स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क
लखनऊ। गाँव से शहरों का पलायन अब आम बात हो चुकी है लेकिन नेपाल बॉर्डर से सटे उत्तर प्रदेश के बहराइच ज़िले में कुछ गाँव ऐसे हैं जहां के लोगों ने इससे बचने का रास्ता निकाल लिया। अब यहां के लोग मज़दूरी की तलाश में शहरों में भटकने नहीं जाते। इन गाँवों के लोगों ने सहफसली खेती करना शुरू किया। आज ये छोटी जोत के किसान सहफसल खेती करके अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। अब इन्हें दूसरे शहर जाने की न कोई चिंता रहती और न ही हर दिन मजदूरी की तलाश में भटकना पड़ता है।
बहराइच जिला मुख्यालय से लगभग 105 किलोमीटर दूर निहपुरवा ब्लॉक के कैलाशनगर गाँव में रहने वाले किसान द्वारिका प्रसाद (35 वर्ष) अपने 10 बिस्वा खेत में सहफसली खेती को लेकर अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं, “हमारे पास सिर्फ दस बिस्वा जमीन है, तीन साल पहले इस खेत में प्याज और लौकी की खेती की, पहली फसल में 15 हजार का मुनाफा हुआ, इससे मेरा विश्वास बढ़ा और तबसे मैं लगातार सब्जियों की सहफसली खेती लेने लगा, इसकी आमदनी से पूरे परिवार का खर्चा आराम से चल जाता है।”
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वो आगे बताते हैं, “10 बिस्वा में क्या पैदा होगा ये सोचकर कभी खेती पर ध्यान नहीं दिया, हर दिन दूसरों की मजदूरी करने जाते थे, कभी पैसा मिला कभी नहीं मिला, परिवार का खर्चा चलाना बहुत मुश्किल था लेकिन जबसे सब्जियों की सहफसली खेती करने लगा तब से मजदूरी करने के लिए भटकना नहीं पड़ता है, अब कई बीघा खेत बटाई पर ले लिए कई लोगों को हमारे खेतो पर रोजगार भी मिल गया है।”
द्वारिका प्रसाद जंगलों के बीच बसे गाँव में कम जोत वाले पहले किसान नहीं हैं जो अपने खेतों में सहफसल लेकर अच्छा मुनाफा कमा रहे हों। बल्कि इनकी तरह हजारों किसानो ने ये ठान लिया है कि अब ये पलायन करने के लिए दूसरे शहरों में नहीं जायेंगे और न ही मजदूरी तलाशने के लिए हर सुबह परेशान होंगे, बल्कि ये खुद अपनी खेती में सहफसल लेंगे और अपने से वंचित लोगों को रोजगार मुहैया कराएंगे।
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नहीं हैं रोजगार का साधन
भारत नेपाल की सीमा पर होने की वजह से जिले के कई गाँव वन्य जीव एरिया से जुड़े हुए हैं, यहां रोजगार का कोई साधन नहीं है। यहां रहने वाले लोगों और वन्य जीवों के बीच हमेशा संघर्ष रहा है। किसान हीरालाल (60 वर्ष) बताते हैं, “पूरी उम्र इन्ही जंगलों में गुजर गयी है, कभी जंगल की लकड़ी और पत्ते बेचकर रात का चूल्हा जलता जब से इन कामों पर रोक लग गयी तबसे दूसरे शहरों में पलायन करना हमारी मजबूरी बन गयी।”
इसलिए खेती की ओर बढ़ा झुकाव
रोजी रोटी के लिए खेती को ही क्यों चुना इस बात पर उनका कहना है, “हम पढ़े लिखे तो हैं नहीं कि हमें कहीं नौकरी मिल जाए, इतना पैसा भी नहीं कि इस बीहड़ में कोई खुद का बिजनेस शुरू किया जाये। परिवार का खर्चा कैसे चले इसके लिए रोजगार का कोई तरीका तो खोजना था, एक संस्था की मदद से हमने अपनी कम खेती में सब्जियों की सहफसल लेनी शुरू की, जब अच्छा मुनाफा हुआ तो पिपरमेंट पिराई का प्लांट लगवा लिया, तीन साल पहले एक बीघा में 300 केले के पौधे लगाये जिसमें एक लाख बीस हजार का मुनाफा हुआ।”
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दी गई सहफसली खेती की ट्रेनिंग
बहराइच जिले में देहात संस्था पिछले कई वर्षों से काम कर रही है। जब यहां रोजगार के स्रोत बंद हो गये तो संस्था ने सोचा यहां के पलायन को कैसे रोका जाए, तत्काल में रोजी रोटी के लिए सहफसली खेती को बढ़ावा देने के लिए 54 गाँव के लोगों को जैविक खेती करने का प्रशिक्षण दिया गया। इस संस्था के प्रमुख जितेन्द्र चतुर्वेदी का कहना है, “यहां के लोगों के रोजगार के लिए सहफसली खेती की एक हजार परिवारों को ट्रेनिंग दी गयी, कृषि को रोजी-रोटी का आधार बनाने के लिए संस्था ने एक हजार परिवारों को गोद लिया है, हमारा उद्देश्य है हर किसान की एक एकड़ की वार्षिक आय 50 हजार हो इसके लिए पिछले कई वर्षों से प्रयासरत हैं।”
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वो आगे बताते हैं, “किसान देसी बीज का इस्तेमाल करें, जैविक खाद और कीटनाशक खुद बनाये, इनकी जेब का पैसा बाजार न जाये, वर्मी कम्पोस्ट से लेकर कीटनाशक दवाइयां किसान खुद ही बना रहे हैं। देखा देखी हजारों किसान सहफसली फसल ले रहे हैं, जमीन पर अदरक, प्याल, आलू, और ऊपर प्लास्टिक के जाल पर करेले की खेती, लौकी की खेती किसान खूब कर रहे हैं।”