एक मैकेनिकल इंजीनियर, जो अंतरराष्ट्रीय कंपनी की नौकरी छोड़ बना मधुमक्खीपालक

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लखनऊ। अंतरराष्ट्रीय कंपनी लार्सन एंड ट्रूबो (मुंबई) में एक असिस्टेंट इंजीनियर के तौर पर नील कामत ने कई साल तक काम किया। वह कंपनी में सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) इनिशिएटिव के लिए काम करते थे। इसीलिए उन्होंने धारावी के झोपड़ पट्टी वाले बच्चों के साथ बहुत समय बिताया। कभी वह उन्हें पढ़ाते थे तो कभी उनके साथ फुटबॉल खेलते थे। इससे उनके मन में सामाजिक कार्यों को लेकर एक जज़्बा पैदा हो गया था और इसी जज़्बे ने उन्हें इस बात की हिम्मत भी दी कि वो अपनी नौकरी छोड़कर समाजिक हित के काम कर सकें।

2015 में कंपनी छोड़ने के बाद वह अपने घर बंगलुरू वापस लौट आए जहां उन्होंने एसबीआई यूथ फॉर इंडिया वेबसाइट प्रोग्राम के बारे में पता किया। इस कार्यक्रम से जुड़े कुछ पुराने लोगों का अनुभव जानने के बाद उन्होंने इंटरव्यू दिया और वह इस कार्यक्रम के लिए चुन लिए गए। इसके बाद उन्हें सात एनजीओ (गैर सरकारी संस्था) के साथ काम करने का मौका मिला। इनमें से उन्होंने बेयरफुल कॉलेज को चुना जो ग्रामीण समुदायों के लिए काम करती है।

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बेयरफुट कॉलेज से जुड़ने के बाद नील का काम था महिलाओं को उनकी क्षमताओं का इस्तेमाल करके, उनकी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना और उनके समुदाय को बेहतर बनाने में मदद करना। इसके लिए उन्हें उत्तराखंड और केरल की आदिवासी महिलाओं को मधुमक्खी पालन सिखाने का काम सौंपा गया।

मधुमक्खी पालन की ट्रेनिंग लेने वाली महिलाओं की टोली

इस बारे में बात करते हुए नील ने वेबसाइट बेटर इंडिया से कहा, मैं एक ऐसे प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था जहां मधुमक्खी पालन की पूरी प्रक्रिया पर काम हो रहा था। सबसे खास बात यह थी कि इससे महिलाओं को आजीविका का साधन मिल रहा था और सामाजिक स्तर पर उनका विकास हो रहा था। आजकल ऐसा समय है जब कीड़े किसान के लिए उतना चिंता का विषय नहीं हैं जितना कि उर्वरक, क्योंकि इनमें बहुत मिलावट हो रही है। मैं खुश हूं कि मैं मधुमक्खीपालन का काम कर रहा हूं, इससे किसानों का फायदा तो हो ही रहा है साथ ही पर्यावरण को भी कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा।

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इस काम की शुरुआत 2016 में उत्तराखंड से हुई, जहां चार अलग गाँवों से 12 महिलाओं को इसमें हिस्सा लेने के लिए चुना गया। यह मेरे लिए एक चुनौती की तरह था क्योंकि इस ट्रेनिंग का पहला मापदंड था ग्रामीण इलाकों से सिर्फ महिलाओं को चुनना जो इस पुरुषवादी समाज के लिए बहुत बड़ी बात है। दूसरी चुनौती थी इन गाँवों से जुड़ना। उत्तराखंड के इन गाँवों में पहुंचने के लिए 2 से 2.5 किलोमीटर की चढ़ाई करनी पड़ती थी।

प्रोजेक्ट से जुड़ी एक मधुमक्खी पालक महिलाा

नील के अनुसार, इस प्रोजेक्ट से जुड़ने वाली महिलाओं को उनकी सामाजिक और आर्थिक ज़रूरतों के आधार पर चुना गया था। कोई भी महिला जिसकी उम्र 20 से 60 वर्ष की थी वह इसमें आवेदन कर सकती थी लेकिन इसमें विधवाओं और घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को वरीयता दी गई थी। लेकिन हम सिर्फ 12 महिलाओं को ही ले सकते थे, वहां ऐसी कई महिलाएं थीं जो इस ट्रेनिंग को सिर्फ देख कर सीख रही थीं।

महिलाओं को मधुमक्खी पालन की ट्रेनिंग देते नील कामत

ट्रेनिंग के बाद घर लौटते वक्त यह ज़रूरी था कि हर महिला मधुमक्खी पालन के लिए एक उपकरण लेकर ही जाए। इसके बाद एक साल तक ट्रेनिंग देने वाले को इन महिलाओं का काम छह बार देखना था कि उनके अंदर वह आत्मविश्वास आया है या नहीं कि वे अकेले इस काम को कर सकें। ट्रेनिंग देने वाली टीम ने महिलाओं को मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकालने और इसके एयर टाइट डिब्बों में भरने की ट्रेनिंग भी दी। शहद की गुणवत्ता को परखने के बाद उसे बेयरफुट कॉलेज ही खरीद लेता है और इसके लिए महिलाओं को बाज़ार के दाम से 25 प्रतिशत ज़्यादा कीमत भी दी जाती है। इसके अलावा महिलाएं पैदा हुए शहद का 10 फीसदी हिस्सा अपने इस्तेमाल के लिए भी रख सकती हैं।

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नील कहते हैं कि इन गाँवों के ज़्यादातर घरों में महिलाएं ही रोजी-रोटी का जुगाड़ करती हैं जबकि पुरुष सिर्फ घर पर बैठकर शराब ही पीते हैं। इसलिए हमारे लिए यह और भी ज़्यादा ज़रूरी था कि हम उन महिलाओं को स्वाबलंबी बनाएं। नील ने जिस प्रोजेक्ट को लीड किया, उससे इस साल अक्टूबर और नवंबर के बीच शहद निकलेगा। वह कहते हैं कि हालांकि मेरी ट्रेनिंग पूरी हो गई है लेकिन मैं अपने इस प्रोजेक्ट के पूरा हेने तक बेयरफुट कॉलेज से जुड़ा रहना चाहता हूं ताकि अपने प्रोजेक्ट से जुड़ी महिलाओं और अपनी सफलता की खुशी को जी सकूं।

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