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उत्तर प्रदेश में फिर लहलहाएगी सनई की फसल, जूट उद्याेग को मिलेगा बढ़ावा

agriculture

लखनऊ। अंतराष्ट्रीय बाजार से लेकर भारतीय बाजारों में सनई के रेशे से बने सामानों की मांग बढ़ रही है। सनई के रेशे से फैशनेबल कपड़े, चप्पल, सजावटी सामाना और पैकेजिंग के लिए इस्तेमाल किया जाना वाला परंपरागत बोरा बनाया जा रहा है, लेकिन इसके बाद भी उत्तर प्रदेश में सनई की खेती घटती जा रही है।

कभी देश में सनई की कुल खेती का 40 प्रतिशत खेती उत्तर प्रदेश में होती थी लेकिन प्रदेश के किसानों का सनई की खेती से मोहभंग होना शुरू हो गया। ऐसे में एक बार फिर केन्द्र सरकार की सहायता से उत्तर प्रदेश कृषि विभाग ने राज्य में सनई की खेती को बढ़ावा देने के लिए काम करना शुरू कर किया है।

केन्द्र सरकार की जूट तकनीकी मिशन और विशेष जूट कार्यक्रम के तहत प्रदेश के 30 जिलों में सनई की खेती के लिए चयन किया गया है। इन जिलों में किसानों को विभाग सनई की खेती को प्रोत्साहित करने के साथ ही मदद भी दे रहा है। उत्तर प्रदेश कृषि विभाग के निदेशक ज्ञान सिंह ने बताया ” प्रदेश में सनई रेशा वाली फसलों के विकास के लिए योजना चल रही है। इस योजना से किसानों को लाभ मिलेगा साथ ही प्रदेश में रेशा उत्पादन और रेशा की गुणवत्ता में वृद्धि भी इस योजना से होगी। ”

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उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़, जौनपुर, आजमगढ़, सुल्तानपुर, सोनभद्र, मिर्जापुर, गाजीपुर, वाराणसी, बांदा और इलाहाबाद ऐसे जिले हैं जहां पर सनई की खेती सबसे ज्यादा होती है। इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर के कृषि वैज्ञानिक डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर ने बताया ” सनई अर्थात सनहेम्प सबसे पुराणी ज्ञात रेशेवाली फसल है जिसके तने से उत्तम गुणवत्ता वाला शक्तिशाली रेशा प्राप्त होता है जो की जूट रेशे से अधिक टिकाऊ होता है। ”

उन्होंने बताया कि सनई को देसी भाषा में पेटुआ या पटुआ भी कहते हैं। सनई की खेती रेशे, हरी खाद और दाने के लिए की जाती है। रेशे वाली फसलों में जूट के बाद सनई का स्थान आता है। सनई अनुसंधान संस्थान प्रतापगढ़ के कृषि वैज्ञानिक डा. मनोज कुमार त्रिपाठी ने बताया ” सनई के रेशे से परंपरागत रूप से रस्सियां, त्रिपाल, मछली पकड़ने के जाल, सुतली डोरी और झोले बनाए जाते हैं।”

उन्होंने बताया कि सनई के रेशे से अब उच्च कोटि के टिश्यू पेपर, सिगरेट पेपर, नोट बनाने के पेपर तैयार करने के लिए सबसे उपयुक्त कच्ची सामग्री के रूप में सनई को पहचाना गया है। सनई का रेशा निकालने के बाद इसकी लकड़ी को जलाने, छप्पर और कागज बनाने के लिए उपयोग किया जाता है।

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डॉ मनोज त्रिपाठी ने बताया कि सनई की खेती हरी खाद और चारे के लिए भी की जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर भूमि को लगभग 200-300 कुंतल का हरा जीवांश पदार्थ प्राप्त होता है जिसके सड़ने के बाद लगभग प्रति हेक्टेयर 80 से लेकर 95 किलोग्राम नाइट्रोजन मिलता है। इस प्रकार से अगली फसल में उर्वरक की मात्रा कम देनी पड़ती है। इसके अलावा जड़ों के माध्यम से सनई प्रति हेक्टेयर 60-100 किलोग्राम नाइट्रोजन वायुमण्डल से संस्थापित कर लेती है। इसके पौधे शीघ्र बढ़कर भूमि को आच्छादन प्रदान करते है जिससे खरपतवार नियंत्रित रहने के साथ साथ भूमि कटाव नहीं होता है। ऐसे में प्रदेश में सनई की खेती बढ़ने से किसानों को लाभ मिलेगा।

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