महाराष्ट्र के नंदुरबार में आदिवासी बच्चों की पढ़ाई का जिम्मा उठाने वाली जीवनशालाएं

नंदुरबार महाराष्ट्र के सबसे कम विकसित जिलों में से एक है। आदिवासी आबादी का एक बड़ा हिस्सा हर साल गन्ना काटने के काम के लिए मौसमी रूप से पलायन करता है। इस दौरान वे अपने बच्चों को जीवन शालाओं की देखरेख में गाँवों में पीछे छोड़ जाते है, जहां शिक्षक न सिर्फ उन्हें पढ़ाते हैं बल्कि उनकी अन्य जरूरतों का ख्याल भी रखते हैं। गाँव कनेक्शन ने दूर-दराज के आदिवासी गाँवों का दौरा किया और उन शिक्षकों से मुलाकात की जो इन जीवन शालाओं को चला रहे हैं।
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नंदुरबार (महाराष्ट्र)। आदिवासी बहुल नंदुरबार के ग्रामीण इलाके समय के साथ चलने में असफल रहे हैं। ये गाँव दूर-दराज के इलाकों में बसे हैं। यहां तक आने के लिए किसी तरह का कोई साधन नहीं है। गाँव में पक्की सड़कें नहीं हैं और बिजली भी अकसर गुल ही रहती है।

ऐसा ही एक गाँव है स्वर्या दीगर, जो जिला मुख्यालय से तकरीबन 100 किलोमीटर दूर है। भील आदिवासियों के कई बच्चे स्लेट पर कुछ लिखने में व्यस्त हैं, सामने बैठा शिक्षक उनके लिखने के तरीके पर नजर गड़ाए हुए हैं। दरअसल यह सरदार सरोवर बांध से प्रभावित आदिवासी परिवारों के बच्चों के लिए स्थापित एक स्थानीय स्कूल जीवन शाला है, जहां उन्हें पढ़ाया जा रहा है। बच्चे भी पूरी तन्मयता के साथ अपनी पढ़ाई में व्यस्त हैं और यहां मिल रही शिक्षा का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं।

जीवनशाला के एक शिक्षक रुमाल सिंह पावरा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “यहां पढ़ने आने वाले ज्यादातर बच्चों के माता-पिता प्रवासी मजदूर हैं। जब उनके बच्चे मराठी में लिखते या बोलते हैं, तो उन्हें काफी गर्व महसूस होता हैं। हम इन बच्चों को यहां प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मुहैया कराते हैं।” 1997 में इस जीवनशाला की स्थापना की गई थी। पावरा तभी से यहां पढ़ा रहे हैं। नंदुरबार जिले में ऐसी चार जीवनशालाएं हैं। ये संस्थान एक तरह से प्राइमरी स्कूल की जिम्मेदारी निभाने का काम कर रहे हैं।

यहां पढ़ने आने वाले ज्यादातर बच्चों के माता-पिता प्रवासी मजदूर हैं। जब उनके बच्चे मराठी में लिखते या बोलते हैं, तो उन्हें काफी गर्व महसूस होता हैं।

यहां पढ़ने आने वाले ज्यादातर बच्चों के माता-पिता प्रवासी मजदूर हैं। जब उनके बच्चे मराठी में लिखते या बोलते हैं, तो उन्हें काफी गर्व महसूस होता हैं।

जीवनशालाएं सरकारी स्कूलों के विकल्प के रूप में काम करती हैं। स्थानीय निवासियों का आरोप है कि इन इलाकों में सरकारी स्कूल सिर्फ कागजों पर मौजूद हैं।

जीवनशाला के एक अन्य शिक्षक रमेश ज्ञान ने गाँव कनेक्शन को बताया, “सबसे नजदीकी सरकारी स्कूल बिलगाँव में स्थित है, जो यहां से कम से कम 15 किलोमीटर दूर है। आने-जाने के लिए कोई साधन नहीं है और सरदार सरोवर बांध के बैकवाटर ने इसे और भी मुश्किल बना दिया है। छोटे बच्चे रोजाना इतनी दूरी तय नहीं कर सकते हैं।”

स्वर्या दीगर गाँव से 100 किमी दूर अक्कलकुवा शहर के पास नंदुरबार के मणिवेली गाँव में भी एक जीवनशाला है। सतपुड़ा पहाड़ियों के बीच से होते हुए इस गाँव की पास की सड़क 16 किलोमीटर दूर है। इस स्कूल में 104 बच्चे पढ़ते हैं।

स्कूल के एक शिक्षक गुरु सिंह ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मैं पिछले 16 सालों से यहां पढ़ा रहा हूं। अगर मैं किसी आरामदायक जगह पर चला गया तो इन बच्चों को पढ़ाने वाला कोई नहीं होगा, बस यही सोचकर मैं यहां रूक गया। मेरे जाने से इन बच्चों को परेशानी हो जाती।” उन्हें डर था कि अगर इन बच्चों को शिक्षा से दूर रखा गया, तो वे भी अपने माता-पिता की तरह मजदूरी करने में लग जाएंगे और शोषण का शिकार होंगे।

इन सभी जीवनशालाओं के प्रबंधन और फंड की जिम्मेदारी नर्मदा नव निर्माण अभियान की तरफ से उठाई जा रही है। यह मुबंई स्थित एक ट्रस्ट है, जो गुजरात में सरदार सरोवर बांध के निर्माण से विस्थापित समुदायों के पुनर्वास और सहायता के लिए काम करता है।

ट्रस्ट की वेबसाइट के अनुसार, सरदार सरोवर बांध के निर्माण से गुजरात के 19 गाँव, महाराष्ट्र के 33 गाँव और मध्य प्रदेश के 193 गाँव डूब गए, जहां भील, भिलाला, पवार और तड़वी जैसे आदिवासी समुदाय रहा करते थे। इन क्षेत्रों में सरकार की तरफ से दी जाने वाली सुविधाएं काफी कम और अनियमित हैं। सरदार सरोवर बांध के बैकवाटर ने उन्हें द्वीप गांवों में बदल दिया है, क्योंकि कई गांवों तक तो सिर्फ एक नाव के जरिए पहुंचा जा सकता है।

स्कूल में पढ़ने वाले 11 साल के छात्र कैलाश भरत परवा के मुताबिक उसे हिंदी बोलना नहीं आता है और न ही वह कभी हिंदी सीख पाया है। इसकी वजह किसी भी एक जगह पर उसके लंबे समय तक टिक कर न रहना है।

कैलाश ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जब मेरे माता-पिता पंढरपुर में काम करने के लिए चले गए, तो मैंने भी स्कूल जाना छोड़ दिया था। यह मेरे गाँव से बहुत दूर है। वे मुझे साथ ले जाते हैं और जब मैं घर लौटता हूं तो भूल जाता हूं कि मैंने क्या सीखा था।”

इन सभी जीवनशालाओं के प्रबंधन और फंड की जिम्मेदारी नर्मदा नव निर्माण अभियान की तरफ से उठाई जा रही है।

इन सभी जीवनशालाओं के प्रबंधन और फंड की जिम्मेदारी नर्मदा नव निर्माण अभियान की तरफ से उठाई जा रही है।

कैलाश सोलापुर जिले के पंढरपुर से 654 किलोमीटर दूर स्वर्या डिगर गाँव की जीवनशाला में पढ़ने आता है। वहां उसके माता-पिता गन्ना काटने का काम करते हैं। स्वर्या दीगर के इस जीवनशाला स्कूल में 81 आदिवासी छात्र पढ़ते हैं। ये स्कूल रात में उन आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने के लिए चलाए जाते हैं जिनके माता-पिता उन्हें महाराष्ट्र और गुजरात के अन्य जिलों में गन्ना काटने के लिए कुछ महीनों के लिए छोड़ कर चले जाते हैं।

खस्ताहाल सड़कें, न के बराबर सुविधाएं

एक स्थानीय शिक्षिका संगीता वासावे ने गाँव कनेक्शन को बताया कि मणिवेली गाँव में स्थित जीवन शाला में बिजली नहीं है और आसपास सांपों का प्रकोप है। उन्होंने आगे कहा, “यह भयानक वास्तविकता है जिसके साथ बच्चे बड़े होते हैं। शहर में रहने वाला कोई भी बच्चा ऐसी परिस्थितियों में नहीं सीख सकता है। गाँव के आधे घरों तक तो सिर्फ एक नाव के जरिए पहुंचा जा सकता है।”

जीवन शाला के एक अन्य शिक्षक गुरु सिंह ने कहा, “यहां जीवन काफी मुश्किल है। पिछले महीने, हमारे रसोइयों में से एक पहाड़ी से नीचे गिर गया और हमें उसका इलाज कराने के लिए उसे एक खाट पर लिटाकर 16 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ी थी। ”

मणिवली गाँव में रहने वाले 65 साल के नटवर मदन तड़वी ने गुस्से में कहा, “हमने 1993 में इस जीवनशाला को स्थापित करने में मदद की थी। यह हमारे भविष्य की एकमात्र कुंजी है। सरकार के लिए तो हमारा अस्तित्व ही नहीं हैं। कोई भी सरकारी अधिकारी हम तक पहुंचने और हमारी दुर्दशा देखने के लिए 16 किलोमीटर चलकर नहीं आना चाहता है।”

सभी बाधाओं को पार किया

लेकिन इन बच्चों ने तमाम बाधाओं के बावजूद सफलता की एक नई कहानी गढ़ी है।

दानेल गाँव की एक अन्य जीवनशाला के प्रधानाध्यापक राजेश वसावे ने गर्व के साथ गाँव कनेक्शन को बताया, “यहां पढ़ चुके कई छात्र महाराष्ट्र में विभिन्न विभागों में सरकारी कर्मचारी के रूप में काम कर रहे हैं। हमारी एक पूर्व छात्रा को इस गाँव की सरपंच चुना गया था।” फिलहाल इस स्कूल में कुल 124 बच्चे पढ़ते हैं।

दानेल गाँव के 75 वर्षीय निवासी नूरजी कलचा पड़वी ने कहा, “तीस साल पहले गाँव में सिर्फ तीन आदिवासी मराठी पढ़ या लिख सकते थे। आज जब मैं जीवनशाला में पढ़ने वाले बच्चों को देखता हूं तो मुझे लगता है कि मैं चैन से मर सकता हूं। पहले प्रशासन को अपनी दुर्दशा सुनाना भी मुश्किल हो जाया करता था क्योंकि हम अनपढ़ थे।”

वह कहते हैं, “मेरा अनुभव कहता है कि सबसे कमजोर लोगों के लिए शिक्षा एक हथियार है। हम आदिवासियों का लगातार शोषण हो रहा है। इन बेड़ियों को तोड़ने के लिए हमने यहां 1993 में पहली जीवनशाला स्थापित करने में मदद की थी।”

शाहदा कस्बे के जीवन नगर गाँव की एक जीवनशाला के प्रधानाध्यापक तुकाराम पावरा गाँव कनेक्शन को बताते हैं कि साल में एक बार मेले का आयोजन किया जाता है ताकि ग्रामीण बच्चों को अपने गाँव से बाहर की दुनिया के बारे में जानने का मौका मिल सके।

तुकाराम पावरा ने कहा, “हम इन बच्चों को बाहर भी ले जाते हैं। उनमें से कई तो पहली बार किसी ट्रेन, बस और बाजार को देख रहे होते हैं। कई बार तो उनमें से कुछ के लिए पहली बार इलेक्ट्रिसिटी को देखना भी किसी आश्चर्य से कम नहीं होता है।”

तुकाराम ने बताया, ” हम उन्हें सिखाते हैं कि फूस की छत कैसे बनाई जाती है, कैसे अपने पर्यावरण की देखभाल करनी है, अपनी सेहत,कल्याण और संविधान में दिए गए अपने अधिकारों की देखभाल कैसे करनी है।”

अधूरे वादे

डूब चुके गाँवों के लिए मुआवजे के रूप में जमीन देने का वादा किए जाने के बावजूद नर्मदा नदी के किनारे नंदुरबार के सुदूर इलाकों के निवासियों को कुछ भी नहीं मिला है।

नर्मदा नव निर्माण अभियान ट्रस्ट के अनुसार, शांतिपूर्ण तरीके से जीने वाले ये आत्मनिर्भर आदिवासी अब ऊपर की ओर बांध से पानी छोड़े जाने से लगातार खतरे के साये में जी रहे हैं। उन्हें सांपों और मगरमच्छों का भी खतरा है। चिकित्सा सुविधाओं तक पहुंच की कमी इनकी मुश्किल परिस्थितियों को और बढ़ा देती है।

ट्रस्ट की वेबसाइट बताती है कि बाढ़ के पानी से बचने के लिए आदिवासी परिवार ऊपर पहाड़ों पर चले गए हैं। जैसे-जैसे बांध की ऊंचाई बढ़ती है, वैसे-वैसे जलमग्नता का स्तर भी बढ़ता जाता है और पहाड़ियां छोटे-छोटे द्वीप बन जाते हैं। यह इलाके मानसून में कीचड़ में तब्दील हो जाते हैं।

2021 में प्रकाशित महाराष्ट्र के जिला घरेलू उत्पाद 2011-12 से 2019-20 के अनुसार, नंदुरबार 95, 605 रुपये प्रति व्यक्ति आय के साथ तीन सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले जिलों में से है। साल 2019-20 के पहले संशोधित अनुमान के अनुसार गढ़चिरौली (98,420 रुपये) और वाशिम (91,548 रुपये) बाकी दो जिले हैं।

अगर हम इसकी तुलना मुंबई (मुंबई शहर और मुंबई उपनगरीय एक साथ) से करें तो वहां लोगों की अधिकतम प्रति व्यक्ति आय (339,751 रुपये) है। इसके बाद ठाणे (पालघर सहित) का नंबर आता है जिसकी प्रति व्यक्ति आय 288,810 रुपये है, जबकि पुणे की प्रति व्यक्ति आय 278,45 रुपये है।

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