आदिवासी क्षेत्रों में कृषि को मिलेगा बढ़ावा, भारतीय कृषि विभाग ने शुरू की कई योजनाएं

kheti kisani

लखनऊ। देश के आदिवासी किसानों को मुख्यधारा से जोड़ने और उनके परंपरागत कृषि ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए कृषि विभाग भारत की तरफ से कई योजनाएं शुरू की गई हैं, जिनका लाभ उठाकर आदिवासी समृद्ध हो सकते हैं।

यह जानकारी देते हुए केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री सुदर्शन भगत ने बताया, “कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की तरफ से किसानों को मशरूम, मछली पालन, मुर्गी पालन (बैकयार्ड पोल्ट्री), देशी प्रजातियों के चूजों की समुचित व्यवस्था, सूकर पालन और मधुमक्खी पालन के लिए सुविधा दी जा रही है।“

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सुदर्शन भगत खुद झारखंड के उरांव आदिवासी हैं और लंबे समय से झारखंड के आदिवासी किसानों के लिए काम कर रहे हैं। आदिवासी क्षेत्रों में कृषि को बढ़ावा देने के लिए इनको खासतौर पर कृषि मंत्रालय में लाया गया है।

सुदर्शन भगत बताते हैं, “जनजातीय क्षेत्र के जोत का आकार छोटा है, इसलिए इनके जोत के आकार के अनुसार नई कृषि तकनीकों की ट्रेनिंग भी किसानों को दी जा रही हैं। आदिवासी किसानों को कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से नयी जानकारी देने के लिए देश में चल रहे 673 कृषि विज्ञान केन्द्रों में से 125 जनजातीय बाहुल्य वाले क्षे़त्रों में काम कर रहे हैं।”

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने पिछले तीन वर्षों में जनजातीय क्षेत्रों को सुदृढ़ करने के लिए काम कर रहा है। इसी कड़ी में आदिवासी किसानों को खेती-किसानी और कृषि अनुसंधान की जानकारी देने के लिए आदिवासी बाहुल्य असम और झारखंड में नए केन्द्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान स्थापित किए गए हैं।

वहीं उत्तरपूर्वी क्षेत्र में 6 नए कृषि कॉलेज को स्थापित किया गया है। इन क्षे़त्रों में 10 नये कृषि विज्ञान केन्द्र भी खोले गए हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सभी संस्थानों को आदिवासी क्षेत्रों में काम करने के लिए धन भी उपलब्ध कराया गया है। सभी संस्थान आदिवासी क्षेत्रों में फसल उत्पादन, बागवानी, पशुपालन, मछली उत्पादन का प्रशिक्षण देने के लिए काम कर रहे हैं।

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अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में कार्यरत केन्द्रीय द्वीप कृषि अनुसंधान संस्थान वहां की जनजातियों के मिलकर कृषि एवं पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहा है।केन्द्रीय जनजातीय मामलों की एक रिपोर्ट के अनुसार, आदिवासियों में मौसम के अनुकूल फसलों का चयन और प्रजातियों को उगाने का अद्भूत ज्ञान जनजातियों में पाया जाता है। वर्षों तक एक ही क्षेत्र में रहने, भ्रमण करने एवं वन-संपदा के संपर्क मे रहने से इनको पौधे की पहचान अत्यधिक रहती है जो कि किसी भी विषय-विशेषज्ञ से कम नहीं होती। पौध विज्ञान के खोजकर्ता को ऐसी अनुभवी जनजातियों की पहचान कर उनके अनुभव को उपयोग में लाने के लिए भी कृषि विभाग काम कर रहा है।

देश के आदिवासी क्षेत्र बहुत ही उपजाऊ हैं। रासायनिक खादों की पहुंच से दूर ये क्षेत्र कार्बनिक खेती और टिकाऊ खेती के लिए जाने जाते हैं। यहां के उत्पादों में विशेष गुण पाए जाते हैं, जैसे कड़कनाथ मुर्गी के मांस को विश्व के सबसे स्वादिष्ट एवं उपयोगी माना गया है। ऐसे में इन क्षेत्रों में प्रचलित फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के साथ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यहां के उत्पादों के विशेष गुणों एवं स्वाद का प्रचार-प्रसार करने के लिए भी विभाग योजना बना रहा है।

आदिवासी क्षेत्रों में ऐसी फसलें आज भी हैं जैसे नाईजर, तिल, कोदो, काकुन, कुटरी और रागी जो औषधीय गुणों के साथ-साथ काफी उच्च गुणवत्ता वाली हैं। ऐसे में इन मोटे अनाजों को खेती को बढ़ावा देने के लिए भी काम किया जा रहा है। आदिवासी समाज में अनाज भंडारण एवं ग्रामीण स्तर पर प्रसंस्करण की अपनी पारंपरिक विधिया हैं जिनको वैज्ञानिक अध्ययन के बाद अन्य क्षेत्रों में भी फैलाने के लिए योजना बनाई जा रही है।

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पांच हजार से ज्यादा प्रजातियों का पंजीकरण

पिछले तीन वर्षो में जनजातीय किसानों की तरफ से 5000 से अधिक प्रजातियों के पंजीकरण के लिए कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से भारत सरकार की संस्था पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण को आवेदन किया गया है जो कि भविष्य में जलवायु अनुकूल प्रजाति के विकास में निर्णायक भूमिका अदा करेगी।

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