लखनऊ। भारत इस समय दुनिया का सबसे बड़ा दलहन उत्पादक, उपभोक्ता और आयातक तीनों है। बावजूद इसके देश में दाल की भारी कमी है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल 17 मिलियन टन दाल पैदा होती है जो खपत से लगभग पांच लाख टन कम है। ऐसे में आईसीएआर के वैज्ञानिकों ने शोध के बाद 12 ऐसे सुझाव दिए हैं जिससे दाल की पैदावार से साथ-साथ किसानों का मुनाफा भी बढ़ सकता है।
भारतीय किसान अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के वैज्ञानिक डॉ. रंजीत कुमार और इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी एरिड ट्रोपिक्स (आईसीआरआईएसटी) हैदराबाद के वैज्ञानिक डॉ. केवी राजू ने भारत को दालों में आत्मनिर्भर बनाने के लिए 12 सुझाव दिए हैं जिससे मांग और खपत के बीच के गैप को पूरा किया जा सकता है।
दाल भारत में प्रोटीन का सबसे बड़ा स्त्रोत है। ज्यादातर भारतीयों की थाली में आपको दाल जरूर मिल जाएगी, इसी कारण दालों की सबसे ज्यादा खपत भारत में ही होती है। लेकिन चिंता की बात यह है कि मांग के अनुरूप आज भी पैदावार नहीं हो पा रही है। परिणाम स्वरूप कृषि प्रधान देश को दाल आयात करना पड़ रहा है।
चावल और गेहूं की अपेक्षा दालों की पैदावार में कम बढ़ोतरी हुई
दुनियाभर में दालों की जितनी पैदावार होती है, उसमें भारत का योगदान लगभग 25 फीसदी है जबकि खपत 28 फीसदी है। ऐसे में भारत को हर साल कनाडा, म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया और कुछ अफ्रीकन देशों से 2 से 6 मिलियन टन दाल आयात करना पड़ रहा है।
इन वैज्ञानिकों ने अपने शोधपत्र में लिखा है कि हरित क्रांति (1964-1972) के समय भारत का एक मात्र लक्ष्य कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बनना था। इसमें चावल और गेंहूं पर काफी ध्यान दिया गया। बहुफसलीय विधि, बेहतर बीजों और कीटनाशकों के प्रयोग से इसमें सफलता भी पाई गई।
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1960-61 की तुलना में 2013-14 में गेहूं की पैदावार 225 फीसदी बढ़कर 106 मिलियन टन हो गई तो वहीं चावल की पैदावार में 808 फीसदी की वृद्धि हुई और वो 95 मिलियन टन तक पहुंच गई। जबकि इस दौरान दालों की पैदावार महज 47 फीसदी बढ़कर 12.5 मिलियन टन से 18.5 मिलियन टन ही हो पाई। इन्हीं अध्ययनों को आधार मानकर वैज्ञानिकों ने अल्पकालिक, मध्यकालिक और लंबी अवधि की रणनीतियां तैयार की हैं जो इस प्रकार हैं।
अल्पकालिक रणनीति
1- दालों की ऐसी बीजों को प्रोत्साहित किया जाए जिससे ज्यादा पैदावार होती है। इसके लिए बीज वितरण प्रणाली को मजबूत करना चाहिए।
2- न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर उचित विचार करके किसानों के लिए लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना चाहिए।
3- कृषि विज्ञान केंद्रों की मदद से दाल के किसानों को आधुनिक तकनीकी की प्रेक्टिस कराई जाए।
4- उत्पादकों के करीब खरीदी केंद्र की व्यवस्था होनी चाहिए।
5- दालों पर केंद्रीत फसल बीमा योजना पर विचार करना होगा।
मध्यकालिक रणनीतियां
1- बंजर या खराब पड़ी भूमि को दाल उत्पादन के लिए तैयार करके उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।
2- किसान-निर्माता संगठन (एफपीओ) को दालों की खरीदी में भी सक्रिय करना चाहिए।
3- कृषि यंत्रों का विकास और बदलाव हो, एप आधारित गतिविधियां भी बढ़नी चाहिए।
4- ग्रामीण इलाकों में भंडारण और गोदामों की स्थापना।
5- अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए मांग/आपूर्ति की बेहतर देखरेख हो।
लंबी अवधि की रणनीतियां
1- कम समय में रोग प्रतिरोधी किस्मों के कीटों का प्रभाव में लाने के लिए संस्थानों की आर्थिक सहायता बढ़े।
2- कमी के दौरान भी गरीब परिवारों द्वारा न्यूनतम खपत सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में दालों को संगठित करना करना
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जर्नल ऑफ डेवलपमेंट पॉलिसी एंड प्रैक्टिस में प्रकाशित इस शोधपत्र में ये भी बताया गया है कि छोटे किसानों को दालों की फसल में रिस्क ज्यादा नजर आ रहा है जिस कारण वे अन्य फसलों की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। इसके लिए बढ़ता लागत और मजदूरी भी परेशानी बढ़ा रही है। भारत सरकार की ओर दालों का रकबा बढ़ाने का प्रयास भी लगातार किया जा रहा है जिसका रिजल्ट महाराष्ट्र और राजस्थान में देखा जा रहा है।
हालात सुधरने की उम्मीद
सरकार के आंकड़ों के अनुसार अगले सीजन (2018-19) में देश में 2.4 करोड़ टन दालों की जरूरत पड़ सकती है लेकिन संभावित उत्पादन और भंडारण को देखते हुए ये भी अनुमान लगाया जा रहा है कि अगले सीजन में दालों के आयात जरूरत नहीं पड़ेगी। दालों का उत्पादन बढ़ने से किसानों की आय बढ़ने के साथ-साथ इसके आयात पर खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा भी बचेगी। 2015-16 और 2016-17 में भारत ने 60 लाख टन से थोड़ा ही कम दाल आयात की थी। आंकड़ों के अनुसार इस पर हर साल 25 हजार करोड़ रुपए के बराबर की विदेशी मुद्रा खर्च हुई, लेकिन अब पूरे आसार हैं कि देश को अगले सीजन में दालों के आयात की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी।
नोट- (खबर आगे अपडेट होती रहेगी)