पूर्णिया के शमसेर (38 वर्ष) पूरे परिवार सहित नोएडा में रहते थे। वह वहां इलेक्ट्रिक ठेले से माल ढुलाई का काम करते थे। लॉकडाउन की घोषणा हुई तो कुछ दिन बचे-खुचे पैसों से काम चलाया लेकिन जब कुछ नहीं बचा तो उन्होंने घर वापसी करना ही बेहतर समझा।
अब वह अपने पूरे परिवार के साथ उसी ठेले से ही पूर्णिया का सफर कर रहे हैं, जिससे वे माल ढुलाई में करते थे। उनके ठेले पर उनकी पत्नी, तीन बच्चे, तीन भाई और घर का सारा सामान लदा है। शमसेर और उनके भाई बारी-बारी ठेला चलाकर 1350 किलोमीटर का सफर पूरा करने में लगे हैं। तीन दिन के सफर में वह अभी गोरखपुर के करीब ही पहुंच पाए हैं। कहते हैं कि घर पहुंचने में अभी दो से तीन दिन और लग जाएंगे।
कोरोना वायरस की वजह से पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद प्रवासी मजदूरों में अनिश्चितता की स्थिति बन गई। केंद्र और राज्य सरकारों की तमाम घोषणाओं और आश्वासन के बाद भी वह अपने आपको उन महानगरों में महफूज नहीं महसूस कर पा रहे थे, जहां पर उन्होंने दशकों गुजारा किया था। इसलिए वे अपने उन गांवों की तरफ लौटने को मजबूर हो गए, जहां से वे कुछ इच्छाएं लेकर शहरों की ओर पलायन किए थे।
मजदूरों के लिए काम करने वाली संस्था ‘आजीविका ब्यूरो’ की अमृता शर्मा बताती हैं कि प्रवासी मजदूरों में यह असुरक्षा की भावना इसलिए है क्योंकि उनको बहुत कम ही सरकारी योजनाओं का लाभ मिल पाता है। इसलिए वे किसी ना किसी तरह अपने घर लौटना चाहते हैं, जिसे ‘उलट पलायन’ या ‘रिवर्स माइग्रेशन’ भी कहा जा रहा है।
ऐसे प्रवासी मजदूरों की संख्या लाखों में है, जो दिल्ली, मुंबई, सूरत, चेन्नई, बेंगलुरू, हैदराबाद, लुधियाना जैसे रोजगार देने वाले बड़े शहरों को छोड़ अपनी गांवों की तरफ लौट रहे हैं। कई जानकार इसे विभाजन के बाद भारत का दूसरा सबसे बड़ा पलायन भी बता रहे हैं। दिल्ली से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार जाने वाले हाईवे एनएच-27 पर भी इन मजदूरों का रेला सा लगा है। ट्रक, बस, रिक्शा, साइकिल और पैदल जैसे भी हो ये बस घर पहुंचना चाहते हैं।
समस्तीपुर के सुमित (22 वर्ष) पांच दिन पहले ही गाजियाबाद से निकले थे। पांच दिन की पैदल यात्रा में वह लगभग 750 किलोमीटर की यात्रा कर गोरखपुर के कसरवल तक पहुंच पाए हैं। पीठ पर एक भारी बैग और सिर से लाल गमछा लटकाए सुमित ने बताया कि जब लॉकडाउन की घोषणा हुई, तो उन्हें कुछ समझ ही नहीं आया। घर वाले फोन कर बुलाने लगे तो मजबूरी में उन्हें पैदल ही निकलना पड़ा।
सुमित अपने बैग में लाई, भूजा, चूड़ा, बिस्किट और जेब में 300 रुपए लेकर चले हैं। जब भूख लगता है, तो वही खा लेते हैं। उन्होंने बताया कि रास्ते में कई जगहों पर लोग खाना और पानी भी बांट रहे हैं, जिससे उन्हें मार्च की गर्म दुपहरी में पैदल यात्रा करने में थोड़ी आसानी हो रही है।
हालांकि सुमित की तरह कई लोगों के लिए यह पैदल यात्रा कतई आसान नहीं है। देशभर से ऐसे लगभग 34 लोगों की मौत की खबर आई है, जो पैदल चलते-चलते भूख, थकान, हार्ट अटैक या रोड-एक्सीडेंट के शिकार हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन के बाद उपजी प्रवासी मजदूरों की पलायन की इस स्थिति पर केंद्र सरकार से जवाब भी तलब किया है।
शमसेर की तरह बलराम भी ठेले से ही अपने घर मधुबनी के लिए निकले हैं। उनके साथ उनकी पत्नी और दो बच्चे हैं। बलराम दिल्ली के गांधीनगर के कपड़े बाजार में डिलेवरी का काम करते थे। पत्नी और बच्चों को दिन में धूप और रात में ठंड ना लगे इसलिए उन्होंने अपने ठेले पर एक तंबू बना रखा है।
पांच दिन की यात्रा कर चुके बलराम की आवाज में थकान साफ मालूम चल रही थी। वह कहते हैं, “काम-धंधा कुछ मिल नहीं रहा था, क्योंकि सब कुछ बंद था। दो हफ्ते से खाली बैठे थे और जमा राशन-पानी से ही गुजारा कर रहे थे। जब लगा कि यह जमा-पानी भी खत्म हो जाएगा, तब हम निकल लिए। इसके अलावा हमारे पास कुछ चारा नहीं था।”
अमृता शर्मा मजदूरों के इस उलट पलायन के बारे में गांव कनेक्शन को फोन पर बताती हैं, “सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा के बाद मजदूरों के लिए जिन योजनाओं की घोषणा की है उसके तहत उन्हीं मजदूरों को लाभ मिलेगा जो अभी तक विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत लाभ प्राप्त करते आए हैं। प्रवासी मजदूर जिस शहर में काम करते हैं, उस शहर के निवासी होने का उनके पास कोई दस्तावेज नहीं होते। इसलिए विभिन्न सरकारी योजनाओं में उनका पंजीकरण ही नहीं हो पाता और वे लाभ से वंचित हो जाते हैं।”
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने 28 मार्च को दिल्ली से सटे यूपी बॉर्डर पर लगभग 1000 बसों को लगाकर मजदूरों को उनके गंतव्य स्थल या बिहार बॉर्डर तक पहुंचाने की बात की थी। लेकिन कई मजदूर ऐसे भी थे जो इस घोषणा से पहले ही अपने गांव के लिए पैदल निकल चुके थे। ऐसे मजदूर अभी भी रास्ते में हैं।
हाईवे पर पैदल चल रहे इन मजदूरों का सहारा वे ट्रकें बन रही हैं, जो आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई के लिए लॉकडाउन में भी चल रही हैं। इन्हीं ट्रकों की छत पर लदे मजदूर हाईवे पर आसानी से देखे जा सकते हैं। ये ट्रकें मजदूरों को उनके गांव-घर तक तो नहीं छोड़ रहीं लेकिन उनके मुश्किल पैदल रास्ते को थोड़ा आसान जरूर बना दे रही हैं। ट्रक ड्राइवर मजदूरों से कुछ पैसे लेकर उन्हें 100 या 150 किलोमीटर आगे तक छोड़ रहे हैं।
आईएमटी, मानेसर के एक कपड़ा फैक्ट्री में काम करने वाले अरविंद पाल जिस दिन लॉकडाउन की घोषणा हुई, उसी दिन ही अपने घर गया (बिहार) के लिए पैदल ही निकल लिए। पांच दिन पैदल चलने के बाद जब वे अयोध्या पहुंचे तो उन्हें एक ट्रक मिला। अब वह ट्रक से ही आगे कुशीनगर तक का सफर कर रहे हैं। कुशीनगर के बाद गया तक का सफर फिर उन्हें पैदल करना होगा।
मानेसर छोड़ने के सवाल पर अरविंद कहते हैं, “खाने-पीने के लिए पैसे नहीं थे। जितना पैसा बचाए थे, वह सब होली के वक्त घर भेज दिए थे और होली के बाद ज्यादा कुछ काम नहीं मिला कि हम वहां रूक पाते।” सरकार द्वारा मिल रही सुविधाओं के बारे में उन्होंने कहा, “सरकार तो सुविधा दे रही है, लेकिन वह नाकाफी है। लंगरों में काफी भीड़ है। ऊपर से बीमारी भी फैल रही है। इसलिए घर निकलना ही हमें बेहतर लगा।”
रिपोर्टिंग से वापस आते वक्त हमें फुरकान और आठ लोगों का उनका परिवार मिला, इसमें तीन छोटे-छोटे बच्चे भी थे। उनके हाथों में जरूरी सामानों के अलावा बांस-बल्ली और तम्बू भी था, जो एक कारवां की तरह लग रहा था। पूछने पर पता चला कि वे मदारी वाले हैं, जो गांव-गांव, गली-गली घूमकर मदारी दिखाते हैं। लेकिन इस लॉकडाउन में उनका करतब देखने वाला कोई नहीं है, इसलिए वे भी घर वापिस जाने को मजबूर हैं।
फुरकान हमसे आगे जाने के लिए सहारा मांगते हैं, लेकिन हमारे पास उनकी सहायता करने के लिए कुछ नहीं होता। निराश होकर वह आगे बढ़ जाते हैं। उनके साथ उनका कारवां भी बढ़ जाता है …
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