रांची के नक्सल प्रभावित कई गाँवों में महिलाएं माहवारी के दौरान आज भी कपड़े की जगह राख, घास और भूसी का प्रयोग करती हैं। यहां की महिलाओं को तो पैड के बारे में जानकारी ही नहीं थी।
होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद देश के बड़े होटल्स में अच्छी नौकरी, सालाना पैकेज भी अच्छा खासा, लेकिन ये सब इस युवा को रास नहीं आयीं। नौकरी छोड़ी और फिर निकल पड़े उनके बीच जिन्हें सच में बड़े बदलाव की जरूरत है।
हम बात कर रहे हैं रांची के युवा सोशल इंजीनियर मंगेश झा की। 2009 में भुवनेश्वर से होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद मंगेश ने जब देश के बड़े नामी-गिरामी होटल्स में नौकरी की तो वे असमानता की स्थिति से रूबरू हुए। मंगेश ने वहां देखा कि शहर के बड़े होटल्स में लोग महंगे पकवान थाली में छोड़ देते हैं, जबकि देश के ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों के लोगों के पास तो पर्याप्त खाना ही नहीं है, वे बर्बाद क्या करेंगे।
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ये पहली ऐसी बात जिसने में मंगेश को झकझोरा। मंगेश शहरी और आदिवासियों के बीच की असमानता को देखकर उद्वेलित थे। आदिवासियों के लिए कुछ करने की मंशा से मंगेश अपने-पिता के साथ रांची रहने लगे, ताकि आदिवासियों को और करीब से समझ सकें।
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21 वर्षीय निर्मला देवी (बदला हुआ नाम) रासाबेरा गांव की रहने वाली हैं। स्वास्थ्य केंद्र इस गांव से 50 किमी दूर है। निर्मला को यूट्रस में संक्रमण है। डॉक्टर ने बताया कि ये बीमारी माहवारी के समय बरती गई लापरवाही की वजह से हुयी है। मंगेश ने बताया कि इस गांव में माहवारी के समय औरतें और लड़कियां सेनेटरी पैड की जगह राख, घास और भूसी का प्रयोग करती हैं, यहां तक की रेत का प्रयोग किया जाता है। अस्वच्छ तरीकों से यहां की महिलाओं को फंगल इंफेक्शन का शिकार होना पड़ता है।
इस गंभीर समस्या पर मंगेश ने घर में ही बात की और सेनेटरी पैड की सिलाई करने का निर्णय लिया। इस काम के लिए मंगेश कुछ स्थानीय शिक्षित लड़कियों को अपने सथ जोड़ा और उनसे अन्य लोगों को जागरूक करने को कहा। मंगेश घर-घर जाकर अब महिलाओं को माहवारी के प्रति जागरूक कर रहे हैं और सेनेटरी पैड भी वितरित कर रहे हैं। पिछले एक साल में रासाबेरा कि महिलाओं के व्यवहार में काफी बदलाव आया है। अब यहां कि महिलाएं माहवारी जैसे मुद्दों पर खुलकर बातें करती हैं।
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मंगेश ने गाँव कनेक्शन को बताया कि आदिवासी क्षेत्रों की महिलाओं को तो सेनेटरी पैड के बारे में भी पता ही नहीं था। उन्होंने इसका नाम भी नहीं सुना था। लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं यहां आज भी माहवारी के दौरान पारंपरिक संसाधन का प्रयोग करती है। जो कि स्वास्थ्य के लिए घातक है। पैड के लिए मंगेश ने फेसबुक के माध्यम से भी मदद मांग रहे हैं।
मंगेश ने बताया कि उनकी मुहिम से कुछ लोग जुड़ रहे और अब हमारे पास बाहर से पैड आ रहे हैं। गांव की एक अन्य महिला राव रासो देवी ने कहा कि मंगेश का इसके लिए शुक्रिया। उनके प्रयास से महिलाएं अब अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो रही हैं। उनके रहन-सहन की तरीका भी बदल रहा है।
सोलर लाइट से रोशन हुए कई गांव
मंगेश ने बताया कि जब वे रांची लौटे तो उन्होंने पहले आदिवासियों क्षेत्रों का दौरा किया और की मूलभूत समस्याओं को समझने का प्रयास किया। मंगेश ने बताया कि रांची के आसपास के कई आदिवासी गांवों में बिजली नहीं थी। मंगेश ने इसके लिए अपने स्वीडन दोस्त और वैज्ञानिक लिंडा खोंडाल से मदद की गुहार लगाई। खोंडाल एक हजार सोलर लाइट लेकर रांची पहुंची। इन लाइटों को लिंडा ने ही बनाया था।
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मंगेश ने इन लाइटों को जोन्हा, हुंडरू, मुनगाडही, जिद्दू, जराटोली, हापद वेड़ा, हेसलाबेड़ा और केरवा गांप में बांट दिया। मंगेश की पहल से ये लाभ हुआ कि इन आदिवासी गांवों में अब रात्रि कक्षाएं चल रही हैं। महिलाएं रात को भी दोना बना रही हैं, जिससे उनकी आय में बढ़ोतरी हुई है। मंगेश ने लाइट लगवाने के लिए प्रशासन से भी मदद मांगी, लेकिन वहां से उन्हें बस आश्वासन ही मिला।
मंगेश ने अपने जेब से लगभग दो लाख रुपए खर्च किए। इस पर मंगेश कहते हैं कि इन गांवों में अब रोशनी देखकर उन्हें खुशी मिलती है। मंगेश ने कहा कि वे कुछ गांवों में प्लास्टिक बैन करने की मुहिम भी चला रहे हैं। उनका प्रयास है कि गांवों में बस दोना-पत्तल ही इस्तेमाल हो। मंगेश का कारवां अब आैर कई अन्य गांवों की ओर बढ़ चला है। उनके इस सफर में अब मददगार भी जुड़ रहे हैं।