गांव कनेक्शन सर्वे: लॉकडाउन में असम में 87% ग्रामीणों को नहीं मिला कोई चिकित्सा उपचार, त्रिपुरा में 60% महिलाएं पानी के लिए रहीं संघर्षरत

कोरोना संकटा और लॉकडाउन के कारण, पूर्वोत्तर राज्यों के लाखों ग्रामीणों को संघर्ष करना पड़ा। इस दौरान असम में 82 प्रतिशत परिवारों को गुजारा करना भी काफी मुश्किल हो गया।
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28 वर्षीय मार्टिन काइपेंग चेन्नई के उपनगरीय इलाके के एक रेस्तरां में कर्मचारी के रूप में काम करते थे। कोरोना महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन में रेस्तरां के मालिक ने उन्हें वेतन देना बंद कर दिया। काइपेंग मूल रूप से दक्षिणी त्रिपुरा के अमरपुर ज़िले के सतांग पारा नंबर-2 गांव के रहने वाले हैं, जो चेन्नई से लगभग 3,000 किलोमीटर की दूरी पर है।

शुरुआती समय में उन्हें उम्मीद थी कि चीज़ों में सुधार आएगा, लेकिन आख़िरकार स्थिति और बिगड़ते देख उन्होंने श्रमिक ट्रेन से अगरतला जाने का फैसला किया। 19 मई को उनकी ट्रेन रद्द हो गई और काइपेंग, उनकी गर्भवती बहन और उनके दोस्त अब सड़क पर थे। शहर छोड़ते वक्त उन्होंने पुराने जगह को भी खाली कर दिया था, जहां वे पहले रहते थे। अंत में, प्रवासी मज़दूरों को मदद करने वाला एक समूह ने 25 मई को ट्रेन में सवार होने तक उन्हें आश्रय और खाना दिया। वह 29 मई को अपने गांव पहुंचे।

हालांकि गांव में जीवित रहना उतना ही कठिन है जितना कि घर वापस आना। काइपेंग गांव कनेक्शन से कहते हैं, “मैं गांव इसलिए आ गया क्योंकि मेरे वेतन का भुगतान नहीं किया जा रहा था। साथ ही मेरी गर्भवती बहन को सही उपचार मिलना भी मुश्किल था। वैसे भी हम लोग पूर्वोत्तर से हैं तो लोग चाईना-चाईना वाला बुलाते हैं।”

मार्टिन काइपेंग अपने घर के बाहर

मार्टिन काइपेंग अपने घर के बाहर

काइपेंग उन लाखों भारतीयों में से हैं जो अपने परिवार को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वह बताते हैं, “सुबह 7 बजे लगभग 18 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद उनका पूरा दिन बांस काटकर इकट्ठा करने में बीतता है। इन बांसों को बाज़ार में बेचकर रोज़ाना 200 से 300 कमाते हैं और परिवार के लिए दो जून की रोटी का प्रबंध कर पाते हैं। जब से वह चेन्नई से लौटे हैं, उनकी दिनचर्या यही रही है।”

ग्रामीण भारत पर लॉकडाउन के प्रभावों का दस्तावेज़ीकरण करने के लिए गांव कनेक्शन ने 22 राज्यों और 3 केंद्रशासित प्रदेशों में अपनी तरह का पहला राष्ट्रीय सर्वेक्षण किया। इसमें पांच पूर्वोत्तर राज्यों- त्रिपुरा, असम, मणिपुर, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश की ग्रामीण आबादी शामिल थी।

पूर्वोत्तर राज्यों में गांव कनेक्शन द्वारा कराए गए सर्वे का प्रमुख निष्कर्ष-

*असम में 80 प्रतिशत उत्तरदाताओं को लॉकडाउन के दौरान मनरेगा के तहत कोई काम नहीं मिला।

*अरुणाचल प्रदेश में लगभग 41 प्रतिशत ग्रामीण उत्तरदाताओं ने जवाब दिया है कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें ‘कई बार’ पूरे दिन तक भूखे रहना पड़ा है।

*असम में ग्रामीण उत्तरदाताओं ने बताया है कि उनमें से 87 प्रतिशत लोगों को आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम रहना पड़ा है।

*त्रिपुरा में 60 प्रतिशत महिलाओं को अपने परिवार के लिए पानी की किल्लत झेलनी पड़ी।

*अरुणाचल प्रदेश में केवल 35 प्रतिशत परिवारों ने माना कि लॉकडाउन के दौरान सरकार के द्वारा उन्हें पैसे से मदद की गई।

मनरेगा की असफलता और बेरोजगारी

काइपेंग पूर्वोत्तर राज्यों में रोज़गार के संकट की विकट तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। वह गांव कनेक्शन से बताते हैं, “शहर से वापस आने के बाद मुझे गांव में कोई काम नहीं मिला। इसलिए मैं बांस काटने का काम करता हूं। यदि आप हमारी परिस्थितियों को जानेंगे तो रो पड़ेंगे।”

सर्वे के अनुसार, त्रिपुरा में 74 प्रतिशत ग्रामीणों ने कहा है कि उनके यहां बेरोज़गारी की स्थिति गंभीर है। इसके अलावा 66 प्रतिशत लोगों का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान परिवार का आय का स्त्रोत समाप्त हो जाने से उन्हें ‘बेहद’ मुश्किलों का सामना करना पड़ा है।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा, 2005) जो ग्रामीण आबादी को काम देने का वादा करता है, इसके बारे में काइपेंग दावा करते हैं कि कई लोगों को इसके तहत काम नहीं मिला, क्योंकि यह ‘नियमित’ नहीं है।

त्रिपुरा में सर्वेक्षण में शामिल 73 प्रतिशत ने बताया कि उन्हें मनरेगा के तहत कोई काम नहीं मिला। अरुणाचल, असम में यह आंकड़ा क्रमशः 71 और 80 प्रतिशत रहा।

राशन नहीं मिलना

देश में कम पोषण और भूखमरी के परिदृश्य के बीच, कोरोना महामारी के प्रसार को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने इसे और भी गंभीर बना दिया। ग्रामीण परिवारों को अपने लिए दो जून की रोटी का प्रबंध करना भी मुश्किल हो गया और पूर्वोत्तर इसका अपवाद नहीं है।

सर्वे से पता चलता है कि अरुणाचल प्रदेश में 41 प्रतिशत ग्रामीणों ने लॉकडाउन के दौरान कई बार बिना भोजन किए बिताए। असम में यह आंकड़ा 34 प्रतिशत निकलकर सामने आया।

इसके साथ ही, ऐसे संकटपूर्ण समय में खाद्यान्न के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर निर्भर ग्रामीण आबादी को काफ़ी नुकसान उठाना पड़ा। सर्वे से पता चलता है कि आधे से कुछ अधिक राशनकार्ड धारकों को ही सरकार से गेहूं और चावल प्राप्त हुआ है।

महामारी के बीच यह भी पाया गया कि लोग बुनियादी खाद्य पदार्थों जैसे- आटा, चावल और दाल पर भी कम खर्च करने लगे। त्रिपुरा में 53 प्रतिशत ग्रामीणों ने इस पर कम खर्च किया, जबकि 44 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि वे बिस्किट, नमकीन और मिठाई पर अब कम खर्च कर रहे हैं। अरुणाचल प्रदेश में यह आंकड़ा क्रमश: 40 और 53 प्रतिशत है।

स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी

देश में महामारी फैलने के बाद प्राथमिक और समुदायिक स्तरों पर डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मचारियों की बड़ी संख्या को इससे निपटने में लगा दिया गया, जिससे अन्य बीमारियों से ग्रसित लाखों लोगों को लॉकडाउन के दौरान काफ़ी मुश्किलों को सामना करना पड़ा है। इसमें गर्भवती महिलाएं भी शामिल हैं जिन्हें निरंतर स्वास्थ्य देखभाल, टीकाकरण और प्रसवपूर्व जांच की जरूरत होती है। सर्वेक्षण के अनुसार, असम में गर्भवती महिलाओं में से आधे (लगभग 45 प्रतिशत) प्रसवपूर्व जांच और टीकाकरण से चूक गईं।

सर्वेक्षण में ग्रामीण परिवारों द्वारा दवाओं को प्राप्त करने या लॉकडाउन के दौरान चिकित्सा सुविधा प्राप्त करने में आईं कठिनाईयों का भी पता लगाने का प्रयास किया गया है। सर्वेक्षण में कुछ चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए हैं। असम में प्रत्येक 10 घर में से लगभग 9 घरों (87 प्रतिशत) को लॉकडाउन के दौरान आवश्यक चिकित्सा उपचार के बिना रहना पड़ा। अरुणाचल प्रदेश में यह आंकड़ा 66 प्रतिशत है जबकि त्रिपुरा में 58 प्रतिशत है।

वित्तीय संकट और कर्ज

गांव कनेक्शन सर्वे के अनुसार 70 प्रतिशत ग्रामीणों को पैसे के संकट से जूझना पड़ा। असम के शिवसागर ज़िले की रहनी वाली हस्ना बेग़म गृहणी हैं। वह गांव कनेक्शन को बताती हैं कि लॉकडाउन के दौरान उनके परिवार का छोटा सा व्यवसाय एकदम से ठप हो गया और इसका असर अब भी है।

असम में 82 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान घरेलू आय के साधान समाप्त हो जाने से उनका गुजारा करना भी मुश्किल था। अरुणाचल में यह आंकड़ा 68 प्रतिशत है।

जैसा कि अंदेशा था, लॉकडाउन के दौरान ऋण चुकता करने का परिदृश्य बिगड़ गया क्योंकि पैसे कमाने का जरिया ही नहीं था। ग्रामीणों और पैसे उधार लेने के लिए मजबूर हुए।

असम में 31 प्रतिशत ने उधार लिया, 16 प्रतिशत ने जमीन या गहने को बेचा या गिरवी रखा और 11 प्रतिशत लोगों ने बेशक़ीमती संपत्ति बेची। त्रिपुरा में यह आंकड़ा क्रमश: 13, 15 और 20 प्रतिशत रहा।

सरकार की तरफ से ‘मदद’

कोरोना संकट में गरीबों को मदद करने के लिए सरकार ने 26 मार्च को अगले तीन महीनों के लिए महिला जनधन खाताधारकों को 500 रुपए भुगतान करने की घोषणा की, जो अप्रैल से शुरू हुआ।

जामिनी दास, जो असम के शिवसागर ज़िले के टैक्सी अली गांव में रहती हैं, गांव कनेक्शन से पूछती हैं, “मुझे यह पैसा नहीं मिला है। क्या घर पर आकर पैसा दिया गया है?” पैसे के बारे में क्या कहा जाए, उन्हें तो इस योजना के बारे में भी जानकारी नहीं है। हालांकि उसी गांव की एक और महिला कहती हैं कि उन्हें जनधन खाते में 500 रुपए मिले हैं।

जामिनी दास सफेद साड़ी में

जामिनी दास सफेद साड़ी में

असम में 74 प्रतिशत ग्रामीण उत्तरदाताओं ने माना कि सरकार ने उनके खाते में पैसे भेजे हैं। त्रिपुरा में 61 प्रतिशत लोगों ने इस सरकारी मदद के बारे में सूचित किया, जबकि अरुणाचल प्रदेश में यह आंकड़ा मात्र 35 प्रतिशत ही रहा।

सरकार ने ग्रामीण महिलाओं के अलावा किसानों को भी मदद करने वादा किया था। केंद्र की मोदी सरकार ने कहा कि वह अप्रैल के पहले सप्ताह में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत 8.69 करोड़ किसान लाभार्थियों में से प्रत्येक को 2,000 रुपए की पहली किस्त हस्तांतरित करेगी।

असम के शिवसागर ज़िले के बोनियाबरी गांव के रहने वाले एक किसान जुगल दास ने दावा किया है कि उन्हें सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिली और न पीएम किसान योजना की 2,000 रुपए की कोई किस्त मिली। वह गांव कनेक्शन से कहते हैं, “वे तथाकथित किसान जो खेती के बारे में एक चीज़ नहीं जानते उन्हें योजना का लाभ मिल गया, लेकिन मुझे एक पैसा भी नहीं मिला।”

पानी की किल्लत

कोरोना महामारी के दौरान लाखों महिलाओं को अपने परिवार के लिए पानी की किल्लत से जूझना पड़ा है। कोरोना महामारी से बचने के लिए सरकार और स्वास्थ्य संगठनों का एक बुनियादी सलाह है कि बार-बार हाथ धोएं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भी यह बात स्वीकार की गई है कि साबुन और पानी से नियमित हाथ धोने से कोरोना वायरस से बचा जा सकता है।

इसके मद्देनज़र महिलाओं को पानी की प्राथमिकता को ध्यान रखते हुए इसके प्रबंधन के लिए अधिक बोझ का सामना करना पड़ा है।

26 वर्षीय मोनिका काइपेंग जो मार्टिन काइपेंग की बहन हैं, उन्हें पानी लाने के लिए 300 मीटर दूर जाना पड़ता है। वह गांव कनेक्शन को बताती हैं, “रास्ता पहाड़ी होने के कारण पानी लाना मुश्किल हो जाता है। हर दिन सात से आठ बार पानी लाने जाना पड़ता है। किसी दिन घर में कोई मेहमान आ जाए तो और भी मेहनत करनी पड़ती है।”

मोनिका काइपेंग और उनका भाई मार्टिन

मोनिका काइपेंग और उनका भाई मार्टिन

सर्वे के अनुसार, त्रिपुरा में 60 प्रतिशत महिलाओं ने अतिरिक्त पानी की व्यवस्था के लिए कड़ी मेहनत की। केवल 39 प्रतिशत उत्तरदाताओं के पास अपने घरों में हैंडवाशिंग के लिए पर्याप्त पानी था।

जबकि असम में 57 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने हाथ धोने के लिए अपने घर में पर्याप्त पानी होने का दावा किया। 41 प्रतिशत ने कहा कि वे पानी की व्यवस्था करने के लिए अतिरिक्त मेहनत कर रहे हैं। हालांकि, अरुणाचल प्रदेश में 44 फीसदी लोगों ने कहा कि उनके घर में हैंडवाशिंग के लिए पर्याप्त पानी है और 15 फीसदी महिलाओं ने अतिरिक्त पानी का प्रबंधन करने के लिए कड़ी मेहनत की।

सरकार के काम को लेकर राय

यह दिलचस्प है कि तमाम कठिनाइयां झेलने के बावजूद सर्वे से पता चलता है कि 74 प्रतिशत ग्रामीण उत्तरदाता लॉकडाउन में मोदी सरकार के काम से संतुष्ट दिख रहे हैं। असम, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा में उत्तरदाताओं ने माना कि मोदी सरकार लॉकडाउन के दौरान निष्पक्ष रही और अमीर और गरीबों के साथ समान व्यवहार की। गांवों और शहरों की देखभाल के मामले में सरकार के लिए इसी तरह के रुझान देखे गए।

जब काइपेंग अपने गांव लौटे, तो उन्हें 14 दिनों के लिए क्वारंटाइन रहना पड़ा। उन्होंने बताया कि “हमें रोज़ाना 200 रुपए मिलने थे और इसके लिए क्वारंटाइन सेंटर में रहना था। मुझे कुछ नहीं मिला। हम मैदान के पास एक छोटे से शेड में रहे थे।”

काइपेंग ने गांव कनेक्शन को बताया कि क्वारंटाइन सेंटर पर खाना घर से मंगवाना पड़ता था। परिवार का कोई सदस्य ही इसे पहुंचा जाता था। इस दौरान उन्होंने दिन में दो बार भोजन किया। दिलचस्प बात यह है कि त्रिपुरा में केवल 17 प्रतिशत उत्तरदाता महामारी के दौरान पंचायत के द्वारा की गई सुविधाओं से संतुष्ट दिखें। हालांकि, असम के 57 प्रतिशत और अरुणाचल प्रदेश के 44 प्रतिशत ग्रामीण इससे संतुष्ट दिखें।

काइपेंग की तरह, देश भर में फंसे पूर्वोत्तर राज्यों के कई प्रवासी श्रमिक गर्मी और भूख से तड़पते हुए अपने गांवों में पहुंचे। भले ही उनके गांवों में कम नौकरियां हों और परिवार का भरण पोषण करना एक बहुत बड़ी चुनौती है, लेकिन ज्यादातर लोग उन शहरों में वापस नहीं जाने की प्रतिज्ञा करते हैं जहां वे कभी रोजगार के लिए जाते थे। कोई बाहरी समर्थन नहीं होने के कारण, काइपेंग अपने गांव में एक छोटा सा जनरल स्टोर खोलने के लिए पैसे इकट्ठा कर रहे हैं। अपने गांव, अपने घर में वह एक नई शुरुआत के लिए आशान्वित हैं।

अनुवाद- दीपक कुमार

इस स्टोरी को मूल रूप से अंग्रेजी में यहां क्लिक करके पढ़ें।

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