स्कूली
शिक्षा के क्षेत्र में जमीनी काम करने वाले अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बेंगलुरू ने
कोरोना काल के दौरान प्राथमिक स्कूली शिक्षा पर एक व्यापक अध्ययन और जमीनी सर्वे
किया है। यह अध्ययन विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है। ‘ऑनलाइन शिक्षा के भ्रम’ नाम से यह अध्ययन देश के 5 राज्यों
(छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, कर्नाटक) के 26 ज़िलों में किया गया और इसमें 1522 स्कूल शामिल थे। इन सरकारी स्कूलों
में 80,000 से
भी ज़्यादा विद्यार्थी पढ़ाई करते हैं। इस अध्ययन का उद्देश्य ऑनलाइन शिक्षा के बारे
में बच्चों व शिक्षकों के अनुभवों को समझना था।
इस
अध्ययन में यह पाया गया कि शिक्षकों व अभिभावकों के एक बड़े हिस्से के अनुसार ऑनलाइन
माध्यम शिक्षा के लिए अपर्याप्त और अप्रभावी है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि ज़्यादातर
अभिभावक ज़रूरी सुरक्षा इन्तज़ामों के साथ अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार
हैं और उनको यह नहीं लगता कि ऐसा करने से उनके बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर
पड़ेगा।
निष्प्रभावी
है ऑनलाइन शिक्षा
इस
सर्वे के दौरान शिक्षकों ने ऑनलाइन कक्षाओं को लेकर अपनी प्रोफेशनल निराशा ज़ाहिर की।
85 फ़ीसदी
से भी ज़्यादा शिक्षकों ने बताया कि ऐसी कक्षाओं में बच्चों के साथ भावनात्मक जुड़ाव
बनाए रख पाना असम्भव होता है जिससे शिक्षा की बुनियाद ही टूट जाती है। 90 फ़ीसदी
से भी ज़्यादा शिक्षकों का मानना था कि ऑनलाइन कक्षाओं के दौरान बच्चे क्या सीख रहे
हैं इसका कोई सार्थक मूल्यांकन सम्भव नहीं है। 70 फ़ीसदी
से भी ज़्यादा अभिभावक भी कुछ ऐसी ही राय रखते हैं कि ऑनलाइन कक्षाएँ बच्चों के सीखने
के लिहाज़ से प्रभावशाली नहीं हैं।
ऑनलाइन
शिक्षा की अपर्याप्त पहुंच
सर्वे के अध्ययन से पता चलता है कि 60 फ़ीसदी
से भी ज़्यादा बच्चे ऑनलाइन शिक्षा के अवसरों तक नहीं पहुँच पाते हैं। इसकी वजहों में
ख़ासतौर से पढ़ाई के लिए इस्तेमाल या साझा किए जा सकने वाले स्मार्टफ़ोनों का अनुपलब्ध
होना या उनका पर्याप्त संख्या में न होना, और ऑनलाइन शिक्षा
के लिए ज़रूरी ऐप्स के इस्तेमाल में आने वाली दिक़्क़तें हैं। ये समस्या गरीब बच्चों के लिए तो और भी गम्भीर है।
ऐसे 90
फ़ीसदी
शिक्षकों ने, जिनकी नियमित कक्षा में अन्यथा-सक्षम बच्चे शामिल
रहे हैं, पाया कि ये बच्चे ऑनलाइन कक्षाओं में भागीदारी नहीं
कर पा रहे हैं।
स्कूलों
को खोलने के लिए अभिभावकों का ज़बरदस्त समर्थन
लगभग
90 फ़ीसदी
अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार हैं, बशर्ते कि स्कूल खुलने पर उनके बच्चों की सेहत का ध्यान रखा जाए। यह रिपोर्ट बच्चे व शिक्षक,
दोनों की सेहत व सुरक्षा के लिए ज़रूरी सावधानियाँ बरतते हुए चरणबद्ध
तरीक़े से स्कूलों को अविलम्ब खोलने की ज़रूरत को रेखांकित करती है। इस दौरान अन्तरिम
उपाय के तौर पर, शिक्षकों को प्रोत्साहित किया जाए कि वे ज़रूरी
सावधानियाँ बरतते हुए बच्चों के साथ सीधे संवाद के लिए समुदाय-आधारित उपायों को उपयोग में लाएं।
अज़ीम
प्रेमजी विश्वविद्यालय के कुलपति अनुराग बेहार इस अध्ययन के संबंध में कहते हैं, “ऑनलाइन
शिक्षा केवल इसलिए अप्रभावी नहीं है कि स्कूली बच्चों की पहुंच नेट या ऑनलाइन
संसाधनों तक नहीं है बल्कि शिक्षा की बुनियादी प्रकृति इसके ठीक विपरीत है। शिक्षा
के लिए वास्तविक उपस्थिति, मनोयोग, विचार और भावनाओं की ज़रूरत होती है। इन सबको सीखने के लक्ष्यों की दिशा में
क्रमबद्ध तरीक़े से और कई बार आगे-पीछे होते हुए हर बच्चे के लिए अलग-अलग ढंग से आपस
में पिरोया जाता है। इसके लिए शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच गहन मौखिक व अमौखिक
अन्तःक्रिया की ज़रूरत होती है जो वास्तविक कक्षा में ही सम्भव है।”
इस
अध्ययन को करने वाले शोध टीम के सदस्य राहुल मुखोपाध्याय और आँचल चोमल का कहना है कि
इस अध्ययन में सीखने के सार्थक मौक़े उपलब्ध कराने में ऑनलाइन शिक्षण की प्रभावहीनता, संसाधनों की कमी के कारण बहुसंख्यक बच्चों के वंचित रह जाने, और शिक्षकों की प्रोफेशनल निराशा का भी खुलासा हुआ।
पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें-
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