“मुझे मालूम है जितना चाहूँगा यहाँ पढ़ाई कर सकता हूँ बेसहारा नहीं हूँ”

वाराणसी में एक संस्था वसुधैव कुटुम्बकम की तर्ज़ पर काम कर रही है। करीब दो दशकों से कुटुंब नाम की ये संस्था ऐसे बच्चों और महिलाओं का परिवार है जो कभी बेसहारा थे।
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जयपुर में कानून की पढ़ाई कर रहे 19 साल के अतुल को मालूम ही नहीं वो कब वाराणसी में कुटुम्ब आए थे, बस याद है तो अपना खुशहाल बचपन जो कुटुम्ब में दूसरे बच्चों की तरह ही गुजरा।

“मैं जब क्लास 5 में था तभी से कहता था मुझे जज बनना है इसलिए मैं लॉ की पढ़ाई कर रहा हूँ। “अतुल ने गाँव कनेक्शन से कहा।

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 315 किलोमीटर दूर वाराणसी के चिउरापुर गाँव में कुटुंब की शुरुआत 2002 में हुई थी जहाँ आज 32 बच्चे रहते हैं। कुटुंब के तीन बच्चे स्कूल की पढ़ाई पूरी कर जयपुर में कानून पढ़ रहे हैं।

कुटुंब की शुरुआत करने वाले डॉक्टर आशीष गाँव कनेक्शन को बताते हैं, “कुटुंब को शुरू करने का मकसद ऐसे बच्चों को घर के वातावरण में प्रेम, सहयोग और परिवार की भावना देना था जिनका वर्तमान संघर्षों से भरा था और भविष्य खतरे में।”

वे आगे कहते हैं, “मैं पेशे से डाक्टर हूँ, ऐसे मरीज जो ड्रग्स लेते हैं उनका इलाज करता हूँ, काफी मरीजों का इलाज किया, लेकिन मैंने देखा कई बार बहुत मेहनत के बाद भी रिजल्ट उतना अच्छा नहीं आ पा रहा है। ठीक होने के बाद वे फिर नशा करने लगते थे तब हमने बच्चों पर ध्यान देना शुरू कर दिया।”

आशीष कहते हैं, “रेलवे स्टेशन पर बहुत सारे बच्चे हैं जो पानी की बोतले बेचते हैं हमने ऐसे बच्चों की स्टोरी जानने की कोशिश की। सभी बच्चों की अपनी परेशनियाँ थी। स्टेशन पर ग्रुप होते हैं जो बच्चों को नशा खिलाते हैं और उनसे पैसे कमाते हैं। उन बच्चों को स्टेशन से हटाना सबसे ज़्यादा ज़रूरी था। मेरे पास ज़्यादा सुविधा तो नहीं थी लेकिन मैं 3 बच्चों को अपने फ्लैट में ले आया। आस पास के लोगों ने इस बात पर काफी ऐतराज़ जताया। उन्हें डर था कहीं उनके बच्चे इन बच्चों के कारण न बिगड़ जाए।”

आशीष की इस मुहिम में उनकी पत्नी पूजा भी सहयोग करती हैं।

कुटुंब के साथ आज 143 बच्चे जुड़े हुए हैं, और उनमें से 32 बच्चे कुटुंब फैमिली के साथ रहते हैं। जिनकी पढ़ाई और खाना जैसी सारी ज़िम्मेदारी कुटुंब ही उठाता है।

ख़ास बात ये है कि इसमें बच्चों को रोज़ स्कूल जाने पर जोर दिया जाता है। ऐसे बच्चे जो गाँव या फिर शहर में रहकर भी स्कूल से कटे हैं उन्हें उनके घर के करीब ही किसी अच्छे स्कूल में दाखिला दिला दिया जाता है। शाम की ट्यूशन और क्लासिकल संगीत और डान्स तक की शिक्षा भी दी जाती है।

34 साल की रानी विश्वकर्मा करीब तीन सालों से कुटुंब की देख रेख कर रहीं हैं।

रानी पहले अपने पति के साथ मुम्बई में रहती थीं लेकिन कोविड में पति की मौत हो गयी, उसके बाद से वे चिउरापुर में रहती हैं और कुटुंब के लिए काम करती हैं।

रानी गाँव कनेक्शन को बताती हैं, “तीन साल पहले डाक्टर भईया को हमारे बारे में पता चला तो हमारे यहाँ राशन लेकर आए तब हमनें डाक्टर भईया से कहा हमें कोई काम दिला दें। कुछ दिनों बाद मुझे कुटुंब की देख भाल के लिए बुला लिया गया।” रानी ने आगे कहा, “डाक्टर भईया सबकी मदद करते हैं मेरे दो बच्चे हैं बड़ा बेटा मेरे मायके में रहता है और 12 साल का छोटा बेटा कुटुंब में ही पढ़ाई करता है। हमें कोई पैसा नहीं देना पड़ता है ,सच आज भी इन्सानियत जिन्दा हैं।”

कुटुंब की टीम में 22 सदस्य हैं, जो बच्चों के विकास, सामुदायिक विकास और महिलाओं के लिए भी काम करते हैं।

आशीष बताते हैं उनके कुटुंब का खर्च लोगों की मदद से चलता है। बनारस, दिल्ली, मुम्बई तक से लोग सहयोग करते हैं कुछ अमेरिका,जर्मनी और फ्रान्स से मदद को आगे आए।

11वीं क्लास में पढ़ाई कर रहे 17 साल के चंदन जब 3 साल के थे कुटुंब परिवार का हिस्सा बन गए थे। वे कहते हैं, “मुझे तो याद नहीं मैं कब आया लेकिन नर्सरी से यहीं पढ़ाई कर रहा हूँ, मुझे मालूम है जितना चाहूँगा यहाँ पढ़ाई कर सकता हूँ।”

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