केले की खेती के तरीके में बदलाव कर आप भी बढ़ा सकते हैं आमदनी

धान-गेहूँ जैसी परंपरागत खेती को छोड़कर किसान अब केले जैसी बागवानी फसलों की तरफ रुख़ कर रहे हैं। इससे किसानों को ज़्यादा मुनाफा भी हो रहा है।
#banana

कई किसान कहते हैं कि खेती फायदे का सौदा नहीं रह गई है, ऐसे लोगों को केला की खेती करने वाले सत्येंद्र कुमार से मिलना चाहिए, जिन्होंने थोड़े से बदलाव करके केले की खेती को मुनाफे का सौदा बना लिया है।

उत्तर प्रदेश के कानपुर नगर जिले के बीहुपुर गाँव के किसान सत्येंद्र ने वैज्ञानिकों की सलाह पर खेती में कुछ बदलाव किए, जिससे न सिर्फ लागत कम हुई, बल्कि उत्पादन भी बढ़ गया है।

सतेंद्र कुमार गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “पहले मैं भी दूसरे लोगों की तरह ही पुराने तरीके से केले की खेती किया करता था, लेकिन फिर कानपुर शहर के पत्थर कॉलेज (चंद्रशेखर कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय) गया तो वहाँ नई जानकारी मिली; साथ ही वहीं से केले के पौधे भी लेकर आया।”

वो आगे कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि मैंने बहुत कुछ बदला है, मैंने यूरिया जैसी खाद की मात्रा कम कर दी और खेत में गोबर की खाद और पांस (सड़ी हुई गोबर की खाद) ज़्यादा डालना शुरु किया, जिसका फायदा भी हुआ।”

पहले सत्येंद्र कुमार की प्रति हेक्टेयर लागत एक लाख के करीब थी, लागत में थोड़ी वृद्धि हुई एक लाख 18 हज़ार हो गई, लेकिन उत्पादन 50 टन हेक्टेयर से बढ़कर 70 टन प्रति हेक्टेयर पहुँच गया।

भारत में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, यूपी, केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, मेघालय और मध्य प्रदेश केला के मुख्य उत्पादक हैं। महाराष्ट्र में भुसावल, बिहार के हाजीपुर और उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, बहराइच, सीतापुर, कानपुर, कौशांबी में बड़े पैमाने पर केले की खेती होती है।

सत्येंद्र कुमार को देखकर उनके आसपास के किसान भी अब उन्नत किस्म का बीज ही इस्तेमाल करने लगे हैं। सत्येंद्र के पास आठ बीघा यानी दो हेक्टेयर ज़मीन है।

13-14 महीने में तैयार होने वाली केले की फसल की रोपाई का सबसे अच्छा समय जून-जुलाई का होता है। केले में पानी की ज़रूरत ज़्यादा होती है, हर 15-20 दिन पर सिंचाई (मिट्टी के अनुरूप) करनी पड़ती है, लेकिन जलभराव नहीं होना चाहिए। जलभराव से तना गलन रोग लग सकता है।

Recent Posts



More Posts

popular Posts