाल है कि इस बहादुर जाति को ऐसे छोटे कामों को करने के लिए किसने मजबूर किया, क्या हिंदू समाज में ब्राह्मणों ने?, मुझे विश्वास नहीं होता। उनके व्यवसाय और व्यवहार में कुछ हिम्मत और बहादुर के काम तो रहते थे, बल्लम लेकर गाँव की चौकीदारी करना और अंग्रेजों के जमाने में गांव की शिकायतें या समस्याएँ थाने तक पहुँचाना, यह सब इनके द्वारा किया जाता था।
केवल पासी जाति के लोगों को छोटे काम करने के लिए मजबूर नहीं किया गया, बल्कि महर्षि वाल्मीकि के वंशज मैला उठाने के लिए टॉयलेट साफ करने के लिए मजबूर किए गए। आखिर उन्हें किसने मजबूर किया और क्यों? सवर्ण तो नहीं कर सकते, क्योंकि वह घर में शौच नहीं किया करते थे। इन्हें पर्दा नशीन परिवारों के द्वारा बाध्य किया गया हो, ऐसा हो सकता है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में लगभग 250 जातियाँ हैं, जिनके अलग अलग व्यवसाय हैं और यह व्यवसाय किसने दिया होगा, किसने बाँटा होगा? क्योंकि जैसे कुम्हार जाति के लोग उत्तर प्रदेश में तो अछूत नहीं है लेकिन मध्य प्रदेश में अछूत माने जाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि इन जातियों को छोटे काम करने के लिए तब दंड स्वरूप बाध्य किया गया होगा, जब इन्होंने धर्मांतरण स्वीकार नहीं किया।
इसका कोई लिखित प्रमाण तो मैंने नहीं देखा और ना मैंने सवर्णों के द्वारा बाध्य किया जाना ही कहीं पढ़ा, लेकिन यह सवाल शोध के योग्य है, कि आखिर कैसे और किसके द्वारा छोटे काम करने के लिए वर्ग विशेष को चुना गया जिसके कारण वही उनका व्यवसाय और वहीं उनकी जाति हो गई। इसके लिए सनातन परंपरा को या वैदिक संस्कृति को दोषी मानना कहाँ तक सच और तर्क संगत है?
यह मैं नहीं जानता, लेकिन इस पर चर्चा होने में कोई बुराई नहीं है। सनातन परंपरा में काम का बटवारा किया गया होगा यह तो संभव है, लेकिन समाज का कोई वर्ग दबाया गया हो और उसका शोषण किया गया हो यह शब्दावली सही नहीं कहीं जा सकती। सनातन समाज ने हमेशा से क्रांतिकारी बातें स्वीकार की है जैसे संत रविदास ने जब कहा “मेरा मन चंगा तो कठौती में गंगा”, यह क्रांतिकारी विचार था लेकिन पूरे समाज ने इस पर उन्हें ना तो प्रताड़ित किया ना दंड दिया बल्कि इसे सामान्य रूप से स्वीकार किया।
इसी तरह संत कबीर ने जब कहा “पत्थर पूजे हरि मिलैं तो मैं पूजूं पहाड़” लेकिन इसे मूर्ति पूजा के खिलाफ बगावत नहीं माना गया । जिस समाज को दलित और शोषित कहते हैं उसी बहुजन समाज में से महर्षि वाल्मीकि, संत तुकाराम, संत रविदास और न जाने कितने विद्वान और समर्पित समाज सुधारक पैदा हुए, जिन्हें समाज ने स्वीकार किया। हमारे यहाँ कभी भी किसी को विचारों के कारण ईसा मसीह की तरह सूली पर नहीं चढ़ना पड़ा या किसी ग्रीस के रहने वाले दार्शनिक सॉक्रेटीस की तरह जहर का प्याला नहीं पीना पड़ा और न ईशनिंदा के लिए किसी का सर कलम किया गया । सभी को अभिव्यक्ति (अपनी बात कहने) की आजादी रही और उन्होंने खुलकर बात की खुलकर जिए, कभी भी किसी का पद दलन या शोषण नहीं किया गया।
यह संभव है किसी सिरफिरे ने चतुर्थ वर्ग को वेद पाठ से मना किया हो, लेकिन इसे सामान्य बात नहीं माना जा सकता। सच तो यह है कि पुराने जमाने में जिस स्तर के लोग तथा कथित दलित शोषित समाज से निकले, उस स्तर के लोग आज नहीं निकल रहे हैं। डॉक्टर अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम और ऐसे ही न जाने कितने विचारक पैदा हुए और आगे बढ़े, उन्हें कोई रोक नहीं सका। यदि कोई दलित-शोषित वर्ग होता तो उस समाज से बिजली पासी जैसा हुकूमत करने वाला शासक नहीं पैदा हो सकता था। यह कहना कि शासन करना केवल क्षत्रियों का अधिकार था पूरी तरह सत्य नहीं है।
यह सत्य है कि सवर्णों ने दलित शोषित समाज के साथ रोटी बेटी का संबंध कायम नहीं किया लेकिन यह भी सत्य है कि तथाकथित दलित समाज की विभिन्न जातियाँ भी आपस में रोटी बेटी का संबंध नहीं रखती है। रविदासों के घर में पासियों की लड़कियाँ नहीं जाती, धोबी समाज में रविदासों की लड़कियाँ नहीं जाती तो यह कहना कि सवर्णों ने अन्याय किया और समाज में समरसता नहीं कायम की, यह सत्य नहीं है। यह सत्य हो सकता है की द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिष्य नहीं बनाया लेकिन यह भी ध्यान रहे की द्रोणाचार्य जन सामान्य को शिक्षा देने के लिए नहीं थे बल्कि उनकी विशिष्ट जिम्मेदारी थी और उस जिम्मेदारी के अंतर्गत उन्होंने काम किया। लेकिन यह भी सत्य है कि शौर्य के मामले में राजस्थान के जयमल और फत्ता किसी से कम नहीं थे उन्हें किसने सिखाया मैं नहीं जानता लेकिन किसी ने तो सिखाया होगा। समाज के सभी वर्गों को सीखने के अवसर हमेशा उपलब्ध थे ।
यह नितांत अनर्गल बात है कि सनातन परंपरा में एक वर्ग को ज्ञान अर्जन से वंचित किया गया यह स्वार्थ सिद्धि के लिए निकाला गया कुतर्क है। आज भी हर विद्यालय में हर विद्यार्थी प्रवेश नहीं पाता, चाहते हुए भी उसे अवसर नहीं मिलता। विद्या अध्ययन में एक नियम यह था जो आज भी है कि विद्या प्राप्त करने के लिए वह पात्रता तो रखता हो, निषाद परिवार में पले बढे कर्ण को परशुराम ने उसी तरह धनुर्विद्या सिखाई थी जैसे भीष्म पितामह को । क्या आज भी हर आदमी सेना में भरती हो पाता है? या हर आदमी वैज्ञानिक बन पाता है। इसलिए ऐसे कुतर्क पेश करना ठीक नहीं कि हमारे समाज में किसी विशेष वर्ग पर अत्याचार किया गया। कुछ लोग अपने को दलित शोषित कहने में गर्व का अनुभव करते हैं और बाकी स्वार्थी लोग प्रजातंत्र की आड़ में वोट की राजनीति खेलते हुए इस कुतर्क को आगे बढ़ाते हैं। नहीं तो क्या कारण है कि पिछले 77 साल में सभी समाजों से एक तरह के लोग नहीं निकल पाए, जबकि सबको बराबरी का अवसर मिला, ऐसा हम कह सकते हैं।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि पश्चिमी देशों में जिस तरह का नीग्रो लोगों के साथ रंगभेद किया गया, ऑस्ट्रेलिया में वहाँ के मूल निवासियों के साथ जो व्यवहार किया गया और अनेक देशों में बढ़ने के लिए सबको समान अवसर नहीं दिए गए वैसा हमारे देश में कभी नहीं हुआ। मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि कितनी भी जातियों के लोगों को रोका नहीं जाता वह अपने आप रुक जाते (ड्रॉपआउट) हैं। आज से 77 साल पहले जब मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था तो मेरे साथ प्यारेलाल धानुक, अशरफी लाल यादव, सकटू राम पासी, धनीराम हलवाई और ऐसे ही बहुत से पिछड़ी जातियों के लोग पढ़ते थे। और पढ़ाने वाले जालिम सिंह, बेची पासी और रामगोपाल यादव ऐसे ही अध्यापक भी होते थे। लेकिन जब मैं जूनियर हाई स्कूल इटौंजा में गया तो मेरे पुराने साथियों में केवल अशर्फीलाल यादव ही बचे थे, बाकी लोग घर में बैठ गए, किसी ने मजबूर नहीं किया था, उनके घरों में खाने की तंगी भी नहीं थी, फिर भी शायद उन में पढ़ाई के प्रति रुचि नहीं थी।
कितने अफसोस की बात है कि आजादी के 70-75 सालों के बाद भी तथाकथित अनुसूचित और पिछड़े वर्गों में से आरक्षित पदों को भरने के लिए भी पात्रता वाले अभ्यर्थी पूरे नहीं पड़ते। बहुजन समाज ने बड़े धूमधाम से बिजली पासी के किले का जीर्णोद्धार करने का प्रयास तो किया लेकिन उस किले की दीवारों पर कम से कम किले का चित्र दिखाया गया होता, वह तो नहीं है लेकिन करोड़ों रुपया खर्च हुआ, बहुत विशालकाय हाल बना है, बिल्डिंग बनी है, हाल खुला पड़ा था घनघोर जंगल के बीच उस हाल में जंगली जानवरों के अलावा कोई नहीं जाता या रहता होगा। किले के जीर्णोद्धार में जो पैसा खर्च किया गया उसका सदुपयोग तभी माना जाता जब बिजली पासी की शौर्य गाथा कम से कम पासी समाज को तो प्रेरित कर पाती लेकिन वह भी नहीं हुआ शायद इसलिए कि बिजली पासी की कहानी दबे-कुचले, दलित-शोषित उस श्रेणी के अंदर फिट नहीं बैठती। मानना पड़ेगा की 12वीं शताब्दी के पहले या 12वीं शताब्दी तक जब चतुर्थ वर्ग के लोग इतने योद्धा होते थे, कि वे जयचंद जैसे क्षत्रियों का पसीना छुड़ा सकते थे और अपना बड़ा राज्य बना सकते थे, तो उनके नाम पर शायद आरक्षण की भीख नहीं मांगी जा सकती और ना मांगी जानी चाहिए।
यदि स्कूलों में बिजली पासी की शौर्य गाथा बच्चों को पढ़ाई जाए और उनकी यशो-गाथा से प्रेरित होकर पिछड़े समाज के लोग आगे बढ़े, तो यह योगदान माना जाएगा, लेकिन मुझे लगता है कि रामविलास पासवान ने शायद कुछ रुचि दिखाई हो, बाकी बहुजन समाज ने कोई विशेष रुचि बिजली पासी के इतिहास पर नहीं दिखाई। अतीत में इतने विद्वान, बहादुर और समाज सुधारक होने के बावजूद उस समाज को दबा-कुचला कहना नितांत अनुचित है। आवश्यकता इस बात की है कि उनके इतिहास को सारे समाज के सामने लाया जाए और खुद बहुजन समाज को प्रोत्साहित किया जाए तभी कुछ बात बन सकती है।