अनकही कहानियां : 35 साल भीख मांगने के बाद इस तरह बदली ज़िंदगी

IG Range Lucknow

भिखारी शब्द सुनते ही हमारे दिमाग में तमाम छवियां बननी शुरू हो जाती हैं। इनका बड़ा गिरोह होता है, ये करोड़पति होते हैं, नशेड़ी होते हैं, मैले-कुचैले कपड़े, कुछ करना न पड़े इसलिए बैठकर भीख मांगते हैं, ऐसी अनगिनत छवियां बननी शुरू हो जाती हैं। गांव कनेक्शन ने लखनऊ के कुछ ऐसे भिखारियों से बातचीत की जिनकी कहानी जानकर आपके दिमाग में भिखारियों को लेकर बने पूर्वाग्रही खत्म तो नहीं पर कम जरूर हो सकते हैं। असल मायने में ये मजदूर बदलते भारत की तस्वीर गढ़ रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों से काम की तालाश में लखनऊ आए लोगों को जब काम नहीं मिला तो पेट भरने के लिए वो भिखारी बन गये। इनमें से किसी ने बीमारी में अपनी बेटी खोयी है, तो किसी ने अपना परिवार खोया है, कुछ अनाथ हैं, तो कुछ घर से लड़कर लखनऊ आ गये, किसी को बीमारी ने भिखारी बना दिया। तीन हजार भिक्षुकों के साथ हुए एक शोध में ये निकल कर आया है कि लखनऊ के 98 फीसदी भिखारी भीख मांगना छोड़कर रोजगार करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के 28 वर्षीय युवा शरद पटेल के तीन साल के अथक प्रयासों के बाद आज 27 भिखारी रोजगार कर रहे हैं। (देखिए वीडियो)

ये भी पढ़ें-भिखारियों की जिंदगी में कभी झांककर देखा है ?

विजय बहादुर बच्चों को स्कूल ले जाते हुए ।

गांव कनेक्शन की ‘अनकही कहानियां’ सीरीज में आप कुछ ऐसे भिखारियों की सफलता की कहानी पढ़ेंगे जिन्होंने वर्षों भीख माँगी लेकिन अब वो मजदूरी कर रहे हैं। इनमें से कोई रिक्शा चलाता है तो कोई ढावे में काम करता है, कोई रैन बसेरा में काम करता है, कोई पानी के पाउच बेचता है।

शरद पटेल द्वारा किए गये तीन हजार भिखारियों के शोध में ये निकलकर आया कि 31 फीसदी भिक्षुक गरीबी की वजह से भीख मांग रहे हैं, 16 फीसदी भिक्षुक विकलांगता, 14 प्रतिशत भिक्षुक शारीरिक अक्षमता, 13 फीसदी बेरोजगारी, 13 फीसदी पारम्परिक, तीन फीसदी भिक्षुक बीमारी की वजह से भीख मांगते हैं। इन भिक्षकों में 65 फीसदी नशे के आदी हैं।

शोध में ये भी निकलकर आया है कि 38 फीसदी भिक्षुक सड़क पर रात काटते हैं। इनमे से 31 फीसदी भिक्षुकों के पास झोपड़ी है और 18 फीसद कच्चे मकान तथा आठ फीसदी के पास पक्के घर हैं। राजधानी में जो लोग भीख मांग रहे हैं उनमे 88 फीसदी भिक्षुक उत्तर प्रदेश के हैं जबकि 11 फीसदी भिक्षुक अन्य राज्यों से भीख मांग रहे हैं।

ये भी पढ़ें- गांव कनेक्शन विशेष : इन 6 भिखारियों की आप बीती सुनकर आप की सोच बदल जाएगी

फुठपाथ पर खाना बनाते विजय बहादुर।

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के विजय बहादुर जब सात बरस के थे तो ये अपने पिता के साथ बैलगाड़ी में बैठकर लखनऊ आए थे। इनके पिता भूसा बेंचकर पैसे का लेनदेन करने लगे उसी दौरान ये खेलते-खेलते दूर चले गये। विजय बहादुर (42 वर्ष) के चेहरे पर मुस्कान नहीं थी लेकिन सुकून जरुर था। इन्होंने अपनी जिन्दगी के 35 साल भीख मांगी और फुठपाथ पर अपनी रातें गुजारी हैं। पिछले एक साल से विजय बहादुर ने भीख मांगना छोड़कर रिक्शा चलाना शुरू कर दिया है।

“मैं खेलते-खेलते अपनी बैलगाड़ी से दूर निकल गया था, पिता जी ने मुझे ढूंढा या नहीं ये मुझे नहीं मालुम। जब रात बहुत हो गयी और मुझे भूख लगी, तो मैं खोजते-खोजते एक मन्दिर के पास पहुंचा वहां बंट रहे खाने को मैंने खाया, रात मन्दिर के बहार ही गुजारी।” ये बताते हुए विजय बहादुर भावुक हुए, “मैं हर सुबह मन्दिर के बहार इस उम्मीद से बैठता कि कोई मुझे लेने आएगा इन्तजार करते-करते कई महीने गुजर गये पर मेरे घरवाले नहीं आये, छोटा था कुछ काम कर नहीं सकता था इसलिए भीख माँगना मजबूरी बन गया।”

ये भी पढ़ें- भिखारियों के लिए बनाया गया भिक्षुक गृह कर रहा भिखारियों का इंतजार

विजय बहादुर अपने साथियों के साथ।

अपना रिक्शा दिखाते हुए विजय बहादुर कहते हैं, “दिनभर मेहनत करके डेढ़ दो सौ रुपए कमा लेता हूँ, अपनी मेहनत की कमाई से जो खाता हूँ उसमे सुकून मिलता है, पहले खाने के लिए घंटों लाइन में खड़े होकर धक्के खाना पड़ता था। लोग कहते थे जवान है फिर भी भीख मांगता है, सुनकर बुरा लगता था। भीख माँगना छोड़ना तो चाहते थे पर कभी किसी ने रास्ता नहीं दिखाया, पिछले एक साल से इन भैया ने हौसला बढ़ाया तो रिक्शा चलाने लगे। अब अपनी कमाई का खाते हैं मन को बहुत संतोष मिलता है।”

ये भीपढ़ें- बस्ती के बच्चों को पढ़ाने के लिए आगे आयी मुस्कान

विजय बहादुर भीख मांगने की वजह में कभी खुद को कोसतें हैं तो कभी परिवार वालों को। भीख मांगने के दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “बचपन में अपना घर नहीं मिला और अच्छी परवरिश नहीं मिली इसलिए भिखारी बन गया। लोग फेककर पैसे दे देते थे तो उससे नशा करने लगा। कभी अच्छी संगत नहीं मिली, किसी ने रोका-टोका नहीं मन्दिर के दोस्तों की संगत में नशे का लती बन गया।”

सवारी ले जाते विजय बहादुर।

लखनऊ के परिवर्तन चौक चौराहे पर पिछले एक साल से विजय बहादुर सर्दी, गर्मी, बरसात के मौसम में अपने रिक्से पर ही सोते हैं। विजय बहादुर का कहना है, “सात साल की उम्र से अच्छा खाना नहीं मिला, जो रुखा सूखा मिलता उसी से पेट भर लेते। इसलिए अब शरीर में रिक्शा चलाने की ताकत नहीं बची है लेकिन भीख मांगने से अच्छा है उतनी मेहनत कर लेता हूँ जिससे दो वक्त का खाना मिल जाता है।”

ये भी पढ़ें- इन बच्चों के हाथों में अब कूड़े का थैला नहीं, किताबों का बस्ता होता है

विजय बहादुर के रिक्से में एक जोड़ी कपड़े एक कम्बल और गिनती के चार बर्तन रखें रहते हैं। दिनभर रिक्शा चलाने के फुठपाथ पर सुबह और शाम चार ईंटों का चूल्हा बनाकर खाना बनाते हैं। विजय ने रिक्से की सीट के नीचे रखे कम्बल को दिखाते हुए कहा, “इतनी सर्दी में भी यही कम्बल ओड़कर इस खुले आसमान के नीचे सोना पड़ता है, पर अब सुकून है कि भीख मांगकर नहीं खाना पड़ता।” वो आगे बताते हैं, “फुटकर सवारी दिन में बहुत ज्यादा नहीं मिलती हैं, इसलिए कुछ बच्चों को स्कूल छोड़ने और ले जाने का काम करते हैं जिससे महीने में एक साथ 15 सौ रुपए मिल जाते हैं, दिन में पेट भरने भर का कमा लेते हैं।”

ये भी पढ़ें- गोपाल खण्डेलवाल, 18 वर्षों से व्हीलचेयर पर बैठकर हजारों बच्चों को दे चुके मुफ्त में शिक्षा

ताजा अपडेट के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए यहां, ट्विटर हैंडल को फॉलो करने के लिए यहां क्लिक करें।

रिक्शा चलाने से खुश हैं विजय बहादुर। 

भोपाल के दुर्गानगर झुग्गी-झोपड़ी बस्ती में रहने वाली 11 वर्ष की मुस्कान करती है लाइब्रेरी का संचालन, यहाँ 30 से 35 बच्चे रोज आते हैं पढ़ने

Posted by Gaon Connection on Thursday, November 9, 2017

Recent Posts



More Posts

popular Posts