लखनऊ। अश्वगंधा कम लागत में अधिक उत्पादन देने वाली औषधीय फसल है। अश्वगंधा की खेती ज्यादा लाभ प्राप्त कर सकते हैं। अन्य फसलों की तुलना प्राकृतिक आपदा का खतरा भी इस पर कम होता है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में अश्वगंधा की माँग इसके अधिक गुणकारी होने के कारण बढ़ती जा रही है।
अश्वगंधा का वैज्ञानिक नाम विथानिआ सोमनिफेरा है। इसे असगंध, नागौरी असगंध, विंटर चेरी और इंडियन जिनसेंग नामों से भी जाना जाता है। यह सोलेनेसी कुल का पौधा है। इसकी उत्पत्ति उत्तरी पश्चिमी व मध्य भारत तथा उत्तरी अफ्रीका व मेडिटरेनियन क्षेत्र में हुई है। यह फसल शुष्क एवं अर्धशुष्क जलवायु में बहुतायत होती है। सामान्य रूप से हम यह कह सकते हैं की यह अत्यधिक कम जल मांग वाली फसल है।
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यह संपूर्ण भारत में लगभग 10,000 – 11,000 हेक्टेयर में होती है तथा लगभग 7,000 – 8,000 टन जड़ का उत्पादन प्रति वर्ष होता है। अश्वगंधा की खेती मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश और बिहार प्रांतों में काफी समय से होती चली आ रही है। नवीन क्षेत्रों में आंध्रा प्रदेश व तेलंगाना के असिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती बड़े पैमाने पर हो रही है।
केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ में कृषि विज्ञान और मृदा विज्ञान के शोधार्थी देवेंद्र कुमार बताते हैं, ” वर्तमान समय में पारंपरिक खेती में हो रहे नुकसान को देखते हुए अश्वगंधा की खेती किसानों के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।”
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अश्वगंधा का जीवन चक्र
अश्वगंधा एक बहुवष्रीय पौधा है तथा यदि इसके लिए निरंतर सिंचाई आदि की व्यवस्था होती रहे तो यह कई वर्षों तक चल सकता है परंतु इसकी खेती एक 6-7 माह की फसल के रूप में ली जा सकती है। प्राय: इसे देरी की खरीफ (सितम्बर माह) की फसल के रूप में लगाया जाता है तथा जनवरी-फरवरी माह में इसे उखाड़ लिया जाता है। इस प्रकार इसे एक 6-7 माह की फसल के रूप में माना जा सकता है जिसकी बिजाई का सर्वाधिक उपयुक्त समय सितम्बर का महीना होता है।
अश्वगंधा के लाभ
1- यह प्रतिरक्षा तंत्र को मज़बूत तथा कोलेस्ट्रॉल की मात्रा को कम करता है।
2- यह रक्त में शुगर लेवल को नियंत्रित रखने में मदद करता है।
3- यह कोलेजन (मुख्य संरचनात्मक प्रोटीन जो कि त्वचा व सहायक ऊतकों में पाई जाती है) को बढ़ाता है तथा अंगों के घावों को शीघ्र ही ठीक करता है।
4- अवसाद, चिंता, चिड़चिड़ापन तथा तनाव को कम करता है।
5- निष्क्रिय थॉयरॉइड को जगाने का काम करता है।
6- सूजन और दर्द को कम करना तथा मांसपेसियों व शारीर में स्फूर्ति लाने का काम करता है।
7- स्वस्थ प्रजनन क्षमता को बढ़ावा देता है।
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नवीन कृषि पद्धति को अपनाकर पाएं ज्यादा उत्पादन
1- खेत में बुआई छिड़काव विधि के स्थान पर कुटला चलाकर लगभग 1-1.5 इंच की गहराई पर बीजों का लाइन से बोना तथा लाइन से लाइन की दूरी 20-25 सेमी रखनी चाहिए।
2- खेत में सिंचाई बीजों के बोने के तुरंत बाद करना चाहिए, जिसके दो लाभ होते हैं, एक तो खेत में नमी पर्याप्त हो जाती है और बीजों का चींटियों के ले जाने से भी रोका जा सकता है।
3- बीजों को चीटियों से ले जाने से रोकने के लिए खेत के चारो ओर व क्यारियों के चारो तरफ से कीटनाशक पाउडर का इस्तेमाल करना चाहिए।
4- जब पौधें 10-15 सेमी के हो जाये उसी दौरान ठीक प्रकार से थिनिंग करना चाहिए, जिससे बचे हुए पौधों को पर्याप्त पोषक तत्व मिल सके और शेष पौधों की पैदावार अच्छी हो सके।
5- उत्तर मैदानी भागों में लगभग एक महीने में एक सिंचाई ही करनी चाहिए। अधिक सिंचाई न करें।
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6- यदि पौधौं की पत्तियों में पीलापन हो तो उस समय 2.5- 4 ग्राम प्रति लीटर यूरिया का घोल बनाकर छिड़काव करें।
7- यदि दीमक का प्रकोप दिखाई दे तो उस दौरान क्लोरोपाइरीफास 2-3 लीटर प्रति हेक्टयर सिंचाई के साथ दें।
8- यदि पौधों में फफूंद व कीड़ों का प्रकोप हो तो उस समय फफूंदीनाशक (रिडोमिल व कीड़ों के लिए क्षेत्रीय कीटनाशक ) 2.5 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से छिड़काव करने से निजात मिल जाती है।
9- यदि फसल अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में लगी है, तो उसे मार्च के अंतिम सप्ताह में हर संभव खुदाई कर लेनी चाहिए, जिससे जड़ों में कोई खराबी न हो।
औसत आय व्यय का ब्यौरा
फसल काल 170 – 180 दिन
कुल खर्च 40,000 – 50,000 रुपए प्रति हेक्टेयर
जड़ की उपज 08 – 10 कुंतल प्रति हेक्टेयर
कुल आय 1,20,000 – 1,50,000 रुपए प्रति हेक्टेयर
शुद्ध लाभ 80,000 – 1,00,000 रुपए प्रति हेक्टेयर
जड़ उत्पादन लागत 50 रुपए प्रति किलोग्राम
जड़ का बाजार भाव 15,000 रुपए प्रति कुंटल
इनपुट: देवेंद्र कुमार,शोधार्थी कृषि विज्ञान और मृदा विज्ञान, औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान लखनऊ
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