मौसम में बदलाव के साथ गेहूँ की फ़सल में लग रहा पीला रतुआ रोग, सही पहचान कर करें प्रबंधन

मौसम के बदलाव के साथ ही हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और यूपी-उत्तराखंड के तराई क्षेत्रों में गेहूँ की फसल में पीला रतुआ रोग लगने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए समय रहते प्रबंधन करें।
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दिसंबर से जनवरी महीने में गेहूँ की फ़सल में कई तरह के रोग लगने की संभावना भी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। ऐसे में किसानों को सही समय पर प्रबंधन करना चाहिए, जिससे नुकसान से बचा जा सके।

ऐसी ही एक बीमारी पीला रतुआ यानी यलो रस्ट भी है, जिससे बचाव का तरीका आईसीएआर-भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान, करनाल के वैज्ञानिक विस्तार से बता रहे हैं।

संस्थान के निदेशक डॉ ज्ञानेंद्र सिंह कहते हैं, “अभी मौसम ठंडा हैं कोहरा चल रहा हैं तो इस समय किसान को हम सूचना देना चाहते हैं कि वह अपनी फसल की निगरानी रोजाना करें और जब उनको कुछ पीलापन या रतुआ कोई चीज दिखाई दे तो उसको समझने का प्रयास करें।”

वो आगे बताते हैं, ” पीला रतुआ और पत्ती का पीलापन किस प्रकार का होता हैं। इसके लिए आपको पहले अपनी फ़सल देखनी होगी। कुछ पत्तियाँ मौसम की वजह से पीली होती हैं, जबकि कुछ पीले रतुआ की वजह से। जो मौसम में कोहरा धुंध होने की वजह से फसल में पीलापन आता है; मौसम सही होते ही ये सही हो जाता है।”

हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूँ की खेती पीला रतुआ से प्रभावित होती है। लगातार बादल और और वातावरण में नमी से ये रोग गेहूँ की फसल में तेजी से बढ़ता है। दिसंबर के आखिरी सप्ताह से जनवरी में इसके बढ़ने के संभावना बढ़ने लगती है, अगर वातावरण में आर्दता है, कोहरा लगातार बना हुआ रहता है और ठंड बढ़ने पर ये बढ़ने लगता है।

पीला रतुआ पहाड़ों के तराई क्षेत्रों में पाया जाता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में इस रोग का प्रकोप पाया गया है। उत्तर भारत के पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में पीला रतुआ के प्रकोप से साल 2011 में करीब तीन लाख हेक्टेयर गेहूँ के फसल का नुकसान हुआ था।

आईसीएआर-भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान के वैज्ञानिक डॉ प्रेम लाल कश्यप आगे समझाते हैं, “प्यारे किसान भाइयों मैं ये बताना चाहता हूँ कि पीला रतुआ की पहचान कैसे करें? पीला रतुआ में पत्तियाँ धरीदार पीले रंग लाइन दिखाई देंगी। हाथों छूने पर एक पीले रंग जो हल्दी की तरह दिखने वाला एक पाउडर निकलेगा। इसका का मतलब ये है कि जो आपके खेत में पिला रतुआ रोग हैं वो आ चुका है।”

अब अगर इसके रोकथाम की बात करें तो इससे बचाव की दो दवाइयाँ हैं। रोग के लक्षण दिखाई देते ही 200 मिली. प्रोपीकोनेजोल 25 ई.सी. या पायराक्लोट्ररोबिन प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। रोग के प्रकोप और फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल में करें।

डॉ ज्ञानेंद्र आगे समझाते हैं कि किसान अपनी फसल पाए निगरानी बनाए रखें। पीला रतुआ और पीलेपन में कन्फ्यूजन ना करें, यदि कोई दिक्कत होती है तो हमें संपर्क करें ताकि हम यह उसका समाधान किसान को दें सकें।

और दूसरी बात ध्यान रखें जब आप इस का इस्तेमाल करें तो आप देखें कि मौसम साफ होना चाहिए। किसी तरह की बारिश होने की संभावना नहीं होनी चाहिए और आप लगातार इसके इस्तेमाल रहे और आपको लगे। यदि ये दवाई प्रभाव नहीं है तो आप फिर इस दवाई का छिड़काव करें। इस तरह से आप इसकी रोकथाम कर सकते हैं।

पीला रतुआ का जैविक प्रबंधन

जैविक प्रबंधन एक किग्रा. तम्बाकू की पत्तियों का पाउडर 20 किग्रा. लकड़ी की राख के साथ मिलाकर बीज बुवाई या पौध रोपण से पहले खेत में छिड़काव करें।

गोमूत्र व नीम का तेल मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर लें और 500 मिली. मिश्रण को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर छिड़काव करें।

गोमूत्र 10 लीटर व नीम की पत्ती दो किलो व लहसुन 250 ग्राम का काढ़ा बनाकर 80-90 लीटर पानी के साथ प्रति एकड़ छिड़काव करें।

पाँच लीटर मट्ठा को मिट्टी के घड़े में भरकर सात दिनों तक मिट्टी में दबा दें, उसके बाद 40 लीटर पानी में एक लीटर मट्ठा मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।

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