जोधपुर। जिले के पाल और गंगाणा गांवों में बेर की खेती करने वाले हाईफाई किसान इंतखाब आलम अंसारी से यह बात सीखी जा सकती है कि अपनी उच्च शिक्षा का फ़ायदा खेती-किसानी में कैसे लें।
पढ़े लिखे अंसारी ने विरासत में मिली खेती में सफ़लता के नए मुहावरे जोड़ दिए और बेर की खेती में एक अलग मक़ाम हासिल किया और आज राजस्थान में ‛बेर किंग’ हैं। जो लोग खेती को खस्ताहाल और घाटे की दुकानदारी समझते हैं, उन्हें एक बार इनसे मिलना चाहिए, ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए। आज इंतखाब सूर्यनगरी जोधपुर के किसानों के लिए प्रेरणा का एक जरिया बन गए हैं।
उनके 42 बीघा के खेत में धीरे-धीरे पानी ख़त्म होने की समस्या उत्पन्न हो गई। हिम्मत जुटाकर नलकूप खुदवाया, संजोग से पानी तो मीठा निकल आया पर बहुत कम मात्रा में था। अब ड्रिप एरिगेशन की मदद ली, कम पानी में होने फसलों की जानकारी जुटाई तो पता चला बेर एक बेहतरीन विकल्प है। ‛काजरी’ और कृषि विभाग से प्रेरित होकर आज से 20 साल पहले बेर की खेती शुरू की।
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वो बताते हैं, “जब मैंने लंबे समय तक बारानी खेती के बाद बेर की बागवानी का मानस बनाया तो उद्यान विभाग से बेर की 500 ग्राफ्टेड थैलियां लेकर आ गया, चूंकि ग्राफ्टेड बेर का पौधा 3 साल तक ‘बेबी प्लाण्ट’ रहता है, जबकि देशी पौधा दूसरे ही साल बढ़ जाता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने मेरे खेत में पहले से उगी हुई ‘झाड़-बेरी’ और देशी बेर के पौधों को भी उगे रहने दिया।
“सरकारी मार्गदर्शन के तहत मैंने 6 गुणा 6 मीटर (20 गुणा 20 फीट) की चौकड़ी में सरकारी नर्सरी से अनुदान प्राप्त पौधे लगा दिए। वैसे तो 20 बीघा बगीचे में करीब 900 पौधे ही लगाने थे, लेकिन मैंने अपने आप उगे हुए पुराने और नये देशी बेर के पौधों को भी पनपने का समान अवसर दिया। बाद में उन पर कलम कर दी, “उन्होंने आगे बताया।
इस तरह आज उनके पाल गांव वाले फार्म हाउस में 1000 से भी ज्यादा बेर के पेड़ हैं, तो गंगाणा वाले फार्म पर 1500 पेड़ हैं। दूसरे किसान तो इन पौधों के सिर्फ थांवलों में ही निराई गुड़ाई करते हैं। इससे भूमि में मिट्टी पलट होने से सूर्य की रोशनी मिलती है और फंगस (कवक) भी खत्म हो जाते हैं, और मिट्टी में पोषक तत्वों का रिचार्ज भी हो जाता है। खरपतवार बहुत कम आती है और ढ़ेले बने रह जाते हैं, जिनमें हवा का संचार होता रहता है। यही तकनीक इन पौधों की बढ़वार के लिए मुझे ज्यादा कारगर लगती है। खरपतवार कम होने के कारण निराई की मजदूरी में भी बचत होती है। खरपतवार की खाद और जमीन पर गिरने वाले बेर के खराब होने से भी सुरक्षा मिल जाती है। इतने फायदे हैं, बीच की जमीन में तवी लगाने के, लेकिन इस काम पर किया गया खर्चा कभी भी मेरे फायदे के आड़े नहीं आया।
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कुछ और बातें भी हैं, जो उन्होंने लीक से हटकर अपनाईं। कुछ बुजुर्ग मित्रों की टोकाटोकी के बावजूद भी उन्होंने और उनके काश्तकार ने बेर की छंगाई-छंटाई (प्रूनिंग) में एक नया प्रयोग आजमाया और सफलता प्राप्त की।
काजरी में सर्वप्रथम जब 1980 में वैज्ञानिकों ने कलमी बेर का इजाद किया तो उस समय जलवायु और तापमान 30-35 डिग्री रहता था। तब की परिस्थितियों के अनुसार मार्च में प्रूनिंग वाजिब थी, लेकिन इन 37 सालों में अब तापमान 50 डिग्री तक जा पहुंचा है। अब जलवायु परिवर्तन के कारण व्यावहारिक तौर पर जुलाई में प्रूनिंग करना उचित रहता है। जल्दी प्रूनिंग करेंगे तो जल्दी फ्लोरिंग हो जाएगी, उस समय तक तापमान कम नहीं हो पाता और फलोत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ज्यादातर किसान मार्च में बसन्त की प्रूनिंग (कटाई-छंटाई) करते हैं, जबकि मैं जुलाई महीने में ही यह काम करता हूं। मेरे द्वारा ऐसा किए जाने के बाद भी मेरा उत्पादन दूसरे किसानों से बीसियों गुणा अधिक ही रहता है।
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इंतखाब आलम अंसारी कहते हैं, “मैं अपने बगीचे में दोहरी सिंचाई नीति भी अपनाता हूं। मैं खारे पानी की सिंचाई करता हूं, जिससे फसल का घनत्व फलभार बढ़ जाता है, क्योंकि बहुत से प्रोटीन, विटामिन, पोषण तत्व खारे पानी में नहीं घुलते। मैं मीठे पानी से जरूरत पड़ने पर बूंद-बूंद सिंचाई और फ्लोवरिंग के वक्त फ्लड इरिगेशन (भरपूर पानी) करता हूं।” सिंचाई के मामले में मेरी सोच है कि टहनियों के विकासकाल में सिर्फ जरूरत जितना ही पानी देना सही रहता है, कभी भी ज्यादा पानी नहीं देना चाहिये क्योंकि ज्यादा पानी देने से इनकी वेजीटेटिव ग्रोथ ज्यादा होने से फ्रूट सेटिंग कम होती है। इसके विपरीत फूल पनपने के दो-तीन दौर चलते हैं, लिहाजा फल भी दो-तीन चरणों में ही मिलेंगे।
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इसका ध्यान रखते हुए जागरूक किसानों को दिन ही नहीं बल्कि घण्टों की गिनती करते हुए फलोत्पादक-दशा में भरपूर सिंचाई करनी चाहिये, जैसा कि हम जच्चा-बच्चा (नवप्रसूता) को खुराक देते हैं। अलग-अलग खेतों की मिट्टी का रवा, पानी और जलवायु में फर्क होता है, इसीलिए किसान खुद अपने स्तर पर पुख्ता प्रयोग करते रहें तो बेहतर परिणाम ले सकते हैं। मैं जैविक कीटनाशी का स्प्रे अगस्त के पहले और अक्टूबर के पहले हफ्तों में ही किया करता हूं। पहले बेसिक दवाइयां हल्की मात्रा में प्रयोग करनी चाहिएं, भारी दवाईयों की जरूरत ही नहीं पड़ती। वैसे भी कुदरत के पनपाये इन कीड़े-मकोड़ों को आप कभी भी पूरी तरह खत्म तो कर ही नहीं सकते, हां अलबत्ता इनका समन्वित कीट प्रबंधन जरूर किया जा सकता है।
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बेर के में जमीन के तल से शाखाएं फूटी हुई हैं। ऐसे में ये पेड़ कम और झाड़ी अधिक लगते हैं, लेकिन बेर को पेड़ की बजाय झाड़ीनुमा रखकर ही हम बेहतर फसल ले सकते हैं। इसीलिए मैं हर साल, पिछले साल की कटाई से मात्र छः इंच आगे अथवा ऊपर से कटाई करता हूं, ताकि हर साल नये कल्ले फूटें। बेर के फूल बहुत ही महीन होते हैं, जाहिर है कि स्प्रेयर का नोजल सूक्ष्म होना चाहिए, वह इसलिए कि महीन फव्वारे पैदा करने लायक स्प्रे कर सके। बारीक फव्वारों के रूप में घोल छिड़कने से पूरे पौधे की सभी मंजरियों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है, इसीलिए इसमें सावधानी रखनी चाहिए। एक-एक मंजरी गुच्छ के समीप स्प्रे करने में थोड़ा समय जरूर लगता है, लेकिन खर्च किये गये दवा घोल का सौ फीसदी फायदा मिल जाता है। इसीलिए तो खेती धीरज सेती कहावत कही जाती है।
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इस दौरान, वो केमिकल की बजाय ‘बायोपेस्ट’ (नीम की निम्बोली से बना स्प्रे- ऐजाडेक्टरीन) काम में लेते हैं। कुछ लोग बाजार में बेर खाकर गले में खराश की शिकायत करते हैं, इसका कारण है कि पौधे के फलों पर छिड़की गई केमिकल दवा का अवशिष्ट प्रभाव (रेजिड्यूल इफेक्ट) महीने भर तक रहता है। इसी कारण ऐसे फल खाते ही गला पकड़ते हैं और कई तरह की अंजान बिमारियों को भी जन्म दे जाते हैं।
वो बताते हैं, “मेरा यकीन है कि मेरे फार्म के गोला वेरायटी के ‘पेस्ट फ्री मोर टेस्टी’ बेर का औसत वजन 35 से 50 ग्राम है, जो जोधपुर संभाग में शायद सबसे ज्यादा ऊंची बाजार दर पर बिकता है। मेरे पाल और गंगाना गांव वाले फार्म पर मौजूद 2500 से अधिक बेर प्लांट्स की उपज को मिलाकर एक सीजन में 40 लाख रुपये से अधिक की कमाई हो जाती है।
पिछले 10 सालों से मैंने बेर के वजन को संभाल के रखा है, हर दूसरे तीसरे बेर का औसत वजन 35 से 50 ग्राम ही होगा। इतना ही नहीं, काजरी द्वारा इस वर्ष 23 जनवरी को बेर दिवस एवं शुष्क फल प्रदर्शनी में मुझे उमरान, थाई एप्पल, गोला बेर की क़िस्मों में प्रथम पुरस्कार मिला। सालाना कुल उपज 230,000 किलोग्राम के करीब होती है।