पुराने समय में जब तथा कथित अनुसूचित जातियों का आरक्षण नहीं होता था चाहे मुगलों का जमाना हो या फिर अंग्रेजों का, तब इन वर्गों में से एक से एक दिग्गज लोग पैदा हुआ करते थे। इन्हीं में से थे सन्त रविदास, तुकाराम, डॉक्टर आम्बेडकर, बाबू जगजीवन राम और बहुत पहले महर्षि वाल्मीकि। इसी प्रकार तथा कथित पिछड़ी जातियों में यदुवंश के शिरोमणि भगवान कृष्ण, नीति ज्ञाता विदुर, पाँच पाण्डव और धनुर्धर कर्ण निकले थे।ये सभी जातियाँ कब और कैसे दलित हो गयीं यह कोई नहीं बता पाएगा। वास्तव में व्यक्तित्व में निखार तब आता है जब संघर्ष और प्रतिस्पर्धा करके आगे बढ़ना पड़ता है। लेकिन आजकल प्रतिस्पर्धा की कौन कहे, जिनके साथ प्रतिस्पर्धा हो रही है वह 90% अंक लाकर चुने जाते हैं और 80% लाकर हार जाते हैं मगर प्रतिस्पर्धा करने वालों में 30% अंक लेकर विजई घोषित किए जाते हैं।
आप क्या समझते हैं? यह 30% वाले प्रतिस्पर्धी यशस्वी बनेंगे, आविष्कार करेंगे या देश के गौरव होंगे, ऐसा कुछ नहीं होगा। जो लोग आरक्षण के हिमायती हैं वह भी अनारक्षित रास्ते से चुने गए लोगों को वरीयता देते हैं जैसे बाबू जगजीवन राम के फैमिली डॉक्टर थे डॉक्टर शर्मा उन्होंने किसी ऐसे को नहीं ढूंढा जो आरक्षण के दरवाजे से घुसकर आया हो और ऑपरेशन करने जा रहा हो। क्या आप ऐसे लोगों से अपना ऑपरेशन कराना पसंद करेंगे जो 33% अंक लेकर डॉक्टर बने हैं?
हमें ध्यान रखना चाहिए की विशेषज्ञता का शत्रु है’, और शायद इसीलिए देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सभी मुख्यमंत्रियों को एक बार लिखा भी था कि, उन्हें किसी प्रकार का कोई आरक्षण पसन्द नहीं है। यहाँ तक कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने भी आरक्षण को केवल 10 साल के लिए लगवाया था, वह जानते थे कि यह समाज का टेंपरेरी इलाज हो सकता है लेकिन स्थाई इलाज कभी नहीं होगा। अगर आप के पास अपने आप का पैसा इकट्ठा किया है और एक नक्शा बनवाना चाहते हैं, तो क्या वह नक्शा बनवाने के लिए आप आरक्षण के दरवाजे से घुसे हुए इंजीनियर के द्वारा आग्रह पूर्वक बनवाएंगे? क्योंकि आप तो आरक्षण के हिमायती हैं।
अक्सर देखने में आता है कि बड़े-बड़े पुल बनने के कुछ ही महीने में ढह जाते हैं और दोष ठेकेदार को दिया जाता है। सम्भव है कि ठेकेदार ने गड़बड़ किया हो और सीमेंट की मात्रा कम डाली हो, लेकिन यह भी संभावना रहती है कि डिजाइन बनाने वाले इंजीनियर ने भी गफलत की हो। इसी तरह यदि आप रेलवे टिकट बुकिंग के काउंटर के सामने खड़े हो जाएं और ध्यान से देखिए यदि काउन्टर पर बैठा हुआ कर्मचारी 3 मिनट में एक टिकट देता है और दूसरा कर्मचारी 1 मिनट में तीन टिकट देता है तो अपने आप समझ लीजिए कि कौन व्यक्ति है देश की गति और समाज की गति को धीमा कर रहा है। जो लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए या फिर चन्द वोटो के लिए आरक्षण के हिमायती हैं, चाहे योग्यता क्षमता हो या ना हो, तो वह राष्ट्र का भला नहीं कर रहे, राष्ट्र विरोधी कहें तो गलत नहीं होगा।
अब आरक्षण में एक नया विंडो जोड़ा गया है, जिसके अनुसार प्रमोशन में भी आरक्षण दिया जाएगा। डॉ आंबेडकर के सुझाव में बनाए गए कानून में यह नहीं था लेकिन अब वोट के लालच में इसे जोड़ दिया गया। इसका बहुत ही दुष्परिणाम होगा क्योंकि जो सीनियर अधिकारी होता है वह दफ्तर के जूनियर कर्मचारियों का मार्गदर्शन करता है और बाकी लोग उससे प्रेरणा भी लेते हैं। जब अधिकारी स्वयं अपने क्षमता और योग्यता के आधार पर नहीं बनाया गया है तब वह दूसरों को कैसे प्रेरित कर पाएगा। दूसरी बड़ी माँग चल रही है कि जातिगत जनगणना की जाए, इसमें जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करना ही पड़ेगा। यदि नहीं किया गया तो वह गणना भी किसी काम की नहीं होगी और यदि जाति सूचक शब्दों का पूरी तरह प्रयोग किया गया तो छोटी जाति वालों को तकलीफ पहुँचेगी और उनके सम्मान को ठेस लगेगी। राजनीति करने वाले लोग सिर्फ इतना ही चाहते हैं कि उन्हें वोट मिल जाएं और देश का चाहे जो हो, सो बाद की बात है। यदि जातियों के हिसाब से गिनती
करके नौकरियों में अनुपात ही पूरा करना हो और क्षमता योग्यता से कुछ मतलब ना हो तो बहुत आसान है । खेतों-खलिहानों और गाँव में जाकर जाति के हिसाब से नाम लिख ले, चाहे उन लोगों को कुछ करना आता हो या ना आता हो और उन्हें आईएएस, पीसीएस क्यों ना बना दे।
ऐसा शायद किसी देश में होता होगा कि रंग भेद मिटाने के लिए काले और गोरे लोगों के अनुपात में नौकरियां बाँट दी जाए या फिर वर्ग के हिसाब से नौकरियों का बँटवारा हो जाए, ऐसा प्रैक्टिकल तो नहीं लगता। लेकिन अनुपात को पूरा करने के लिए जो प्रतियोगात्मक परीक्षाएँ होती हैं उनमें 20 या 25% अंक पाने वाला यानी जो अन्यथा फेल माना जाता है उसे चुन लिया जाता है और इंजीनियर या डॉक्टर बनने की कतार में वह खड़ा हो जाता है। इसके विपरीत दूसरे वर्ग जो अनारक्षित हैं वह 95 या 99% अंक पाकर भी कई बार चुने नहीं जाते, आप कल्पना कर सकते हैं कि उन्हें कितनी कुण्ठा होती होगी। हम देश में कैसे नागरिक पैदा करेंगे या कैसा समाज तैयार करेंगे यह शायद राजनेता नहीं जानते हैं। लेकिन इतना अवश्य है कि जब नितान्त अन्याय होना आरम्भ होता है तो वहीं से क्रान्ति का जन्म होता है और क्रान्ति जब आएगी तो वही जीतेंगे जो क्षमता योग्यता धारण करने वाले होंगे।
वैसे हमारे देश के लोग क्रान्तिकारी विचारों वाले नहीं है अन्यथा देश को आजादी डंडे खाकर ना मिली होती बल्कि डंडे मार कर मिली होती। इस मानसिकता का परिणाम यह है कि पढ़े लिखे कुशल लोग पलायन वादी रास्ता अपना रहे हैं और विदेश में उनकी सम्मानपूर्वक नौकरी भी सुरक्षित हो जाती है। यदि भरोसा ना हो तो आप कोई आंकड़े देखें कि बाहर जाने वाले लोगों में कितने प्रतिशत आरक्षण के दरवाजे से ऊंचाई तक पहुँचे हैं और कितने सामान्य वर्ग के लोग हैं। ऐसा नहीं कि जो लोग विदेशों को पलायन कर रहे हैं, वह अपने देश में रहकर देश की सेवा नहीं करना चाहते।
अपने देश में उन्हें अनादर का सामना करना पड़ता है और उनकी योग्यता, कुशलता का कोई मान नहीं है, तब वह मजबूरी में देश छोड़कर चले जाते हैं। अब इन राजनेताओं से कौन पूछे कि जिन कुशल कारीगरों इंजीनियरों और डॉक्टरों को तैयार करने में देश का तमाम खर्चा हुआ समय लगा और जब वह चले जाते हैं, तो देश का कितना नुकसान होता है। देश में बहुत सी व्यापारिक संस्थाएं और कम्पनियाँ खुली थी जिनमें अधिकांश पब्लिक सेक्टर वाली कम्पनियाँ थी यानी सरकारी खजाने से खोली गई थी। वे कम्पनियाँ कालान्तर में घाटे में चलती रही और अब उनके डिसइन्वेस्टमेंट की नौबत आ गई है। मेरे विचार से इस समय जो प्राइवेट कम्पनियाँ खुली हैं वह मुनाफे में चलती हैं और उनके बंद होने की नौबत नहीं आई। सरकारी कंपनियों के घाटे में चलने का कारण आरक्षण के माध्यम से अक्षम और अयोग्य लोगों की भर्ती भी हो सकती है। अच्छी बात यह है के प्राइवेट कंपनियों के मालिकों ने आरक्षण का नियम मानना स्वीकार नहीं किया जब कि भारत सरकार vसमय-समय पर ऐसे आरक्षण की बात करती रही है।
सेना में जब भर्ती का समय आता है, तो आरक्षण पर विचार नहीं किया जाता, क्योंकि वहाँ तो जान हथेली पर रख के मैदान में उतरना पड़ता है। इसी तरह जब शुद्ध रूप से वैज्ञानिक, शोध रिसर्च और टेक्निकल कामों की बात आती है, तब आरक्षण पर विचार कम होता है, लेकिन कभी- कभी यहाँ भी आरक्षण का दरवाजा खुल जाता है और अक्षम तथा अयोग्य लोगों की भर्ती हो जाती है। इसका तात्पर्य यह हुआ के यदि उतने कम पदों का सृजन किया जाए तो भी काम चल जाएगा।
अध्यापकों की भर्ती के समय आरक्षण का ध्यान रखा जाता है और अफसोस की बात यह है की ऐसे अध्यापक जब ज्ञान देंगे तो शिष्य कैसे होंगे कल्पना की जा सकती है। में देखता हूँ कि प्राइमरी स्कूलों से कक्षा 5 पास करने के बाद भी बच्चा साधारण इमला नहीं लिख पाता और वह प्राइवेट स्कूलों में कक्षा दो या तीन में भर्ती होने के लिए तैयार रहता है। यदि हमारी सरकार अच्छे गुरुजन भी नहीं दे सकती तो फिर ध्यान में कबीर का यह कथन याद आता है कि “गुरु अन्धा शिष अन्धड़ा दोनों का नहि अन्त। अन्धहि -अन्धा ठेलिया, दून्यूँ कूप पडंत”। शिक्षा का स्तर लगातार गिरते जाने के लिए ऐसे ही अक्षम और अयोग्य अध्यापक जो आरक्षण के पिछले दरवाजे से घुस आए हैं, वही ज़िम्मेदार हैं। यदि हमारी सरकार अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे सकती तो शिक्षा को पूरी तरह से प्राइवेटाइज कर देना चाहिए, क्योंकि वहाँ आरक्षण का रोग अभी नहीं फैला है।
हम देखते हैं कि आरक्षित पदों के लिए पर्याप्त अभ्यर्थी ही नहीं मिल पाते हैं और आरक्षित पद खाली पड़े रहते हैं। यदि 70 साल के आरक्षण के बाद भी आरक्षित पदों के दावेदार नहीं मिल पा रहे हैं तो और कितना समय लगेगा आरक्षित पदों को भरने में। ऐसा लगता है कि डॉक्टर अंबेडकर ने अपने समाज की बौद्धिक क्षमता का ठीक से आँकलन नहीं किया था, जब उन्होंने 10 साल के लिए आरक्षण दिया था। अब यह समाज आरक्षण को छोड़ने के लिए कभी तैयार नहीं होगा ऐसा मानकर चल सकते हैं क्योंकि उनका कहना है कि यदि आरक्षण की सुविधा छोड़ दी तो हम फिर पीछे जाएंगे इसलिए आरक्षण “जन्म सिद्ध अधिकार है”, ऐसा उनके विचारों से प्रतीत होता है । यह बात तो अनुसूचित जाति के आरक्षण की है, पिछड़ी जातियों के आरक्षण का प्रस्ताव डॉक्टर अंबेडकर ने नहीं रखा था। पिछड़ी जातियों का आरक्षण मंडल कमीशन पर आधारित है, जो 80 के दशक में लागू किया गया, इसके जवाब में कमंडल का आंदोलन सामने आया था और समाज में काफी उथल-पुथल मची थी। जो बात अनुसूचितजाति के दलित होने के लिए कही जाती है वह पिछड़ी जातियों पर लागू नहीं होती, क्योंकि यह वह जातियाँ हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न है, जिनके पास मसल्स पावर है जिन्हें दलित समाज नहीं कहा जा सकता। आखिर यह जातियाँ भगवान कृष्ण की वंशज हैं जिनकी हम सभी पूजा करते हैं और जिन्हें आराध्य मानते हैं तब इन्हें किसने पिछड़ी जाति का बना दिया। यदि कोई समाज बुद्धिजीवी बना ही नहीं चाहता तो उसे जबरदस्ती आप बना नहीं सकते। जिस दिन चीन जैसे लोगों को पता चलेगा कि भारत में फेल होने वालों को तो कुर्सी मिलती है और प्रतिभा वाले मायूश होकर घर बैठे रह जाते हैं। तब आक्रमण का अवसर मिलेगा और देश गुलाम हो जाएगा, आज
नहीं तो कल। शायद अतीत में यही हुआ होगा, जब अक्षम और अयोग्य लोग या कमजोर लोग शासन चला रहे थे और बाहरी आक्रमणकारियों ने मौके का फायदा उठाया। वैसे अदालत ने पिछड़ी जातियों के आरक्षण के मामले में क्रीमी लेयर का प्रावधान रखा है लेकिन यह एक रिलेटिव टर्म है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। ऐसा लगता है के पिछड़ी जातियां भी अनुसूचित जातियों की ही तरह आरक्षण को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगी है।
अब स्वार्थी नेताओं ने जो जातिगत गणना और जातिगत आरक्षण का शिगूफा छेड़ा है वह तो हमारे समाज को छिन्न-भिन्न कर देगा। भला जाति सूचक शब्दों का प्रयोग किए बिना गणना कैसे हो जाएगी और देश में हजारों नहीं तो सैकड़ों जातियाँ हैं, जिनके नाम के पीछे ऊंच या नीच का भाव चिपका है। हमें ध्यान में रखना होगा कि यदि हम इन शब्दों का प्रयोग शुरू करेंगे तो जातिसूचक शब्द कहीं अपमान सूचक तो नहीं बन जाएंगे। इतना ही नहीं कुछ जातियाँ ऐसी हैं जो उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों में शामिल है जैसे कुम्हार, लेकिन यही जाति मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति में गिनी जाती है। पहाड़ों पर जिनके नाम के आगे राम आता है वह अनुसूचित यानी अछूत जाति से सम्बन्ध रखते हैं क्या हम इस प्रकार के पूर्वाग्रह को पुनर्जीवित करना चाहते हैं?
प्रतिभा और ज्ञान का यदि बराबर अपमान होता रहा तो इसका परिणाम होगा, प्रतिभा पलायन अर्थात देश के पढ़े लिखे विद्वान और प्रतिभाशाली लोग विदेशों को पलायन कर जाएंगे। हमारे यहां बचेंगे कम बुद्धि वाले कमजोर प्रतिभा वाले नागरिक, मुझे पता नहीं आज के नेता क्या यही चाहते हैं? हमें ध्यान रखना चाहिए कि एस चंद्रशेखर और खुर्राना जैसे लोग हमारे देश के ही नागरिक थे लेकिन कुछ तो कारण होंगे कि वह अमेरिकी नागरिक बन गए और वहां की शिक्षा व्यवस्था का लाभ पाकर रिसर्च कर पाए और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए। आज भी कितने ही लोग ऑस्ट्रेलिया को पलायन कर रहे हैं और वहाँ की नागरिकता स्वीकार कर रहे हैं। यदि ऐसे लोगों के राष्ट्र प्रेम पर संदेह किया जाए और अपेक्षा की जाए कि वह करोड़ों लोग यहीं पर पड़े रहे, बिना सुविधा, बिना अवसर या बिना नौकरी के, तो निश्चित है कि क्रांति आ जाएगी और देश दूसरे ढंग से और पीछे चल जाएगा। मैं नहीं जानता जो लोग अपने को नेहरू का वंशज कहते हैं जिन्होंने आरक्षण का पूरा विरोध किया था तो ऐसे लोग जातिगत आरक्षण, जातिगत गणना के पक्षधर बनकर केवल अपने निहित स्वार्थ का परिचय दे रहे हैं।
आज की कंपटीशन की दुनिया में यदि हम आरक्षण का कटोरा लेकर बैठे रह गए तो दुनिया आगे निकल जाएगी और हम देखते रह जाएंगे जैसे सोमालिया जैसे अफ्रीका के देश हो गए हैं, शायद हम भी वैसे ही हो जाएंगे। आवश्यकता इस बात की है की अनुसूचित और पिछड़ी जातियों में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास के भाव जगाये जाएं। इसी के अनुसार काशीराम जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था हम आरक्षण मांगेंगे नहीं, आरक्षण देंगे, लेकिन जो स्वार्थी सवर्ण और पेशेवर राजनेता है वह कमजोर वर्गों को इस लायक बनने नहीं देंगे। फैसला हमारे समाज को करना है कि हम चाहते क्या हैं? चन्द लोग; खैरात बाटकर ,आरक्षण का झुनझुना दिखाकर, अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे अथवा सारा देश एक विराट पुरुष के रूप में खड़ा हो सके? यदि हमारी इच्छा है कि समाज में समरसता आए सभी वर्गों में रोटी-बेटी का संबंध कायम हो तो फिर सभी लोगों में बराबरी का भाव आत्म सम्मान और परस्पर सम्मान का भाव जगाना होगा, पिछले 70 साल में आरक्षण के बावजूद ऐसा कुछ नहीं हुआ है और अगले 700 साल में भी ऐसा कुछ नहीं हो पाएगा यह कड़वा सच है।
अब यदि आप आरक्षण के दरवाजे से अक्षम और अयोग्य नकारा लोगों को घुसाते रहेंगे और यह भी कहेंगे कि हमारे देश में सबको समान अवसर दिया जताता है, तो इससे बड़ा असत्य दूसरा नहीं होगा। वर्तमान व्यवस्था में रिश्वत के बल पर नौकरी लेना, सिफारिश से नौकरी लेना या पेपर लीक करना यह सब देशद्रोह की श्रेणी में आता है और और यह बंद होना चाहिए । कमजोर वर्गों को हमारे सिस्टम में विश्वास पैदा करने के लिए ईमानदार चयन अति आवश्यक है। जो लोग चयन में बेईमानी करते हुए पकड़े जाएँ तो उन्हें वहीं सजा मिलनी चाहिए जो देशद्रोह की होती है। ध्यान रहे यदि सिस्टम में आम आदमी का विश्वास टूटा तो प्रजातंत्र की बलि चढ़ सकती है। ध्यान होगा कि डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था “जिंदा कौमें 5 साल इंतज़ार नहीं करती”। मुझे आशा है कि जो लोग स्वार्थ के लिए समाज को गुमराह कर रहे हैं उनकी समझ में आएगा ऐसी आशा और कामना ही कर सकते हैं।