करवाचौथ के दिन जब ज्यादातर शहरों के ब्यूटी पार्लर
और चूड़ियों के दुकान में रौनक थी, बिहार
के मधुबनी जिले की एक चूड़ी बाजार में मायूसी पसरी थी। इस बाजार में खास तरह की
चूड़ियां और कंगन बनते हैं लेकिन लॉकडाउन और पैसों की तंगी से लाख की चूड़ियां
बनाने वालों का काम और कमाई दोनों चौपट हो गए हैं।
बिहार के मधुबनी जिले के झंझारपुर
स्थित पुरानी बाजार में लाख की चूड़ियों का काम होता है। लहरी टोला में एक दर्जन से
ज्यादा लाख (लाह) की चूडियों की दुकानें हैं,जहां
चूड़ियां बनती भी हैं और बिकती भी हैं। लेकिन त्योहारों के इस मौसम ये लोग
ग्राहकों को तरस रहे हैं।
लाख को धीमी आंच पर गर्म करके उन्हें चूड़ी और कंगन
का रूप दिया जाता है। ये काम बरसों से परंपरागत तरीके से पीढ़ी दर पीढ़ी होता आया
है। इन चूड़ियों की मांग पर्व-त्योहार और शादियों के मौसम में ही अधिक होती है।
इधर, कई पर्व और त्योहार बीत चुके हैं और दीपावली और छठ पर्व आने
वाला है लेकिन कारीगरों, दुकानदारों और कारोबारियों के
चेहरों पर मायूसी छाई हुई है।
एक दुकानदार ने बाजार का हाल पूछने पर कहा, “लोगों के पास खाने की दिक्कत है, फैशन
की चीजें कहां से खरीदेंगे। हम लोग पहले से मुश्किलों में थे, लॉकडाउन ने इसे और बढ़ा दिया है।”
लाख की चूडियां बनाने वालों को लहठी कारीगर कहते हैं।
अपने जिंदगी के कई दशक कोयले की धीमी आंच और लाख को दे चुके लहठी कारीगर (72वर्ष)
रामचंद्र लहरी कहते हैं, “यहां पर पुराने ढंग से हाथ से ही काम होता है। इसमें
मेहनत और वक्त अधिक लगता है। लेकिन बाहर से आने वाली चूड़ियों का ये मुकाबला नहीं
कर पाती हैं। उनमें फिनिशिंग अधिक होती है, इसलिए
ग्राहक उसे अधिक पसंद करते हैं।”
बुजुर्ग कारीगर की बातों और आंखों दोनों में मायूसी
नजर आती है। उनकी मानें तो इस हस्तकला की ओर से सरकार ने अपनी नजरें फेर ली हैं।
लहरी आगे कहते हैं, “पहले यहां से चूड़ियों को तैयार कर हम बाहर भेजते थे। अब बाहर से तैयार
चूड़ियों को खरीद कर बेचना पड़ता है। हमें सरकार यहां से इलाहाबाद, ग्वालियर और देश के दूसरे शहरों के प्रदर्शनियों में ले जाती थी। यात्रा
भत्ते और अन्य खर्चे देती थी। लेकिन अब यह सब बंद हो गया है।”
यहां लहरी समुदाय के करीब तीन दर्जन परिवार रहते हैं, लेकिन अब केवल 10-12 परिवार ही इस धंधे में हैं। इनमें से भी
महज तीन चार लोग ही अब चूड़ी से बनाने का काम करते हैं। ज्यादातर पुराने कारीगरों
ने चूड़ियां बनाना बंद कर कुछ और काम खोल लिया है तो उनकी नई पीढ़ी के बच्चे काम
की तलाश में मजदूर बनकर दूसरे शहरों को पलायन करने लगे हैं।
रामचंद्र लहरी का एक बेटा मुंबई की फैक्ट्री में काम
करता है तो दूसरा वहीं मजदूरी करता है। लहरी कहते हैं, “दोनों बच्चों को चूड़ियां बनाने की कला आती थी लेकिन इससे परिवार चलाना मुश्किल
था। उन्हें बाहर जाने को मजबूर होना पड़ा।”
वहीं, उनसे
कुछ दूरी पर ही राजकुमार लहरी अपनी पत्नी के साथ लाख (लाह) की चूड़ी बनाने के काम
में लगे हुए हैं। ये दोनों पिछले 30 वर्षों से इस कारोबार में हैं और इसी से
परिवार का खर्च चलाते हैं। इनके दो बेटे हैं। बड़ा बेटा राजेश कुमार स्नातक हैं और
मुंबई की एक फैक्ट्री में काम करता है। दूसरा बेटा गणपति कुमार स्नातक की पढ़ाई कर
रहा है। राजकुमार के दो भाई भी मुंबई में रोजी-रोटी कमाने चले गए हैं।
“अभी कारोबार की स्थिति बहुत खराब है।
दो आदमी मिलकर 400 से 500 रुपये रोज कमाते हैं। सरकार कहती है कि एक मजदूर को 350
रुपये मिलना चाहिए, लेकिन मजदूर के बराबर भी हम नहीं कमा
पाते हैं,” राजकुमार लहरी लहठी (चूड़ी) को आकार देते हुए कहते हैं।
पर्व त्योहार से लेकर शादी बारात और मृत्यु के बाद
होने वाले कर्मकांड तक से लाख का नाता है। कभी इन कारीगरों की अच्छी कमाई होती है
थी, उन्हें सम्मान भी मिलता था। राजकुमार के मुताबिक लहठी के
कारोबार से उनके पिता-दादा ने जमीनें खरीदी थीं, घर बनवाए थे
लेकिन अब पूंजी के अभाव और सरकारों की उदासीनता ने स्थिति खराब कर दी।
राजकुमार लहरी कहते हैं, “अभी हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी हो गई है कि जब हमें किसी
की शादी या श्राद्ध में अधिक रूपयों की जरूरत होती है, तो
पूर्वजों की कमाई-संपत्तियों को बेचकर इंतजाम करना होता है।”
पूरे देश में आत्मनिर्भर भारत, लोकल फॉर वोकल का शोर है। ये बातें 19 साल के गणपति कुमार तक
भी पहुंची हैं लेकिन उनकी आत्मनिर्भरता का सपना पैसों की दिक्कत पर आकर टूट जाता
है। गणपति कुमार कहते हैं, “हम लोग को कारीगरी जानते हैं लेकिन पूंजी के अभाव में
इस कारोबार को आगे नहीं बढ़ा सकते हैं। जो चीजें पीढ़ियों से चलती आ रही थी, अब उसे धीरे-धीरे छोड़ते जा रहे हैं। जिस तरह कारीगर पैसों के
अभाव में यहां से पलायन कर रहे हैं, उससे ऐसा लगता है आने
वाले समय में ये हस्तकला खत्म हो जाएगी।”
गणपति इस कारोबार में छोटे कारोबारियों के पास पूंजी
के अभाव के अलावा एक अन्य बड़ी समस्या की ओर ध्यान दिलाते हैं। वह हमें बताते हैं, “हम लोग छोटे बाजारों से कच्चा माल लाते हैं। जयपुर या इंदौर वाले बड़े
कारोबारी चीन से भी स्टोन्स और दूसरे कच्चे माल मंगा सकते हैं। इसके चलते उनकी
लागत कम आती है और हमारी अधिक हो जाती है और उनके सामने हम कहीं टिक नहीं पाते
हैं।” बिहार की लहठी की औसत कीमत 40 रुपए दर्जन से लेकर 150
रुपए तक की होती है।
करीब चार साल पहले लहठी का पारपंरिक कारोबार छोड़कर
कृष्णा साह ने रोजी-रोटी के लिए दिल्ली की राह पकड़ ली थी। वह लॉकडाउन लगने के बाद
से ही घर में है और अभी साइकिल से गांव-देहात जाकर चूड़ियों को बेचने का काम करते
हैं। वह हमें बताते हैं कि छठ पर्व के बाद फिर वापस दिल्ली चले जाएंगे।
साह कहते हैं, “इस काम में पैसा
लगता और हम लोगों के पास पूंजी नहीं है। 5,000-10,000 रुपये का माल लाते हैं, उसी को बेचते हैं। बैंक
से हम लोगों ने कर्ज लेने की कोशिश की थी। लेकिन हमें मिला नहीं। अब इस कारोबार से
कोई उम्मीद नहीं है।”
चुनाव में लहठी कारोबार पर संकट कोई मुद्दा नहीं, सरकारी योजनाएं केवल कागजी
बिहार में लहठी कारोबार के मुख्य केंद्रों- दरभंगा, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर और मधुबनी जिले
की अधिकांश सीटों पर सात नवबंर पर मतदान है। झंझारपुर सहित कुछ सीटों पर तीन नवंबर
को मतदान हो चुका है। लेकिन रोटी-रोटी से जुड़े इन मुद्दों पर कोई बात नहीं हुई।
राजकुमारी लहरी कहते हैं, “न तो सरकार हमारे ऊपर ध्यान देती है और न ही यहां का
कोई क्षेत्रीय नेता इस पर कोई पहल करता है। यहां तक कि इस इलाके में कोई बुनियादी
सुविधाओं का भी विकास नहीं हो पाया है। आप सामने सड़क देख रहे हैं, अभी पत्थर वाली ईंटें लगी हुई हैं, इस पर बारिश के
दिनों में इतना एक्सीडेंट होता है कि पूछिए मत। लेकिन इसे भी देखने वाला कोई नहीं
है।”
झंझारपुर
विधानसभा सीट पर अलग-अलग समय सभी पार्टियों या गठबंधन के विधायक रह चुके हैं।
साल 2000 से 2010 तक राजद के उम्मीदवारों (जगदीश नारायण चौधरी और राम अवतार चौधरी), 2010 में जदयू के नीतीश मिश्र और 2015 में राजद के गुलाब यादव
को जनता ने विधानसभा के लिए अपना प्रतिनिधि चुना था। वहीं, साल
2019
के लोकसभा चुनाव में जदयू के रामप्रीत मंडल ने जीत दर्ज की थी।
वहीं, पिछली
मोदी सरकार में बिहार से भाजपा सांसद गिरिराज सिंह सूक्ष्म, लघु
और मध्यम उद्यम मंत्रालय का कार्यभार संभाल चुके हैं। लेकिन लहठी कारीगरों की
मानें तो इसका भी फायदा उन्हें नहीं मिल पाया है।
वहीं, स्नातक
की पढ़ाई कर रहे कृष्णा के भाई अजय कुमार नाराजगी के साथ कहते हैं, “पार्टियां केवल
चुनाव के समय तरह-तरह के वादे करती हैं। बोलती है कि ये देंगे…….वो देंगे।
लेकिन चुनाव के बाद हमें कुछ नहीं मिलता।”
गणपति कुमार को केंद्र सरकार की योजनाओं से उम्मीद
दिखती है। वह कहते हैं, “अभी ‘आत्मनिर्भर
भारत‘ मोदी जी लॉन्च किए। अगर इसमें हमें फायदा मिलता तो
अच्छा होता। कर्ज देने के लिए प्राइवेट बैंक भी लोन देती है। महाजन भी देते हैं।
लेकिन सरकारी बैंक की प्रक्रिया को आसान बनाए जाए तो हमारे लिए अच्छा होगा।”
उधर, रामचंद्र लहरी
हमें बताते हैं कि कुछ कारीगरों के साथ वे मधुबनी स्थित हस्तकला केंद्र गए थे। उन
सबका आवेदन भी लिया गया था लेकिन किसी को कर्ज नहीं मिला।
गांव कनेक्शन ने मधुबनी स्थित हस्तकला केंद्र पहुंचकर
आधिकारिक बयान लेना चाहा। लेकिन दफ्तर पर ताला लगा हुआ था। फोन पर भी किसी अधिकारी
से संपर्क नहीं हो सका।
बिहार लहरी महासंघ भी नहीं कर पा रहा मदद
मोहन प्रसाद साह मधुबनी स्थित कोतवाली चौक के पास
चूड़ी की दुकान है। वह बिहार लहरी महासंघ के अध्यक्ष हैं। साह मानते हैं कि 75
फीसदी कारीगर इन काम को छोड़ कर दूसरा काम या फिर मजदूर बन चुके हैं लेकिन वो कोई
मदद नहीं पा रहे। हालांकि यह संघ भी मात्र कहने भर को है क्योंकि संघ को भी ठीक से
नहीं पता इस काम में कितने लोग जुड़े हैं।
साह करते हैं, “हम एकजुट होकर
अपनी समस्याएं सरकार से मांग नहीं कर पाते। अब तक महासंघ की ओर से सरकार से कर्ज
लेने की कोई पहल नहीं की गई है।”
महासंघ के महासचिव अनिल कुमार गुप्ता कहते हैं, “नई सरकार बनने के बाद हम लोग कोशिश करेंगे कि सरकार नई
कला को संरक्षण और बढ़ावा देने के लिए कुछ करे।”
कोतवाली चौक पर ही पप्पू साह की दुकान है। वह पूरे
परिवार के साथ मिलकर चूड़ियां बनाते हैं।
पप्पू साह कहते हैं, “अभी चार लोग मिलकर काम करते हैं और डेली (प्रतिदिन)
केवल 500-600 रुपये कमाई होती है। पापा मिठाई बनाने का काम करते हैं, जिससे अन्य जरुरतें पूरी होती हैं।”
पप्पू नहीं चाहते कि उनका बेटा भी इस काम में लगे। वह
कहते हैं, “हम लोग तो किसी तरह समय काट ही
रहे हैं। लेकिन हम चाहेंगे कि हमारे बच्चों को ये सब नहीं सहना पड़े।”
लाख क्या होता है?
लाख एक प्राकृतिक उत्पाद है जो
छोटे छोटे कीड़ों से निकलने वाले चिपचिपे पदार्थ से तैयार होता है। झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम
बंगाल और महाराष्ट्र में लाख की खेती होती है। लाख उत्पादन के लिए कुसुम,पलास जैसे पेड़ों पर इन सूक्ष्म कीटों को पाला जाता है। पेड़ों से लाख
वाली टहनियों को अलग कर लाह का उत्पादन किया जाता है।