आधा मानसून गुजर गया। बारिश के इन दो महीनों में आमतौर पर जितनी बारिश होती है उससे 19 फीसदी कम बारिश हुई है। याद रखना चाहिए कि पिछले साल सामान्य से 6 फीसदी कम बारिश हुई थी और आधा देश सूखे की चपेट में आ गया था। यानी अगर बारिश के बाकी बचे दो महीने में ऐसे ही हालात रहे तो संकट का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
ये जुलाई का आखिरी हफ्ता है। जुलाई में ही सबसे ज्यादा वर्षा होती है। उसके बाद बारिश धीमी होने लगती है। गौर करने लायक बात यह है कि मौसम विभाग अभी भी अपने सामान्य मानसून के अनुमान पर कायम है। यह तभी संभव है जब बारिश के बाकी बचे दो महीने में औसत से 19 फीसदी ज्यादा बारिश हो जाए।
अगर थोड़े से समय में ही इतना पानी गिरा तो हमें भयावह बाढ़ की विभीषिका दिख रही होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो सूखे की चपेट में आना तय है। उससे भी बड़ा संकट यह होगा कि पिछले साल आधे देश में सूखे की चपेट के बाद यह लगातार दूसरे साल का सूखा होगा।
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मौसम विभाग के पूर्व के अनुमानों को देखते हुए इस साल के उनके सामान्य मानसून के अंदाज़े पर ज्यादा भरोसा जताया नहीं जा सकता। पिछले साल भी मौसम विभाग की तरफ से 97 फीसदी बारिश का अनुमान लगाया गया था जो सामान्य मानसून की श्रेणी में आती थी। लेकिन 2018 में बारिश का आंकड़ा 90 फीसद रहा था।
वैसे पिछले 10 सालों में मौसम विभाग के ज्यादातर अनुमान सही नहीं रहे हैं। पिछले दशक में दस में सिर्फ तीन बार मौसम विभाग का पूर्वानुमान कुछ ठीक बैठा। वे तीन साल थे 2010, 2011 और 2017 इन तीनों साल में पूर्वानुमान और असल बारिश में 2 से 3 फीसद का ही फर्क रहा था। नहीं तो हमेशा ही 7 से 10 फीसद की ऊंच-नीच होती रही।
सन 2009 में तो मौसम विभाग ने 96 फीसदी की सामान्य बारिश का अनुमान बताया था। लेकिन उस साल सिर्फ 77 फीसदी बारिश हुई। उस साल पिछले 40 साल का सबसे भीषण सूखा पड़ा था। इसी तरह 2013 में अनुमान 98 फीसद का था। लेकिन बारिश 8 फीसद ज्यादा हो गई। यह वही साल था जब केदारनाथ में बाढ़ से भारी तबाही हुई थी।
दरअसल मानसून के पूर्वानुमान बताने का मकसद होता है कि किसान अपनी फसल की योजना बना लें। बैंक आने वाली फसलों का अनुमान लगा कर पहले से कर्ज देने का हिसाब लगाते हैं। वर्षा के अनुमान के आधार पर सरकार बाढ़ और सूखे जैसी आपदाओं से निपटने के लिए खुद को चाक चौबंद रखती है। लेकिन अगर ज्यादातर अनुमान गलत ही निकल रहे हैं तो अनुमान लगाने का मकसद हार रहा है।
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संकट का पता सिर्फ अब तक की बारिश की नापतोल से ही नहीं चल रहा है। मौसम विभाग के अलावा देश में केंद्रीय जल आयोग भी है जो देश के बांधों में जमा पानी की निगरानी करता है। वह हर हफ्ते बताता है कि देश के मुख्य बांधों में कितना पानी जमा है। आयोग के मुताबिक इस साल अब तक देश के मुख्य बांधों में पिछले दस सालों के मुकाबले काफी कम पानी जमा हो पाया हैं।
आयोग के मुताबिक जुलाई के आखिरी हफ्ते तक देश के मुख्य बांधों में सिर्फ 40 अरब घनमीटर पानी ही भर पाया है। जबकि इस समय तक पिछले साल 65 अरब घनमीटर पानी जमा हुआ था। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले साल सामान्य से सिर्फ 6 फीसद कम बारिश हुई थी। जबकि इस साल अभी तक के हालात के मुताबिक़ मानसून में 19 फीसद की कमी है। ये सारे तथ्य भारी सूखे का अंदेशा जता रहे हैं।
अब अगर देश के कुछ हिस्सों में ज्यादा पानी गिरने से कुल बारिश का औसत कुछ सुधर भी जाए तब भी इन इलाकों में मानसून के बाद के आठ महीनों के लिए पानी की किल्लत होना तय ही समझना चाहिए। गौरतलब यह भी है कि 25 जुलाई की स्थिति के मुताबिक देश के 36 वर्षा उपसंभागों में से 20 उपसंभागों में हद से कम वर्षा हुई है। मौसम विभाग 19 फीसद से लेकर 60 फीसद कम बारिश वाले उपसंभागों पर लाल निशान लगाता है।
वर्षा के पूर्वानुमान में समान्य बारिश की परिभाषा भी उतने काम की नहीं है। हमने अपने सामान्य मानसून का दायरा इतना बड़ा बनाया हुआ है कि चार फीसदी ज्यादा या चार फीसदी कम बारिश की ऊंच-नीच सामान्य वर्षा के दायरे में खप जाती है। यानी अनुमान के लिए आठ फीसदी की खिड़की बना रखी है।
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उधर उपसंभागीय स्तर पर 19 फीसद कम या ज्यादा बारिश को सामान्य बताया जाता है। जबकि पिछले साल ही हम देख चुके हैं कि सिर्फ छह फीसद कम पानी गिरने से आधा देश सूखे की चपेट में था। कारण यह था कि कहीं सामान्य या उससे कुछ ज्यादा बारिश हई थी और कहीं बहुत ही कम वर्षा हुई थी। इसीलिए इतने बड़े देश में कुल बारिश के आंकड़े के जरिए सूखे या बाढ़ का अंदाजा लगा पाना मुश्किल काम है।
एक मुश्किल और है। सूखे की परिभाषा और सूखे के प्रकार अभी अपने देश में में उतने स्पष्ट नहीं हैं। दूसरे देशों की अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं। अगर सिर्फ मौसमी सूखा यानी मिटीरियोलॉजिकल ड्रॉट की बात करें तो अमेरिका में 48 घंटे तक ढाई मिलीमीटर से कम बारिश हो तो वहां उसे सूखे की श्रेणी में मान लेते हैं।
इसी तरह ब्रिटेन में लगातार 15 दिन एक चौथाई मिलीमीटर से कम बारिश हो तो वह मौसमी सूखा है। लीबिया में कुल मानसून अगर 18 सेंटीमीटर से कम रहे तो वह सूखा कहलाता है। बाली में मानसून के दिनों में अगर 6 दिन तक लगातार बिलकुल पानी न गिरे तो वहां सूखा पड़ा मान लिया जाता है। इसी तरह कई देशों की अपनी अलग परिभाषाएं हैं।
हम अपने यहां देशभर में औसत से 25 फीसद कम बारिश को सूखे की श्रेणी में डालते हैं। यहां गौर करने की बात यह है कि 2009 में 23 फीसद कम बारिश हुई थी और पूरे देश में सूखे से हाहाकार मच गया था। जबकि पिछले साल सामान्य वर्षा के आंकडे़ से छह फीसद कम बारिश से ही आधा देश सूखे की चपेट में आ गया था।
देश में मानसून को लेकर इस बार जिस तरह के हालात हैं उनमें हमें सूखे के प्रकारों पर भी नज़र डालने की जरूरत पड़ सकती है। भारत में विशेषज्ञ मुख्य रूप से चार प्रकार के सूखे की बात बताते हैं। मिटीरियोलॉजिकल यानी मौसमी सूखा, हाइड्रोलॉजिकल यानी जलविज्ञानी सूखा, एग्रीकल्चरल यानी कृषि सूखा और सोशियो इकोनॉमिक यानी सामाजिक आर्थिक सूखा।
मौसमी सूखे के मायने हैं कि जब बारिश औसत से 25 फीसद या उससे कम हो। इसके भी दो प्रकार हैं। एक जब बारिश 25 से 50 फीसद तक कम हो और दूसरा जब 50 फीसद से भी कम हो जिसे सीवियर ड्रौट या भयावह सूखा कहा जाता है।
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सूखे का दूसरा प्रकार है जलविज्ञानी सूखा। यह उस हालत में भी पड़ता है जब मौसमी बारिश तो सामान्य हुई हो लेकिन नदी और बांध जलाशयों में पानी सामान्य से कम उपलब्ध हो। इसका एक मतलब होता है कि जब बारिश के पानी को हम आगे के लिए जमा करके न रख पाए हों। इस बार यही आशंका सबसे ज्यादा है।
यह आशंका इस आधार पर है कि पिछले कुछ साल से बार बार सूखे के हालात बनने लगे हैं। जिन क्षेत्रों में मानसून ठीक ठाक प्रदर्शन भी कर रहा है वहां के जलाशय भी अपनी क्षमता के अनुरूप भर नहीं पा रहे हैं। इसी तरह के सूखे की दूसरी वजह है कहीं कम कहीं ज्यादा बारिश का होना। इसलिए कुछ क्षेत्रों में जलाशय बहुत ज्यादा खाली रह जाते हैं।
तीसरा प्रकार है कृषि सूखा। यह वह परिस्थिति है जिसमें मौसमी और जलविज्ञानी सूखे का असर कृषि पर पड़ जाता है। खासतौर पर तब जब हमने बरसाती पानी का भंडारण पर्याप्त मात्रा में करके न रख पाया हो। मिट्टी में नमी की कमी और कम पानी की उपलब्धता जब उपज की मात्रा को प्रभावित करने लगती है तो उसे कृषि सूखा कहते हैं। आजकल भारतीय किसान देश में जल प्रबंधन की इसी दुर्दशा के शिकार हैं।
चौथा प्रकार है सामाजिक आर्थिक सूखा। सूखे की ये वह विकट स्थिति है जब पानी की अनुपलब्धता के कारण पूरे अर्थतंत्र पर असर पड़ने लगता है। खाने पीने और दूसरी उपभोक्ता वस्तुओं की कमी होने लगती हैं। जिसमें अनाज, फल, सब्ज़ी, बिजली, चारा, मछलियाँ आदि शामिल हैं। सूखे की वजह से मांग और आपूर्ति की व्यवस्था गड़बड़ा जाती है जिससे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के आर्थिक सामाजिक जीवन पर असर पड़ने लगता है।
खासकर भारत जैसे देश में जहाँ सबसे ज्यादा आबादी अपनी गुज़र बसर वर्षा आधारित खेती के बूते करती हो वहां मौसम की जरा सी ऊंच-नीच उनके लिए जीवन मरण का प्रश्न बन जाती है। इस साल अगर वर्षा के आंकड़ों में सूखा न भी दिखा तब भी सामाजिक आर्थिक सूखे के अंदेशे को नकारा नहीं जा सकता।
नोट- सुविज्ञा जैन प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं।, ये उनके निजी विचार हैं।
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देश में एक तरफ बाढ़, एक तरफ सूखा