– मोहित शुक्ला/ शिशिर शुक्ला
लखीमपुर खीरी। आदिवासियों की जमीन के संबंध में 13 फरवरी 2019 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर आदिवासी मानवाधिकार कार्यकर्ता सुकालो गोंड और निवादा राणा सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई हैं। दोनों ने कोर्ट से लाखों आदिवासियों को बेदखली के फैसले से सुरक्षित करने की गुहार लगाई है। फिलहाल इस मामले में स्टे ऑर्डर लगा हुआ है।
इस साल 13 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने हजारों आदिवासी और वन निवास परिवारों को उनके पारंपरिक निवास स्थान से बेदखल करने का आदेश दिया था। हालांकि बाद में आदेश पर रोक लगा दी गई थी। लेकिन इन लोगों का भाग्य अभी भी अधर में लटका हुआ है और उनका भविष्य अनिश्चित बना हुआ है। न केवल उनके घरों का नुकसान, बल्कि उनकी आजीविका को भी खतरा है, जिससे इन हाशिए के कमजोर लोगों की हालत और भी खराब होने की संभावना है।
गांव कनेक्शन से फोन पर बात करते हुए सुकालो गोंड ने बताया, “वह सिर्फ किसी विशेष जनजाति या किसी विशेष क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर सुप्रीम कोर्ट के शरण में नहीं गई हैं बल्कि देश भर के आदिवासी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने सुप्रीम कोर्ट में गई हैं। इस फैसले से सबसे अधिक प्रभावित आदिवासी महिलाएं होंगी क्योंकि जल-जंगल-जमीन से जुड़ाव सबसे अधिक जुड़ाव महिलाओं का ही होता है।”
13 फरवरी के आदेश के बाद से अब तक पांच महीनों में इस मामले में 19 हस्तक्षेप आवेदन दायर किए जा चुके हैं। इन हस्तक्षेपों के आवेदन का समर्थन ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) और सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) द्वारा किया गया है। ये दोनों संगठन वन अधिकारों के लिए सक्रिय रूप से अभियान चला रहे हैं।
क्या है वन्य अधिकार कानून 2006?
वन अधिकार अधिनियम 2006 पहला और एकमात्र कानून है जो भूमि और खेती पर महिलाओं के स्वतंत्र अधिकारों को मान्यता देता है। यह कानून 1927 के औपनिवेशिक युग के भारतीय वन अधिनियम के असंतुलन को ठीक करने के लिए लाया गया था।
वन्य अधिकार कानून कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान 2006 में पास किया गया था। इस कानून में जंगलों में रहने वाले आदिवासी समूहों और वन्य निवासियों को संरक्षण देते हुए उनके पारम्परिक रहने के स्थानों को वापस देने का प्रावधान गया था। इस कानून में सामुदायिक पट्टे का भी प्रावधान था, जिसके अनुसार ग्राम सभा के जंगल और जमीन पर अधिकार स्थानीय ग्राम सभा का ही होगा।
वर्ष 2006 के इस कानून के अनुसार केंद्र सरकार को निर्धारित मानदंडों के अनुरूप आदिवासियों और अन्य वन-निवासियों को उनकी पारंपरिक वन्य भूमि को वापस सौंपना था। इसके लिए आदिवासी लोगों को कुछ निश्चित दस्तावेज दिखाकर जमीनों पर अपना दावा करना था। इसके बाद अधिकारी द्वारा इन दस्तावेजों के आधार पर आदिवासी और वन्य निवासियों के दावों की जांच करनी थी।