छत्तीसगढ़: बिना वेतन के पिछले चार सालों से बच्चों को पढ़ा रहे हैं आदिवासी स्कूल के शिक्षक

छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले में अभ्यारण शिक्षा समिति उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक चार साल से वेतन नहीं मिलने के बावजूद अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटे हैं। वे एक सरकारी अनुदान के इंतजार में हैं। उन्हें उम्मीद है कि ये अनुदान स्कूल को बचाए रखने और गोंड व बैगा आदिवासी बच्चों की शिक्षा सुचारू रूप से चलते रहने में मदद करेगा।
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पत्तों की सरसराहट और पक्षियों की चहचहाट बच्चों के शोर और स्कूल की घंटी की आवाज के साथ सहज रूप से घुल-मिल गई है। आसपास बैंगनी रंग के बेहद सुंदर ढेर सारे फूल खिले हैं। इसी खूबसूरत नजारे के बीच पीडी खेड़ा नाम से मशहूर अभ्यारण शिक्षा समिति उच्चतर माध्यमिक स्कूल के बच्चे सीखने और खेलने में व्यस्त हैं।

स्कूल राज्य की राजधानी रायपुर से लगभग 185 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले में अचानकमार टाइगर रिजर्व के छपरवा रेंज में स्थित है। 20-25 किलोमीटर के दायरे में यह एकमात्र हाई स्कूल है। इसकी एक मंजिला इमारत में सात कमरे और एक बरामदा है।

स्कूल 2008 से चल रहा है, जिसे दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक सेवानिवृत्त कॉलेज प्रोफेसर पीडी खेड़ा ने यहां रहने वाले गोंड और बैगा आदिवासी समुदायों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए स्थापित किया था।

सामाजिक विज्ञान और संस्कृत विषय के अध्यापक योगेश जायसवाल इस स्कूल के सबसे पुराने टीचर हैं। वह यहां पिछले 14 सालों से बच्चों को पढ़ाते आ रहे हैं और खासे चिंतित हैं।

सामाजिक विज्ञान और संस्कृत विषय के अध्यापक योगेश जायसवाल इस स्कूल के सबसे पुराने टीचर हैं। वह यहां पिछले 14 सालों से बच्चों को पढ़ाते आ रहे हैं और खासे चिंतित हैं।

यह हायर सेकेंडरी स्कूल पहले सिर्फ नौवीं और दसवीं कक्षा तक के बच्चों के लिए था। बाद में इसमें ग्यारहवीं और बारहवीं के छात्रों को भी पढ़ाया जाने लगा। आज यह स्कूल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। कुल मिलाकर इस स्कूल में पांच शिक्षक, एक क्लर्क और एक कंप्यूटर ऑपरेटर है और यहां तकरीबन 100 आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं।

शिक्षकों ने शिकायत की कि स्कूल के किसी भी कर्मचारी को पिछले चार साल से वेतन नहीं मिला है। उन्होंने कहा कि फिलहाल स्कूल को वादा किए गए एक सरकारी अनुदान का इंतजार है।

सामाजिक विज्ञान और संस्कृत विषय के अध्यापक योगेश जायसवाल इस स्कूल के सबसे पुराने टीचर हैं। वह यहां पिछले 14 सालों से बच्चों को पढ़ाते आ रहे हैं और खासे चिंतित हैं।

जायसवाल ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हमारे यहां पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों के परिवारों में से पहले कोई नहीं पढ़ा है. इनमें से कुछ के माता-पिता ने ही प्राथमिक स्तर तक पढ़ाई की हुई है। मैं स्कूल के भविष्य को लेकर चिंतित हूं। मुझे नहीं पता कि आगे क्या होगा।”

हर महीने 10,500 रुपये वेतन पाले वाले जायसवाल को अपनी पिछली सैलरी साल 2018 में मिली थी। लेकिन आज भी इस उम्मीद पर कायम हैं कि शायद कुछ अच्छा हो जाए। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “मेरा भी परिवार है। उसकी सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही है। अगर स्कूल को अनुदान मिल जाता है, तो हमारा जीवन बन जाएगा।”

जायसवाल को पिछले 45 महीने से सैलरी नहीं मिली है। उनके परिवार में उनकी पत्नी, दो बच्चे और उनके पिता हैं। उन्होंने कहा, “ अभी तक तो अपनी बचत से ही गुजारा चलता आया है। बाकी के शिक्षकों की तरह मुझे भी स्कूल में सप्ताह में तीन बार आना होता है।”

कुल मिलाकर इस स्कूल में पांच शिक्षक, एक क्लर्क और एक कंप्यूटर ऑपरेटर है और यहां तकरीबन 100 आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं।

कुल मिलाकर इस स्कूल में पांच शिक्षक, एक क्लर्क और एक कंप्यूटर ऑपरेटर है और यहां तकरीबन 100 आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं।

जायसवाल के साथी और गणित, अर्थशास्त्र एवं भौतिकी के शिक्षक सोनू सिंह मरकाम ने भी उम्मीद जताई कि स्कूल को अनुदान मिल जाएगा। मरकाम ने कहा, “स्कूल आने-जाने में मुझे रोजाना 20 किलोमीटर का सफर तय करना होता है। अगर लौटते समय देर हो गई तो चीते और भालुओं से भिड़ने का खतरा भी सर पर मंडराता रहता है। जब हम स्कूल को बचाए रखने के लिए इतना प्रयास कर रहे हैं, तो सरकारी अनुदान मिलना चाहिए।”

2018 में रमन सिंह के छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रहते हुए घोषणा की गई थी कि अभ्यारण शिक्षा समिति उच्चतर माध्यमिक विद्यालय को सरकारी स्कूल बनाया जाएगा। क्योंकि शिक्षकों के पास आवश्यक बीएड योग्यता नहीं थी, इसलिए उन्हें सरकारी अनुदान देने का वादा किया गया था।

स्कूल के क्लर्क प्रसन्ना सिंह नेताम ने कहा, “शिक्षकों के वेतन का भुगतान करने के लिए 2020-21 में 35 लाख रुपये की राशि निर्धारित की गई थी। लेकिन यह पैसा आज तक जारी नहीं किया गया है। सारा मामला लालफीताशाही में उलझा हुआ है।” नेताम पिछले पांच सालों से इस स्कूल में काम कर रहे हैं।

आदिवासी बच्चों के लिए एक स्कूल

1982 में दिल्ली यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर पी.डी. खेड़ा छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के बीच पड़ने वाले अचानकमार-अमरकंटक बायोस्फीयर रिजर्व घूमने के लिए आए थे। उन्हें इस जगह से इतना प्यार हो गया कि रिजर्व में मौजूद लमनी नामक जगह में आकर बस गए। अपने रिटायरमेंट के बाद उन्होंने गोंड और बैगा बच्चों के लिए स्कूल शुरू किया।

एक पूर्व छात्र कुमार शानू सियाम ने गाँव कनेक्शन को बताया, “अगर खेड़ा सर अचानकमार नहीं आते, तो मेरे जैसे लोगों को आठवीं क्लास से आगे पढ़ने का मौका नहीं मिल पाता। चूंकि यह एक आरक्षित वन क्षेत्र है, इसलिए कोई शिक्षक यहां नहीं आना चाहता।” सियाम इस स्कूल में साइंस टीचर हैं और 2016 से बच्चों को पढ़ा रहे हैं।

32 साल के सियाम रोजाना 20 रुपये किराए में खर्च करके बस से स्कूल तक का सफर तय करते हैं। वह बिंदावल में रहते है जो स्कूल से करीब चार किलोमीटर दूर है।

फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने का खेड़ा का सपना अधूरा रह जाएगा। शिक्षकों को चार साल से वेतन नहीं मिला है, जिसके चलते आदिवासी बच्चों की शैक्षिक संभावनाएं डांवाडोल होती नजर आने लगी हैं। सियाम ने कहा, ” आस-पास कोई दूसरा स्कूल नहीं है। अगर यह बंद हो जाता है, तो छात्र आगे की पढ़ाई नहीं कर पाएंगे।”

इद्रीस खान 11 और 12 के छात्रों को इतिहास और नौंवी व दसवीं के बच्चों को सामाजिक विज्ञान और हिंदी पढ़ाते हैं। नजदीकी गौरेला-पेंड्रा-मरवाही जिले में रहने वाले 43 साल के खान ने कहा, “मेरी अंतर -आत्मा मुझे इजाजत नहीं देती कि मैं सिर्फ इसलिए पढ़ाना छोड़ दूं क्योंकि मुझे वेतन नहीं मिल रहा है।” वह रोजाना बस से 60 किमी का सफर तय करके स्कूल पहुंचते हैं।

उन्होंने बताया, “मैं सुबह 9.10 बजे पहुंचने के लिए सुबह 6.10 वाली बस पकड़ता हूं।” उन्होंने कहा कि वह स्कूल आने के लिए रोजाना जेब से 200 रुपये खर्च करते हैं। उन्होंने कहा, “लेकिन जब आदिवासी बच्चों का भविष्य दांव पर लगा है तो मैं शिक्षक बनना कैसे छोड़ सकता हूं।” सौभाग्य से उनकी परिस्थितियां उन्हें ऐसा करने की इजाजत देती हैं। उन्होंने कहा कि वह बिना पैसा मिले भी पढ़ा रहे हैं क्योंकि वह 15 लोगों के संयुक्त परिवार में रहते हैं। उनके भाई का व्यवसाय है, जिसकी मदद से वह यह सब कर पा रहे हैं।

खान पहले पेंड्रा जिले के डीएवी मुख्यमंत्री पब्लिक स्कूल में पढ़ाते थे, जहां उन्हें वेतन के रूप में हर महीने 34,500 रुपये मिलते थे। वह पीडी खेड़ा स्कूल में इसके संस्थापक के ऐसा करने के अनुरोध पर शामिल हुए थे। उन्होंने कहा, “मैंने उस समय सोचा था कि यह जल्द ही एक सरकारी स्कूल बन जाएगा।”

खान ने उम्मीद जताई कि वादा किए गए अनुदान से किसी भी शिक्षक को नौकरी नहीं छोड़नी पड़ेगी और सभी को अपना बीएड पूरा करने का मौका भी मिल जाएगा। शिक्षक और छात्र दोनों को उम्मीद हैं कि स्कूल अपनी इन मुश्किलों से बाहर निकल जाएगा।

वादे के मुताबिक मिलने वाला पैसा

स्कूल के शिक्षकों के अनुसार, जब खेड़ा जीवित थे (2019 में उनका निधन हो गया) तो कई दानदाता स्कूल का समर्थन करने के लिए आगे आए थे। इसे कई बार CAMPA (प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण) से भी पैसा मिला था, लेकिन अब वह भी मिलना बंद हो गया है।

जायसवाल ने बताया कि छात्रों से सालाना लगभग 750 रुपये से 850 रुपये फीस ली जाती है, जो सरकारी स्कूलों के बराबर है। जायसवाल ने कहा, “कक्षा 9 और 10 के छात्रों को किताबें और नोटबुक फ्री में दी जाती हैं। हाई स्कूल के छात्रों को किताबें खरीदनी पड़ती हैं, लेकिन कभी-कभी उन्हें मुफ्त में भी मुहैया करा दी जाती हैं और बदले में वे अपने जूनियर्स को अपनी पुरानी किताबें दे देते हैं।”

नौवीं और दसवीं के छात्रों को विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, गणित, हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी विषय पढ़ाए जाते हैं। जबकि 11 और 12 वीं के साइंस स्ट्रीम के बच्चों को भौतिकी, रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान पढ़ाया जाता है। आर्ट के छात्रों को इतिहास, राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र पढ़ाया जाता है। अंग्रेजी और हिंदी विषय दोनों के लिए कॉमन हैं।

बिंदावल गाँव के निवासी और स्कूल के पूर्व छात्र चूरन सिंह श्रीवास ने गांव कनेक्शन को बताया, “यह क्षेत्र का एकमात्र हाई स्कूल है। 12-13 गांवों के छात्र उच्च शिक्षा के लिए इसी पर निर्भर हैं। वे मानसून में बहने वाली धाराओं को पार करके और सड़कों के न होने के बावजूद यहां पढ़ने के लिए आते हैं।”

श्रीवास खुद स्कूल जाने के लिए आधे घंटे या उससे अधिक समय तक पैदल चलकर यहां तक पहुंचते थे। क्योंकि जहां वह रहते थे, वहां से आने-जाने के लिए कोई बस उपलब्ध नहीं थी। किशोर फिलहाल नाई का काम करते हैं. वह कॉलेज जाना चाहते थे। मगर उनकी ये इच्छा पूरी नहीं हो पाई। उन्होंने कहा, “मेरे परिवार के पास मुझे कॉलेज भेजने के लिए पैसे नहीं थे।”

12वीं कक्षा में पढने वाली बैगा आदिवासी सीमा धुर्वे ‘लमनी’ रेंज में रहती है। उनके जैसे कई छात्र स्कूल आने के लिए सुबह की बस पकड़ते हैं और शाम को 4 बजे के बाद ही घर की ओर निकलते हैं। उनका घर स्कूल से 20-25 किमी दूर है। तस्वीर- दीपान्विता गीता नियोगी

12वीं कक्षा में पढने वाली बैगा आदिवासी सीमा धुर्वे ‘लमनी’ रेंज में रहती है। उनके जैसे कई छात्र स्कूल आने के लिए सुबह की बस पकड़ते हैं और शाम को 4 बजे के बाद ही घर की ओर निकलते हैं। उनका घर स्कूल से 20-25 किमी दूर है। तस्वीर- दीपान्विता गीता नियोगी

मुंगेली जिले के कलेक्टर राहुल देव ने माना कि उन्हें इस समस्या की जानकारी है। उन्होंने गांव कनेक्शन को फोन पर बताया, “मैं स्कूल के मामले को सरकार के सामने उठाऊंगा। स्कूल के स्टाफ सदस्य हाल ही में यहां आए थे और शुक्रवार (24 फरवरी) को मुझसे मिले थे। मैंने डिप्टी कलेक्टर को मामले को देखने और इस पर काम करने के लिए कहा है।”

मुंगेली के डिप्टी कलेक्टर नवीन भगत ने गाँव कनेक्शन को बताया, “2020-21 में 35,68,000 रुपये जारी किए गए थे। इसमें से 26,52,000 रुपये शिक्षकों के वेतन भुगतान के लिए रखे गए थे। मैं यह पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं कि वह पैसा कहां है।

उधर, अचानकमार टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर एस.जगदीशन भी ‘टाइगर कंजर्वेशन फाउंडेशन’ से कुछ आर्थिक सहायता देने पर विचार कर रहे हैं।

दीपक सोनी स्कूल में अंग्रेजी के टीचर हैं और साथ ही स्कूल समिति के सचिव के रूप में भी काम करते हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “स्कूल ठीक ढंग से चलता रहे, इसके लिए 2013 में एक स्कूल समिति का गठन किया गया था।” समिति में आसपास के गांवों के 13 सदस्य हैं। सोनी ने कहा, “स्कूल किसी तरह अगले तीन महीने तक और चल सकता है।”

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