अल्मोड़ा/लखनऊ। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ की तनुजा गोरखा (25 वर्ष) मां पूर्णागिरि कॉलेज ऑफ एजुकेशन, चंपावत में बी.एड. की छात्रा हैं। उन्होंने ग्रेजुएशन के बाद बी.एड. की महंगी कोर्स में एडमिशन इस उम्मीद से लिया था कि उन्हें स्कॉलरशिप मिलेगी और उनके परिवार के ऊपर से एक लाख रुपये के फीस का बोझ कुछ कम होगा। लेकिन वह अभी भी पहले साल के स्कॉलरशिप का इंतजार कर रही हैं, जबकि उनका द्वितिय वर्ष चल रहा है।
तनुजा गोरखा उत्तराखंड के अनुसूचित जाति से संबंध रखती हैं, जिनके लिए उत्तराखंड सरकार के समाज कल्याण विभाग द्वारा छात्रवृत्ति की योजना बनाई गई है। लेकिन तनुजा सहित राज्य के लगभग 20 हजार अनुसूचित जाति के छात्र-छात्राओं को पिछले कुछ सालों से छात्रवृत्ति नहीं मिली है। इसके अलावा इस वर्ग से आने वाले छात्र-छात्राओं के लिए प्रत्येक जिले में अम्बेडकर छात्रावास की व्यवस्था की गई है, लेकिन ये छात्रावास भी बिजली, पानी, भोजन, लाइब्रेरी, सफाई और सुरक्षा जैसी कई प्रकार की बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं। इस वजह से ये छात्र लंबे समय से आंदोलनरत हैं।
उत्तराखंड में अनुसूचित जाति की आबादी लगभग 20% है। गरीबी, सीमित संसाधन, विकल्पों और मौकों के अभाव के कारण इस समुदाय का एक छोटा सा हिस्सा ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाने में सक्षम हो पाता है। इसलिए सरकार की समाज कल्याण विभाग की तरफ से ऐसे छात्रों तक उच्च शिक्षा की पहुंच बढ़ाने के लिए छात्रावास और छात्रवृत्ति की व्यवस्था की गई है। लेकिन उत्तराखंड में इन सरकारी योजनाओं का लाभ छात्र-छात्राओं को नहीं मिल पा रहा है।
सोबन सिंह जिला परिसर, अल्मोड़ा कॉलेज में पढ़ने वाले योगेश कुमार बी. एस.सी प्रथम वर्ष के छात्र हैं। उनकी मेरिट अच्छी थी तो कॉलेज में एडमिशन के साथ-साथ उन्हें जिले के राजकीय अम्बेडकर छात्रावास में सीट भी मिल गई। निम्न आय वर्ग से ताल्लुक रखने वाले योगेश कुमार को लगा था कि अब उनकी पढ़ाई पर आने वाला खर्च कम होगा और वे अपने परिवार पर ‘बोझ’ नहीं बनेंगे।
लेकिन योगेश की कठिनाईयां कम होने की बजाय बढ़ने लगी। दरअसल अल्मोड़ा स्थित राजकीय अम्बेडकर छात्रावास योगेश के कॉलेज और अल्मोड़ा शहर से 8 किलोमीटर दूर पहाड़ों में स्थित है, जहां आने-जाने के लिए पब्लिक ट्रान्सपोर्ट की सुविधाएं काफी कम हैं।
योगेश बताते हैं, “इस 8 किलोमीटर के दुर्गम रास्ते को तय करने में एक से डेढ़ घंटे लग जाते हैं। रास्ते में जंगल है, तो गुलदार (जंगली बिल्ली) और तेंदुए का भी डर बना रहता है। कुल मिलाकर हमारे पैसे और समय दोनों का नुकसान होता है।”
योगेश के साथ रह रहे बी.ए. प्रथम वर्ष के छात्र अक्षय कुमार कहते हैं, “कॉलेज, हॉस्टल से बहुत दूर और जंगल के बहुत करीब है, इसलिए छात्रों को रोज कॉलेज आने-जाने में दिक्कत होती है। इसके अलावा हॉस्टल जंगल के करीब होने की वजह से जंगली जानवरों का भी भय बना रहता है। कई बार तो रात में हॉस्टल से ही गुलदार देखने को मिल जाते हैं। भोजन और पानी की समस्या जो है, वो तो है ही।”
आपको बता दें कि इन छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए शासन ने एक निश्चित मेन्यू निर्धारित की है, जिसके अनुसार छात्रों को भोजन दिया जाना है। लेकिन इन छात्रों का आरोप है मेन्यू का भोजन तो दूर खाने में अक्सर दाल और चावल ही मिलते हैं, रोटी और सब्जी जिस दिन मिल जाए तो उस दिन को हम अपनी दावत समझते हैं।
अल्मोड़ा के ही हॉस्टल में रहने वाले बी.ए. द्वितिय वर्ष के छात्र अभिषेक कुमार कहते हैं, “हॉस्टल में जंगली जानवर आते हैं। खाने से महक आती है। समझ ही नहीं आता कि इस हॉस्टल से हमें फायदा हो रहा है या नुकसान!”
वहीं कई हॉस्टल ऐसे हैं जहां पर लंबे समय से मेस की सुविधा नहीं है। ये छात्र या तो हॉस्टल में खुद खाना बनाते हैं या तो उन्हें बाहर खाना खाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
बी.एस.सी. तीसरे साल के छात्र और अम्बेडकर छात्रावास, पौड़ी के छात्र अरुण कुमार कहते हैं कि छात्रावास में रहते हुए उन्हें तीन साल हो गए लेकिन मेस की सुविधा उन्हें नहीं मिली। उन्होंने बताया, “जब हम जिम्मेदार अधिकारियों से शिकायत करते हैं, तो वे ‘जल्द ही’ मेस शुरु होने की बात कर बात को टाल देते हैं। लेकिन तीन साल में यह ‘जल्द’ नहीं हो पाया। इसके अलावा हॉस्टल में लाइब्रेरी भी नहीं है, जिसकी वजह से उच्च शिक्षा की तैयारी करने वाले छात्रों को दिक्कत होती है।”
अरुण कुमार बी.एस.सी के बाद एम.एस.सी और फिर पी.एचडी. करना चाहते हैं। अरुण कुमार पौड़ी के जिस अम्बेडकर छात्रावास में रहते हैं, उसकी छत पर दरारें आ गई हैं। वहां छात्रों का रहना खतरे से खाली नहीं है, लेकिन छात्र रहने को मजबूर हैं। छत की दरारों को दिखाते हुए अरुण कुमार कहते हैं, “दो साल से छत में दरारे पड़ी हैं और यह धंसने जा रहा है। रात-बेरात कभी भी कोई बड़ी दुर्घटना हो सकती है लेकिन हमारी सुध लेने वाला कोई नहीं है।”
तनुजा की तरह ही अरुण को भी दो साल से छात्रवृत्ति नहीं मिली है। वह बताते हैं कि पहले साल उन्हें छात्रवृत्ति तो मिली थी लेकिन उसके बाद से कभी भी नहीं मिली। “मैं हर साल स्कॉलरशिप के लिए अप्लाई करता हूं, लेकिन दो साल से मुझे कोई स्कॉलरशिप नहीं मिला। मेरे जानने वाले कई ऐसे सीनियर्स हैं, जो कि एमएससी करने के बाद बी.एड. कर रहे हैं लेकिन उन्हें पिछले 4-5 साल में कोई स्कॉलरशिप नहीं मिली,” अरुण बताते हैं।
अरुण के साथ रह रहे हॉस्टल के अन्य छात्र भी पिछले दो-तीन साल में छात्रवृत्ति नहीं मिलने की बात कहते हैं। अरुण, पौड़ी-गढ़वाल के जिस छात्रावास में रहते हैं, वहां पर लड़कियों के लिए भी हॉस्टल बना है। लेकिन शहर से दूर होने के कारण असुरक्षा की वजह से इस हॉस्टल में एक भी छात्रा नहीं रहती।
छात्रावास में बुनियादी सुविधाओं और छात्रवृत्ति के लिए आंदोलन कर रहे इन छात्रों का आरोप है कि समाज कल्याण विभाग इनकी परेशानियों को सुन नहीं रही है। इन छात्रों की अगुवाई कर रहे एम.ए. मॉस कम्यूनिकेशन के छात्र किशोर कुमार कहते हैं, “हम समय-समय पर अपनी मांगो को रखने के लिए डीएम, समाज कल्याण अधिकारी से लेकर राज्य के वरिष्ठ मंत्रियों, मुख्यमंत्री और राज्यपाल से भी मिल चुके हैं, लेकिन कहीं भी कोई सुनवाई नहीं हो रही है। नेता और अधिकारी हमें बस आश्वासन देकर छोड़ देते हैं।”
निराश किशोर कहते हैं, “सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से कमजोर अनुसूचित जाति के बच्चे सरकार द्वारा संरक्षण के अभाव में अपनी पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। शायद सरकार की भी यही मंशा है।”
जब गांव कनेक्शन ने इस संबंध में राज्य के समाज कल्याण विभाग के निदेशक विनोद कुमार गोस्वामी से बात की तो उन्होंने इन आरोपों से इनकार किया। गांव कनेक्शन से फोन पर बात-चीत में उन्होंने कहा, “कुछ छात्रावासों में ये दिक्कतें हो सकती है, लेकिन सभी छात्रावासों के लिए ऐसी बातें कहना उचित नहीं है। सभी अम्बेडकर छात्रावास सही ढंग से चल रहे हैं। अगर किसी भी छात्र को कोई दिक्कत हो तो वे हमसे आकर मिले, हम उनकी समस्याओं का उचित निस्तारण करेंगे।”
मेन्यू के अनुसार खाना ना मिलने की बात पर उन्होंने कहा कि मेन्यू के अनुसार ही खाना दिया जाता है, हां घर जैसा खाना छात्रावास में देना संभव नहीं है। वहीं छात्रवृत्ति के सवाल से पहले उन्होंने फोन काट दिया।
उत्तराखंड के अनुसूचित जाति के छात्रों के अनुसार उनकी क्या-क्या हैं दिक्कतें?
1. पिछले दो-तीन सालों से नहीं मिल रही छात्रवृत्ति
2. छात्रावास में गुणवत्ता पूर्ण खाना नहीं मिल रहा। इससे छात्रों विशेषकर भर्ती देखने वाले छात्रों को काफी दिक्कतें आती हैं।
3. छात्रावास शहर से काफी दूर बनाए गए हैं। पहाड़ी जिलों में कनेक्टिविटी एक मसला रहता है, इसलिए छात्रों को समय और पैसे का बहुत नुकसान होता है।
4. शहर से दूर और जंगल के पास होने के कारण छात्रों को जानवरों का भी डर बना रहता है।
5. शहर से दूर होने के कारण अन्य सुविधाएं भी छात्रों को नहीं मिल पाती हैं।
6. छात्रावासों में लाइब्रेरी भी नहीं है, सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षा का सपना पाले छात्रों को इससे काफी दिक्त होती है। लंबे समय से छात्रों की मांग रही है कि प्रत्येक अंबेडकर छात्रावास में एक अंबेडकर लाइब्रेरी का प्रावधान भी किया जाए जिसमें प्रतियोगी परीक्षाओं के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें भी बच्चों को पढ़ने को मिल सकें लेकिन इस ओर समुचित ध्यान नहीं दिया जा सका है।
7. छात्रावासों में सीटें भी काफी कम है। प्रत्येक जिले में सिर्फ 48 सीट हैं, इससे अनुसूचित जाति के कई छात्र छात्रावास की सुविधा से वंचित रह जाते हैं।
8. छात्राओं के लिए अलग छात्रावास भी पूरे राज्य में सिर्फ तीन जिलों पिथौरागढ़, उत्तरकाशी और पौढ़ी गढ़वाल में है। कुछ जिलों में छात्राओं के रहने के लिए छात्रावास तो बना है लेकिन असुरक्षा की वजह से कोई भी छात्रा इन छात्रावासों में नहीं रहना चाहती।
9. पिछले दो-तीन साल से अनुसूचित जाति के छात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्ति को सरकार की तरफ से अकारण ही रोक दिया गया है, जिससे अति गरीब तबके से आने वाले इन छात्रावासों के छात्रों के पढ़ाई और अन्य खर्चे निकालने मुश्किल हो गए हैं। गांव में रहने वाले इनके गरीब मां-बाप इनकी पढ़ाई का खर्च उठाने में असमर्थ है, जिस कारण कई बच्चे पढ़ाई छोड़ने को भी विवश हुए है।
10. छात्रावास में फर्नीचर, साफ सफाई, शौचालय एवं सुरक्षा की व्यवस्था बहुत ही खराब है। सुरक्षा का भी कोई इंतजाम नहीं है। यहां तक कि छात्राओं के छात्रावास में भी समुचित सुरक्षा व्यवस्था नहीं है।
11. नियमानुसार समाज कल्याण विभाग द्वारा सभी छात्रावासों में वार्डन, गार्ड एवं आकस्मिक स्थिति के लिए एक पैरामेडिक की नियुक्ति होनी चाहिए लेकिन अधिकांश छात्रावासों में कर्मचारियों की कमी है। इस वजह से छोटी-छोटी समस्याओं के लिए भी छात्रों को बहुत अधिक परेशान होना पड़ता है।
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