अप्रैल में, कोरोना महामारी के वजह से देशभर में लगे लॉकडाउन के बीच कई भयावह और मार्मिक तस्वीरें सामने आई थीं। एक घटना में 12 साल की जीता मडकामी, जो अपने परिवार के साथ तेलंगाना में मिर्च के खेतों में काम किया करती थी, लॉकडाउन में काम बंद होने के बाद अपने माता-पिता के साथ पैदल ही गांव की ओर निकल गई। किसी तरह करीब 150 किलोमीटर की दूरी तय कर छत्तीसगढ़ के बीजापुर पहुंच ही पाए थे लेकिन घर से 14 किलोमीटर पहले ही बच्ची की मौत हो गई।
इसी तरह, 39 वर्षीय रणवीर सिंह, जो दिल्ली में मजदूरी करते थे। लॉकडाउन के समय दिल्ली से मध्यप्रदेश के मुरैना ज़िला स्थित अपने गांव के लिए निकले। लेकिन 200 किलोमीटर चलने के बाद उनकी मौत हो गई।
पिछले तीन-चार महीनों में भारत ने बहुत ही दर्दनाक मंजर देखा है। लॉकडाउन के कारण अपनी आजीविका खो चुके लाखों मज़दूरों को अपने गांव-घर लौटने के लिए असंख्य कठिनाइयों से गुजरना पड़ा।
ग्रामीण भारत पर लॉकडाउन के प्रभावों का दस्तावेजीकरण करने के लिए इस प्रकार के पहले राष्ट्रीय सर्वेक्षण में गांव कनेक्शन ने 22 राज्यों और 3 केंद्रशासित प्रदेशों के 179 ज़िलों के कुल 25,371 ग्रामीण उत्तरदाताओं से साक्षात्कार किया गया।
सर्वेक्षण से पता चलता है कि लॉकडाउन के कारण 23 फीसदी प्रवासी मजदूर पैदल ही शहर से अपने गांव-घर की यात्रा की, जबकि 18 फीसदी बस से और 12 फीसदी ट्रेन के सफर से घर पहुंचे थे। चूंकि देशव्यापी लॉकडाइन के कारण सार्वजनिक यातायात की सेवाएं बंद थीं, इसलिए लोगों को, यहां तक गर्भवती महिलाएं और बच्चों को भी सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
गांव कनेक्शन के सर्वेक्षण में ग्रामीण आबादी का शहरों में पलायित होने का प्रमुख कारण रोज़गार दिखता है। जो निष्कर्ष सामने आए उनमें 74 प्रतिशत ऐसे प्रवासी थे जो रोज़गार के लिए दूसरे शहरों या राज्यों में गए थे।
सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि 12 फीसदी प्रवासी मज़दूरों को लॉकडाउन के दौरान घर लौटते वक्त रास्ते में कथित तौर पर पुलिस के लाठी-डंडे खाने पड़े। साथ ही लगभग 40 फीसदी कामगारों को रास्ते में भोजन के कमी से जूझना पड़ा।
दिलचस्प बात यह है कि 36 फीसदी मज़दूरों का कहना है कि कोरोना वायरस के डर से उन्होंने शहर छोड़ दिया, जबकि 29 फीसदी मज़दूरों ने दावा किया कि उनके पास शहर में रहने के लिए पैसे खत्म हो चुके थे।
रिवर्स माइग्रेशन की इस दर्दनाक यात्रा के परिणामस्वरूप कई लोगों की जान चली गई। लॉकडाउन के कारण होने वाली मौतों का आंकड़ा जुटाने वाली एक प्लेटफॉर्म thejeshn.com के अनुसार, लॉकडाउन के दौरान लगातार चलने के कारण थकावट और भुखमरी के परिणामस्वरूप 209 प्रवासी मज़दूरों ने अपनी जान गंवा दी।
अपने एक साल के बच्चे के साथ, 30 वर्षीय पार्वती देवी 45 डिग्री सेल्सियस की गर्मी में उत्तर प्रदेश के लखनऊ से 700 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ में अपने घर तक पहुंचने के लिए पैदल ही निकल पड़ीं। वह गांव कनेक्शन से कहती हैं, “इस धूप में एक छोटे से बच्चे के साथ चलना कोई खुशी की बात नहीं है। हमने उस किराये के कमरे को खाली कर दिया, जिसमें हम रहे थे, और अब हम अपने गांव-घर जा रहे हैं।”
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन(आईएलओ) के अनुसार, ‘प्रवासी श्रमिक’ को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है जो रोज़गार के लिए एक देश से दूसरे देश प्रवासित होता है। लेकिन देश में भी एक बड़ी आबादी है जो जीविकोपार्जन की तलाश में देश के अंदर ही अंदर पलायित होती है। भारत में गांव से शहर की ओर पलायित होने की एक प्रवृति पाई जाती है, जो समय के साथ बढ़ती जा रही है।
अंतर्राज्यिक प्रवासी श्रमिक (नियोजन तथा सेवा परिस्थितियों का विनियमन) अधिनियम,1979- यह एक क़ानून है जो देश में प्रवासी श्रमिकों को सुरक्षा प्रदान करता है। इसके अनुसार हर वह व्यक्ति जो एक ठेकेदार के द्वारा भर्ती किया जाता है, और किसी एक राज्य से दूसरे राज्य में कार्य करने के लिए किसी कारखाने या किसी व्यवस्था के अंतर्गत किसी जगह में चाहे नियोजक की जानकारी से या बिना जानकारी के, अंतर्राज्यिक प्रवासी श्रमिक कहलाएगा।
इस क़ानून का मुख्य उद्देश्य देश भर में काम कर रहे प्रवासी मज़दूरों का एक औपचारिक रिकॉर्ड इकट्ठा करने के साथ भर्ती लेने वाले ठेकेदारों और प्रतिष्ठानों का उत्तरदायी सुनिश्चित करना है। लेकिन लॉकडाउन के दौरान जो दृश्य उपस्थित हुआ, उससे मालूम चलता है कि यह क़ानून सही ढंग से लागू नहीं किया गया है। देश में प्रवासी मज़दूरों का कोई विश्वसनीय आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है। विभिन्न सरकारी एजेंसियों ने अलग-अलग अनुमान लगाए हैं।
उदाहरण के लिए, लॉकडाउन के दौरान श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय के श्रम आयुक्त ने कहा कि पूरे देश में 26 लाख प्रवासी मज़दूर फंसे हुए हैं। जबकि भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि 97 लाख प्रवासी मज़दूरों को उनके घर पहुंचा दिया गया है।
इस बीच, शोध वैज्ञानिकों ने बताया है कि अनुमानित यह आंकड़ा 2 करोड़ से 2.2 करोड़ के बीच हो सकता है।
श्रमिक अधिकारों के कार्यकर्ता चंदन कुमार इस बारे में गांव कनेक्शन से कहते हैं, “प्रवासी श्रमिकों की कोई निश्चित परिभाषा नहीं होने के कारण उनका कोई सटीक आंकड़ा नहीं है। यह मुक्त बाजार नीतियों द्वारा अपनाई गई एक बड़ी मास्टर प्लान का हिस्सा है। यह श्रमिकों के औपचारिकताओं को रोकता है ताकि उन्हें सामाजिक सुरक्षा और अधिकार से दूर रखा जा सके।”
चंदन कुमार पूरे भारत में अनौपचारिक श्रमिकों को संगठित करने वाले 150 से अधिक श्रमिक संगठनों के गठबंधन ‘पीपुल्स चार्टर’ के समन्वयक भी हैं। वह आगे कहते हैं, “प्रवासी श्रमिकों को लेकर राज्य और बाजार दोनों को रवैया ऐसा ही है।”
शहरों में फंसे रहने के कारण मज़दूरों और उनके परिवारों को पैसे की कमी के कारण भोजन नहीं मिल पाया और भूख का सामना करना पड़ा। गांव कनेक्शन ने सर्वेक्षण में पाया कि लॉकडाउन के कारण शहरों में फंसे रहने के कारण 36 फीसदी प्रवासी मज़दूरों को पूरे एक दिन का खाना छोड़ना पड़ा, जबकि सर्वे में 40 फीसदी प्रवासी मज़दूरों का कहना है कि उन्होंने पैसे की कमी के कारण एक समय का खाना नहीं खाया था।
सर्वेक्षण में यह बात सामने आया कि जो मज़दूर महीने के 5,000 रुपए से कम कमाए, उन्हें अक्सर भूखे रहने की संभावना बनी थी।
शहर में इतने प्रवासियों का भोजन छोड़ने और भूखे रह जाने का एक प्रमुख कारण में सरकार और स्थानीय प्रशासन से राशन और भोजन की अनियमित आपूर्ति थी। प्रत्येक पांच में से बस दो लोगों ने कहा कि उन्हें राशन या पका हुआ भोजन रोज़ या कभी-कभी प्रशासन द्वारा मिला था। लगभग आधे ने कभी भी अधिकारियों से भोजन या राशन मिलने की बहुत कम या कभी सूचना नहीं दी।
इतनी कठिनाई उठाने के बावजूद, गांव कनेक्शन ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि 33 फीसदी मज़दूर काम करने के लिए वापस शहरों में जाना चाहते हैं। सर्वेक्षण में भाग लेने वाले कुल उत्तरदाताओं में 67 फीसदी प्रवासी केवल महीने के 10,000 रुपए कमाते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि केवल 25 प्रतिशत श्रमिकों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान मोदी सरकार यानी केंद्र की राजग सरकार ने प्रवासी मज़दूरों के साथ बुरा या बहुत बुरा व्यवहार किया। जबकि आधे से अधिक प्रवासी मज़दूरों ने कहा कि मोदी सरकार ने शहर और गांव दोनों की देखभाल की।
कुमार के अनुसार, मौजूदा अंतर्राज्यिक प्रवासी श्रमिक अधिनियम, 1979 को कड़ाई से लागू करने की जरूरत है, जो इन श्रमिकों को मूल यात्रा भत्ता, आवास, न्यूनतम मज़दूरी और पात्रता के बारे में जानकारी देता है। उन्होंने आगे कहा कि “इन प्रवासी श्रमिकों में से अधिकांश आदिवासी और दलित लोग हैं, जो समाज के हाशिए पर हैं और उन्हें ट्रेड यूनियनों के रूप में संगठित नहीं किया गया है। राज्य कल्याण सामाजिक सुरक्षा योजना के तहत उन्हें पंजीकृत करने और अन्य स्थानीय श्रमिकों की तरह उन्हें शक्तियां देने की जरूरत है।”
अनुवाद- दीपक कुमार
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