चालीस साल के अमर सिंह यादव गाजियाबाद की एक फैक्ट्री में काम करते थे। महीने में करीब 12000 रुपए कमाते थे लेकिन अब अपने गांव में कहते हैं और रोज के 100 रुपए की दिहाड़ी पर एक व्यापारी के यहां रात की चौकीदारी करते हैं।
अमर सिंह बताते हैं, “लॉकडाउन में जैसे तैसे घर लौटे। वहां फैक्ट्री मालिक ने पुराने काम के पैसे भी नहीं दिए बदकिस्मती से यहां एक एक्सीडेंट में पैर टूट गया। कुछ दिन घर में रखा राशन पानी बेचकर काम चला लेकिन बाद में खर्च चलाने के लए जमीन (खेत) गिरवी रखनी पड़ी। पड़ोस के एक व्यापारी ने तरस खाकर काम दे दिया है, 100 रुपए रोज पर बात तय हुई है।” राम सिंह का घर उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में बहगुल नदी के पास बसे सालपुर नवदिया गांव में हैं। इस गांव के तमाम लोग दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में कमाने जाते हैं, राम सिंह के मुताबिक लॉकडाउन में वापस आने के बाद कई लोग दोबारा नहीं गए।
शाहजहांपुर से करीब 175 किलोमीटर दूर यूपी के ही बाराबंकी जिले में तुरकौली ग्राम पंचायत के अमीर हसन (43 वर्ष) पिछले 15-20 साल से दिल्ली में गाड़ी (छोटे ट्रक) चलाते थे। लेकिन कोरोना के चलते लगे देशव्यापी लॉकडाउन में गांव आ गए। अब वे यहां दिहाड़ी मजदूर हैं।
तरबूज के खेत में गुड़ाई करते मिले अमीर हसन गांव कनेक्शन को बताते हैं, ” होली वाले दिन हमें दिल्ली से लौटे पूरा एक साल हो गया। दिल्ली में मैं 10 हजार रुपए महीने कमा लेता था लेकिन यहां दिन की मजदूरी 200 रुपए है। मैं रोज काम नहीं पाता हूं, मेरे पास इतना पैसा भी नहीं है कि नई या सेकेंड हैंड गाड़ी खरीद लूं, यहां आसपास भी कोई गाड़ी नहीं जो ड्राइवरी कर लूं। अब किसी तरह अपने बच्चों को पाल रहा हूं।”
कोरोना से मिले दर्द और परेशानियों को लेकर अमीर हसन कहते हैं, “गांव के लोग परेशान हैं कि कहते हैं कि तुम कुदाल कैसे चला लेते हो? लेकिन मैं कहता हूं जब सिर पर पड़ेगी सब चला लोगे। बच्चे पालने हैं। 3 लड़के हैं 1 बेटी जो पढ़ने जाते हैं। अभी मैं प्रिसिंपल से जाकर मिला और उनके हाथ पैर जोड़े फिर फीस माफ हुई। मेरे कई साथी जो दिल्ली से वापस आए थे वो भी गांवों में कुछ न कुछ कर रहे।” अमीर हसन के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान सरकार से मुफ्त राशन मिला लेकिन सिर्फ उससे काम नहीं चलता।
कोरोना के चलते मार्च 2020 में हुए राष्ट्रव्यापी में हजारों लोगों की नौकरी चली गईं, आजीविका छिन गई। देश में लॉकडाउन का हाल में ही एक साल पूरा हुआ। इस बीच कोविड-19 महामारी के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए फिर से महाराष्ट्र समेत कई जगहों पर लॉकडाउन लगाया जाने लगा है। कोरोना महामारी और लॉकडाउन के प्रतिकूल असर को पूरे देश और दुनिया ने झेला लेकिन भारत के संदर्भ में प्रवासी मजदूरों की स्थितियां काफी अलग रही हैं।
सितबंर 2020 में केंद्र सरकार ने लोकसभा में बताया कि 10466152 प्रवासी लॉकडाउन के दौरान अपने घरों को लौटे थे। इनमें से सबसे ज्यादा 32,49,638 प्रवासी उत्तर प्रदेश में लौटे तो दूसरे नंबर पर बिहार रहा जहां 15,00,612 प्रवासी शहरों से घर को लौटे और तीसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल में 13,84,693 प्रवासी मजदूर और कामगार शहरों से अपने गांवों को लौटे हैं।
हजारों हजार मजदूर पैदल, ट्रक, साइकिल,रिक्शा और दूसरे साधनों से भूखे प्यासे और खाली जेब अपने घरों को लौटे थे। हालात बदलने पर इनमें से कुछ तो घर चलाने के लिए वापस लौट गए लेकिन एक बड़ी संख्या उनकी भी जो वापस नहीं गई।
आठ फरवरी 2021 को ही संसद के बजट सत्र के दौरान केंद्रीय श्रम एवं रोजगार राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) संतोष गंगवार ने प्रवासियों को उनके आसपास काम देने के एक सवाल के जवाब में लोकसभा में बताया कि ग्रामीण प्रवासी कामगारों के कौशल के आधार पर रोजगारपारिता बढ़ाने के लिए स्किल मैपिंग कराई जा रही है। ताकि वो अपने घरों के पास रहकर काम कर सकें। इस अभियान में 50 हजार करोड़ रुपए के संसाधनों के साथ ही 6 राज्यों के 116 जिलों में काम देने के लिए प्रयास जारी हैं। पहले ही इस अभियान में 50,78,68,671 कार्य दिवस सृजित किए जा चुके हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और मजदूर किसान संगठन के संस्थापक सदस्य निखिल डे गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, “मोटे तौर पर सरकारी मजदूरी की स्थिति बिगड़ी है। उनको जितने दिन काम मिलता था वो कम हुआ है। जो पैसा मिलता था वो कम हुआ, उनके जो पक्के काम (परमानेंट) थे वो वो खत्म हुआ है। जो लोग अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं उन्हें लिए बाजार में भी मांग उतनी नहीं है, यात्राएं लगातार मुश्किल हुई हैं और कई जगह फिर लॉकडाउन लगा है, कहीं रात का लॉकडाउन लगता है ये सब मजदूर और कामगारों के लिए मुश्किलें ही खड़ी कर रहा।”
निखिल के मुताबिक लॉकडाउन के बाद घर लौटे मजदूर कामगार किस हाल में हैं इस पर कोई शोध तो नहीं हुआ है, सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से कहा था उसका भी कुछ नहीं हुआ। इसलिए अभी बड़ी तस्वीर सामने नहीं हैं।
केंद्रीय मंत्री ने ये भी बताया कि कामगारों की समस्यों का समाधान करने के लिए श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने पूरे देश में 20 नियंत्रण कक्ष बनाए और लॉकडाउन में इन सेंटर ने 15000 शिकायतों का निपटारा किया, दो लाख से ज्यादा कर्मचारियो को 295 करोड़ रुपए दिलवाए गए। हालांकि शाहजहांपुर के राम सिंह यादव जैसे लोग इन नियंत्रण कक्षों की पहुंच से दूर रहे तो बाराबंकी के कुशल कामगार अमीर हसन तक स्किल मैंपिंग की योजना नहीं पहुंची।
लॉकडाउन में लौटे लोगों के लिए सरकार ने क्या-क्या कदम उठाए हैं? इस सवाल के जवाब में केंद्रीय श्रम मंत्री ने बताया कि कोरोना के बाद राज्य कल्याण बोर्डों ने लॉकडाउन और उसके बाद 1.83 करोड़ भवन निर्माण और अन्य निर्माण कर्मचारियों को रोजगार के लिए एक लगभग एक हजार करोड़ रुपए वितरित किए हैं। इसके अलावा गरीब रोजगार कल्याण अभियान के तहत 50 लाख फेरी वालों के लिए सरकार ने कोविड और लॉकडाउन के कारण उनकी जीविका में हुए नुकसान की भरपाई के लिए बिना जमानत के 10 हजार रुपए तक का मुप्त कार्यपूंजी ऋण देने के लिए ‘स्वनिधि योजना’ शुरु की है।
अपनी योजनाओं को गिनाते हुए केंद्रीय मंत्री ये भी बताया कि सरकार ने प्रवासी कामगारों को परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय ने नए निर्माण कार्य चालू कराए हैं। जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने देश के 101 महात्वकांक्षी जिलों समेत 150 जिलों को कवर करते हुए 30 बॉयोटेक-किसान हब स्थापित किए हैं। जो प्रवासी कामगारों को खेती के माध्यम से उनकी आजीविका कमाने वाले और बेहतर कमाई वाली फसलों की खेती लिए उन्हें तकनीकी और जानकारी देकर उनकी मदद करेंगे।
सरकार की योजनाओं से इतर बाराबंकी में 2 बीघे (0.51 हेक्टेयर) खेत के मालिक पल्हरी गांव के काशीराम को मजदूरी का ही सहारा है। काशीराम के परिवार में 12 लोग हैं, परिवार चलाने के लिए वो लॉकडाउन से पहले सूरत में घरों के ऊपर पानी की टंकियां लगाकर 10000-12000 रुपए महीने के कमा लेते थे लेकिन अब मुश्किल से 150 से 200 ही कमा पाते है।
गांव कनेक्शन की टीम से उनकी मुलाकात हुई तो सरसों के भूसे में सने हुए थे। नाक पर चिपके भूसे को साफ करते हुए काशीराम कहते हैं, “लॉकडाउन में वापस आने के बाद दोबारा जाने की हिम्मत नहीं हुई। तो यहीं मेहनत मजदूरी करते हैं दिन के 150-200 रुपए मिलते हैं। सरकार से लॉकाडाउन में राशन के अलावा हमें कोई कोई मदद नहीं मिली। हमें तो मेहतन मजदूरी का ही सहारा है।’
प्रवासी मजदूरों की दशा को लेकर निखिल डे एक और चिंता जताते हैं, “लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों और कामगारों के पास मनरेगा का विकल्प था, लेकिन इधर एक महीने से मनरेगा का भुगतान नहीं हुआ है। अब नए बजट से पिछले साल का बाकी का भुगतान कर देंगे, मनरेगा बजट पहले ही बड़ी कटौती कर चुकी है ऐसे में आने वाले दिनों में मजूदरों के पास मनरेगा के भी सीमित विकल्प बचेंगे तो मुश्किल बढ़ेगी।
ये हैं 21 साल के शाबाज़ आलम जो गोरखपुर के आसपास घूम-घूम कर दरियां बेचते हैं। #lockdown ने उनके जीवन पर क्या असर डाला, पूछने पर बताते हैं- एक साल पहले मैं महीने के 15 हजार से 20 हजार रुपए का काम कर लेता था अब 5 हजार की बिक्री मुश्किल है
वीडियो @JamwalNidhi #lockdownanniversary pic.twitter.com/zNEh2j9L0A— GaonConnection (@GaonConnection) March 25, 2021
आम बजट (2021-22) में मनरेगा के लिए सरकार ने 73,000 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं जो पिछले बजट की तुलना में तो अधिक है मगर संशोधित अनुमान, 111,500 करोड़ रुपये से 34.5 प्रतिशत कम है।
लॉकडाउन का असर जानने के लिए गांव कनेक्शन ने मई 2020 से जुलाई 2020 के बीच देश के 25 राज्यों में सर्वे कराया था जिसमें में 71 फीसदी लोगों (हर दस में से 7) ने कहा कि लॉकडाउऩ के दौरान उनके परिवार की आमदनी में गिरावट आई थी, जबकि हर 10 में से 9 (89%) लोगों ने माना था कि तालाबंदी से उन्हें किसी न किसी रुप में आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
इसी बीच 30 और 31 मार्च 2021 को भारत के श्रम ब्यूरो ने दो अखिल भारतीय सर्वेक्षणों की शुरुआत कर दी है। इनमें से पहला प्रवासी मजदूरों पर आधारित है, जो उनके काम करने, उनके रहने की स्थिति और कोविड-19 के चलते उनके कार्य के क्षेत्र पर पड़े असर का अध्ययन करेगा।
दूसरा सर्वे 10 या उससे अधिक श्रमिकों को रोजगार देने वाले प्रतिष्ठानों (कंपनियों/संस्थानों) में रोजगार के अनुमान के साथ ही 9 या उससे कम श्रमिकों को रोजगार देने वाले प्रतिष्ठानों का सर्वेक्षण किया जाएगा ताकि त्रैमासिक आधार पर चयनित क्षेत्रों में रोजगार की स्थिति में परिवर्तन पर महत्वपूर्ण डेटा मिल सके।
लेकिन कुछ गांव आकर बन गए आत्मनिर्भर
कोरोना ने बहुत सारे लोगों को आजीविका छीनकर उन्हें वापस गांव लौटने पर मजबूर कर दिया। जो गांव लौटे उनकी कमाई भी शहरों की तुलना में कई गुना कम हुई है। लेकिन इस बीच कुछ लोगों ने आपदा में अवसर तलासते हुए खुद आत्मनिर्भरता की तरफ कदम भी बढ़ाए हैं।
महाराष्ट्र में वर्धा जिले में सालोड़ गांव दो दोस्त शुभम बोंडे पुणे तो विशाल गोरे नागपुर में नौकरी करते थे। उनका सालाना पैकेज तीन लाख से साढ़े तीन लाख रुपए के करीब था। कोरोना लॉकडाउन में फैक्ट्रियां बंद हुई तो दोनों को वापस अपने गांव आना पड़ा। इस दौरान दोनों ने मिलकर खुद के फूड पैकेजिंग का काम शुरु किया है। इसके लिए एलआईसी बंधकर बनाकर बैंक से 5 लाख रुपए का लोन भी लिया है। शुभम के मुताबिक साल 2020 में शुरु किया गया उनका फरसान पैकेजिंग का छोटा काम चल निकला है और आज वो गांव के तीन अन्य लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं। तीनों कर्मचारियों को वो 6000 रुपए महीने की सैलरी देते हैं।
इनपुट- वर्धा- चेतन बेले, शाहजहांपुर से राम जी मिश्र, कम्युनिटी जर्नलिस्ट