बांग्लादेश में कैसे खारे पानी और बँजर ज़मीन पर फ्लोटिंग से पूरे साल उग रही हैं सब्ज़ियाँ

बांग्लादेश के तटीय क्षेत्रों में किसानों ने कमाल कर दिया है। अपने खेतों की सिंचाई के लिए मीठे पानी की नहरों से अतिक्रमण हटा कर साल में तीन फसलें उगा रहे हैं। कुछ किसान तो फ्लोटिंग से तालाबों में सब्जियों की खेती कर रहे हैं जिससे उत्पादन और बढ़ गया है। इस सफलता ने काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन पर ब्रेक लगा दिया है।
Bangladesh farmers

कालापारा (पटुआखली), बांग्लादेश। गर्मी की उमस भरी दोपहर। आसमान में पूर्व-मानसूनी बादल छाए हुए हैं। किसानों का समूह पके पपीते से भरी टोकरियाँ लेकर घर की तरफ निकल रहा है। उनके थके हुए दुबले-पतले शरीर, पसीने से लथपथ, दोपहर की धूप में दमक रहे थे।

यहाँ से थोड़ी ही दूर, कुछ किसान अपने हरे-भरे खेतों से पपीता, करेला, खीरा, काली मिर्च, लौकी और कद्दू की फ़सल तोड़ने में व्यस्त थे। वे सूर्यास्त से पहले काम पूरा करने की जल्दी में थे क्योंकि ताज़ा उपज अगली सुबह बाज़ार में पहुँचनी थी।

लेकिन पाँच साल पहले इस इलाके की तस्वीर ऐसी नहीं थी। बांग्लादेश में कुमीरमारा के तटीय गाँव में जहाँ ये खेत लहलहा रहे हैं और कई तरह की सब्जियाँ और फल उगे हैं, वहाँ कभी खारे समुद्री पानी से बेजान बंजर जमीन थी। जिस पर कुछ भी उगाना असंभव दिखता था।

पटुआखली जिले के कालापारा उप जिला के नीलगंज संघ परिषद में किसानों के धैर्य और दृढ़ संकल्प के कारण, उनकी भूमि उपजाऊ हो गई है और स्थानीय लोगों के लिए आजीविका का स्रोत बन गई है। ये लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे थे। समुद्र के स्तर में वृद्धि और तटीय गाँवों में बढ़ती लवणता ने उन्हें परेशान किया हुआ था।

एक समय था जब ये किसान मानसून के मौसम में केवल धान की खेती कर सकते थे, लेकिन अब वे साल भर फसल उगा रहे हैं।

उन्होंने न सिर्फ ताजे पानी की नहरों को अतिक्रमण से मुक्त कराया है और पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए स्लुइस गेट का काम अपने हाथों में ले लिया। बल्कि उन्होंने स्थानीय किसान संगठनों का भी गठन किया है ताकि अधिकारियों पर अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए दबाव बनाया जा सके। इनमें से कुछ किसानों ने अधिक उत्पादन के लिए तालाबों में सब्ज़ियों की खेती की तैरती पद्धति को भी अपनाया है। वे अब काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन नहीं करते हैं।

कुमिरमारा गाँव के 37 वर्षीय किसान हिमायत उद्दीन ने गाँव कनेक्शन को बताया। “हम पीढ़ियों से खेती करते आ रहे हैं। लेकिन एक समय में बढ़ती लवणता और ताजे पानी की कमी के कारण ज़मीन पर खेती करना बंद हो गया। मुझे शहर में पलायन करने और दिहाड़ी के रूप में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। ” वह आगे बताते हैं, “लेकिन अब मेरी ज़मीन एक बार फिर से हरी-भरी हो गई है क्योंकि हमारे खेतों की सिंचाई के लिए ताज़ा पानी है और मैंने सब्ज़ियों की खेती शुरू कर दी है।”

कालावरा उपजिला के करीब बरगुना जिले के तलतली उपजिला के सौदागरपारा गाँव में भी बदलाव की यही कहानी है। बरगुना के पाथरघाट उपजिला के पद्मा गाँव के किसानों ने भी लवणता से निपटने के लिए ख़ेती की कई तकनीकों को अपनाया है।

ये सभी तटीय गाँव लवणता (खारापन) के बढ़ने, जलवायु परिवर्तन और महासागरों के गर्म होने के कारण चक्रवातों की बढ़ती संख्या से प्रभावित थे। कुमिरमारा गाँव समुद्र से केवल 15 किलोमीटर (किमी) दूर है, सौदागरपारा गाँव समुद्र से 10 किलोमीटर दूर है, जबकि पदमा गाँव समुद्र के किनारे से मुश्किल से 8 किलोमीटर दूर है।

मीठे पानी की नहर पर नियंत्रण रखना

तटीय गाँवों के किसानों ने महसूस किया कि उन्हें अपने क्षेत्रों में बढ़ती लवणता को दूर करने के लिए कई तकनीकों को अपनाने की ज़रूरत है। और सबसे पहले उन्होंने 10 किमी लंबी और 1200 फीट (0.36 किमी) चौड़ी मीठे पानी की नहर पर नियंत्रण पाने का फैसला किया। जिस पर या तो अतिक्रमण कर लिया गया था या फिर वह स्थानीय प्रभावशाली लोगों के नियंत्रण में थी।

कुमिरमारा गाँव में एक मीठे पानी की नहर को सरकार ने बनवाया था। लेकिन यह लंबे समय से प्रभावशाली लोगों के कब्जे में थी। इसी वजह से स्थानीय किसान इसके पानी का इस्तेमाल अपने खेतों की सिंचाई के लिए नहीं कर पाते थे।

किसानों ने प्रशासन की मदद से नहर को अतिक्रमण से मुक्त कराया और अब इसका इस्तेमाल सिंचाई और फसल उगाने में कर रहे हैं। प्रभावशाली लोगों से नहर का कब्जा लेने के अलावा उन्होंने खारे समुद्री पानी के बहाव को नियंत्रित करने के लिए नहर में लगे स्लुइस गेट को भी अपने हाथों में ले लिया।

कुमिरमारा गाँव के किसान ज़ाकिर हुसैन अपनी 200 डिसमिल जमीन पर कई तरह की सब्जियों और फलों की खेती कर रहे हैं। उनकी ये जमीन कभी लवणता से प्रभावित थी। मीठे पानी की उपलब्धता ने उनकी किस्मत बदल दी है। उन्हें देखकर कई अन्य किसान भी खेती की ओर लौट आए हैं।

एक समूह के रूप में एक साथ आना

लगभग पाँच साल पहले, 2018 में कुमीरमारा गाँव के कुछ लोग खेती की घटती आय को दूर करने के तरीकों और तटीय क्षेत्र में बढ़ते कृषि संकट को दूर करने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए बैठे थे। उन्होंने एक किसान संघ बनाने का फैसला किया और उसका नाम ‘नीलगंज आदर्श कृषक समिति’ रखा। इस संघ का उद्देश्य रोज बैठक करना और उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए एक समूह के रूप में सरकार से संपर्क करना था।

शुरुआत में इस किसान संघ में कुछ ही सदस्य थे लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई। आज इसके 162 सदस्य हैं। इस संघ की पहल से पूरे संघ के करीब 8 हज़ार किसान कृषि के दायरे में आ चुके हैं।

नीलगंज आदर्श कृषक समिति के अध्यक्ष जाकिर हुसैन ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम एक बहुआयामी संकट से बाहर निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं। क्षेत्र के किसान कृषि को फिर से ज़िंदा करने के लिए एक साथ आए हैं। किसानों की सामूहिक शक्ति ने हमें फिर से मैदान में ला खड़ा किया है। हम खेती के लिए बेकार हो चुकी ज़मीन पर साल में तीन फसलें उगा रहे हैं। हमारा इलाका अब लगभग साल भर हरा-भरा रहता है।”

किसानों का फ्लोटिंग फार्मिंग की तरफ जाना

पथरघाट उप जिला के 48 साल के मछुआरे अब्दुर रहीम के लिए बार-बार आने वाले चक्रवातों के कारण मछली पकड़ना मुश्किल होता जा रहा था। वह अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अपनी ज़मीन पर खेती करते रहे हैं। लेकिन, लवणता के कारण उनकी फसल बर्बाद होने लगी थी।

अब्दुर ने लवणता से बचने के लिए खेती के एक वैकल्पिक तरीके के बारे में सीखा। उन्होंने फ्लोटिंग और मचान पद्धति से सब्जी की खेती शुरू की। सब्जी की तैरती खेती तालाबों में की जाती है। यहाँ तालाब के ऊपर बाँस और लकड़ी के फ्लोटिंग स्ट्रक्चर बनाए जाते हैं। मचान के ऊपर सब्जियाँ उगाई जाती हैं। इससे फसल में नमक नहीं पहुँच पाता है और बेहतर उत्पादन मिलता है।

अब्दुर रहीम ने कहा, “बदलती जलवायु और बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के चलते हमारे जीवन में कई बदलाव हुए हैं। समुद्र और नदी में पहले की तरह मछलियाँ नहीं हैं। चक्रवात समय-समय पर हमसे टकराते रहते हैं। हमें आपदाओं के अनुकूल होना होगा और आजीविका के वैकल्पिक तरीके खोजने होंगे। खेती की फ़्लोटिंग पद्धति ने हमें उम्मीद दी है।”

वापस गाँव लौट आना

नूर आलम अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने और छह लोगों के अपने परिवार को खिलाने के लिए राजधानी ढाका चले गए थे। वह वहाँ कई तरह के काम करते और मानसून के मौसम में अपनी ज़मीन पर धान की खेती के लिए अपने पैतृक कुमिरमारा गाँव लौट आते थे।

लेकिन नीलगंज आदर्श कृषक समिति के प्रयासों की बदौलत, 35 साल के नूर अपनी ज़मीन पर पूरे साल खेती करने के लिए गाँव लौट आए हैं।

“खारे पानी के बढ़ने और सिंचाई के पानी की कमी के कारण, हमारे गाँव में कृषि को गंभीर संकट का सामना करना पड़ रहा था। गाँव के कई लोग दिहाड़ी मजदूरी करने शहर चले गए। मैं भी कमाने के लिए चटगाँव शहर गया था। लेकिन अब मैं घर वापस आ गया हूं और अपनी जमीन पर खेती कर रहा हूं।” नूर ने कहा।

सौदागरपारा गाँव के एक अन्य किसान शाहिदुल इस्लाम ने भी सब्जियों की खेती शुरू कर दी है। उन्होंने कहा, “खारे पानी के कारण बार-बार धान की खेती करने से हमें नुकसान हो रहा था। खेती के लिए ताजा पानी नहीं था। लेकिन नहर पर नियंत्रण पाकर मैंने धान की जगह सब्जी की खेती शुरू कर दी है।” गाँव के कई किसान अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए खेती के अलावा छोटे-छोटे व्यवसाय भी चला रहे हैं।

जलवायु अनुकूलन का एक उदाहरण

ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स के अनुसार, बांग्लादेश पिछले दो दशकों में चरम मौसम से सबसे अधिक प्रभावित देशों में सातवें स्थान पर है। समुद्र का बढ़ता स्तर, बार-बार आने वाले चक्रवात बांग्लादेश में लाखों लोगों के जीवन के लिए खतरा हैं। बढ़ती लवणता और सिंचाई के पानी की कमी के कारण कृषि भी खतरे में है। लाखों लोग पहले ही शहरी मलिन बस्तियों या विदेशों में पलायन कर चुके हैं।

कृषि शोधकर्ता रबीउल आलम ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जलवायु-प्रवण क्षेत्रों में तटीय किसानों की यह पहल हमें समाधान दिखाती है। किसानों की सामूहिक पहल ने इलाके की कृषि तस्वीर बदल दी है। कई किसान आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। इस प्रकार की पहल को आगे बढ़ाने के लिए सरकारी और निजी संस्थानों को किसानों के साथ खड़ा होना चाहिए।”

बांग्लादेश यूनिवर्सिटी ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी के जलवायु विशेषज्ञ सैफुल इस्लाम ने किसानों की पहल की सराहना की। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि बांग्लादेश की लंबी तटरेखा के साथ तटबंधों को बढ़ाया और मजबूत किया जाना चाहिए।

उन्होंने शिकायत करते हुए कहा, “चक्रवातों और समुद्र के बढ़ते स्तर के प्रभावों का मुकाबला करने के लिए तटीय क्षेत्र में मैंग्रोव वन लगाए जाने चाहिए। विकसित देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए आवंटित प्रस्तावित 100 अरब डॉलर में से बांग्लादेश को ‘कुछ भी नहीं’ मिला है।”

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